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आ​र्थिक वृद्धि का रास्ता: नोबेल विजेताओं ने व्यवहारिक सोच और प्रगति की संस्कृति पर दिया जोर

इस वर्ष के नोबेल पुरस्कार विजेताओं का तर्क है कि देश तभी प्रगति करते हैं जब उनकी नीतियां व्यावहारिक होती हैं और उनकी संस्कृतियां प्रगति चाहती हैं। बता रहे हैं मिहिर शर्मा

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मिहिर एस शर्मा   
Last Updated- October 22, 2025 | 10:34 PM IST

आर्थिक वृद्धि क्या है और वह कहां से उत्पन्न होती है? क्या यह केवल विभिन्न सामग्रियों, कच्चे माल और प्राकृतिक संसाधनों, श्रम और पूंजी का संचयन है? क्या यह तकनीकी प्रगति का उत्पाद है या फिर इसमें कुछ और भी सूक्ष्म बात काम करती है?

यह अर्थशास्त्र के लिए बुनियादी प्रश्न होना चाहिए लेकिन आश्चर्य की बात है कि ऐसे सवाल उठाने वाले बहुत कम लोगों को नोबेल पुरस्कार मिले हैं। जब जोएल मोकिर, फिलिप एगियों और पीटर हॉविट को इस वर्ष का नोबेल पुरस्कार दिया गया तो वे भी इस छोटी सूची में शामिल हो गए। केवल 1971 में साइमन कुज़्नेत्स और 1987 में रॉबर्ट सोलो को खासतौर पर वृद्धि के सिद्धांत और उसकी अकाउंटिंग से संबंधित काम के लिए पुरस्कृत किया गया था।

कुज़्नेत्स को उनकी उस टिप्पणी के लिए सबसे अधिक याद किया जाता है जिसमें उन्होंने कहा था कि किसी अर्थव्यवस्था में वृद्धि के साथ पहले असमानता बढ़ती है और फिर उसमें कमी आने लगती है। यह अंग्रेजी के उलटे ‘यू’ की आकृति का वही वक्र है जो उनके नाम से जाना जाता है। यह उनके उस व्यापक नजरिये का हिस्सा है जिसमें उन्होंने यह समझाया कि वृद्धि प्रक्रिया कभी सरल नहीं होती है बल्कि इसमें किसी भी अर्थव्यवस्था के भीतर उत्पादक संबंधों का एक विशाल पुनर्गठन शामिल होता है। इसके अतिरिक्त जब वे अमेरिका के राष्ट्रीय आर्थिक शोध ब्यूरो में राष्ट्रीय आय लेखांकन परियोजना के प्रमुख थे, तब उन्होंने सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की अवधारणा को सबसे ज्यादा आगे बढ़ाया। आज इसका व्यापक उपयोग किया जाता है।

इस बीच सोलो ने अपेक्षाकृत साधारण मॉडल विकसित किया जो आज जीडीपी की वृद्धि को मापने और विश्लेषण करने का आधार है। जीडीपी मुख्य रूप से पूंजी और श्रम जैसे इनपुट के संयोजन से उत्पन्न होता है। यदि कोई बचत और निवेश को प्राथमिकता देता है तो उसकी वृद्धि दर तेज होती है। जब इसे श्रम को बेहतर बनाने वाली तकनीकी प्रगति से तुलना करते हैं तो सोलो का मॉडल यह दर्शाता है कि प्रति श्रमिक उत्पादन वृद्धि दर मूल रूप से तकनीकी परिवर्तन की दर पर निर्भर करती है।

किसी देश की पूंजी और श्रम की उपलब्धता को ध्यान में रखते हुए वृद्धि की भविष्यवाणी करने और उसका विश्लेषण करने में सोलो मॉडल उपयोगी रहा है लेकिन इसके सैद्धांतिक निष्कर्षों को हमेशा कुछ हद तक असंतोषजनक माना जाता है। वे तकनीकी बदलाव जो निरंतर वृद्धि प्रदान करते हैं, कुछ अधिक जादुई प्रतीत होते हैं। यदि वे वृद्धि के केंद्र में हैं तो फिर वे स्वयं कहां से आते हैं? यकीनन विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं में उन्हें खोजने, वितरित करने और प्रसारित करने के तरीकों में अंतर होता होगा।

यही वह विचार था जिसने सोलो को नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद के वर्षों में ‘एंडोजनेस ग्रोथ थ्योरी’ यानी अंतर्जात वृद्धि सिद्धांत की दिशा में बढ़ने के लिए प्रेरित किया। इसमें तकनीकी प्रगति को बहिर्जात या बाहरी स्रोतों से हासिल हुआ मानने के बजाय अर्थव्यवस्था की आंतरिक संरचना और तंत्र से उत्पन्न माना गया। इसी क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण शोध करने के लिए प्रोफेसर एगियों और हॉविट को इस वर्ष का नोबेल पुरस्कार दिया गया है।

ध्यान रहे कि इस दौरान वे वृद्धि के स्रोतों की पड़ताल करने वाले अकेले नहीं थे। रॉबर्ट लुकास ने इस मॉडल में मानव पूंजी को शामिल किया था। उन्हें वृहद अर्थव्यवस्था की बुनियाद पर किए गए काम के लिए नोबेल पुरस्कार मिला। वहीं पॉल रोमर ने पहली बार पेटेंट संरक्षण और अनुसंधान की भूमिका को इस सिद्धांत में जोड़ा। उन्हें भी अब तक नोबेल मिल जाना चाहिए था।

इस क्षेत्र को मान्यता देने में इतना समय क्यों लगा और यह अब क्यों हो रहा है? जैसा कि अर्थशास्त्र में हमेशा होता है, जिस काम को सराहा जाता है वह वास्तविक दुनिया के नीति-निर्माताओं की चिंताओं और परेशानियों का प्रतिबिंब होता है। यह धारण बीते कुछ दशकों में नीति निर्माताओं के अनुभवों से कुछ हद तक दूर रही है कि वृद्धि लगातार नवाचार, आधुनिक शोध और मानव पूंजी में बढ़त के जरिये होती है।

चीन विश्व की एक बड़ी शक्ति बनकर उभरा और ऐसा लगा मानो उसने यह कामयाबी अपनी अर्थव्यवस्था को उत्पादक विनिर्माण क्षेत्रों की ओर पुनर्गठित करके, उच्च बचत दर को बढ़ावा देकर और लगातार बढ़ती पूंजी के इस्तेमाल के माध्यम से हासिल की। 1990 के दशक में अर्थशास्त्री एल्विन यंग जैसे कुछ क्रांतिकारी शोधकर्ताओं ने यह सिद्ध किया कि चीन से पहले उच्च वृद्धि दर हासिल करने वाले एशियाई टाइगर्स जैसे कि द​क्षिण कोरिया और ताइवान आदि ने भी विश्वस्तरीय वृद्धि केवल अपना पूंजी निवेश बढ़ाकर, महिलाओं को कार्यबल में शामिल करके और शिक्षा के माध्यम से मानव पूंजी को बढ़ाकर प्राप्त किया।

आज की दुनिया अलग है। एक असाधारण गति के बाद ऐसा लगता है कि चीन की वृद्धि अब अपने उच्चतम स्तर को हासिल कर चुकी है। वृद्धि के अगले दौर के बारे में अनुमान लगाना मुश्किल होगा। फिलहाल वृद्धि, निवेश और शेयर सभी उन क्षेत्रों द्वारा संचालित हो रहे हैं जो स्वयं उच्च स्तर के अनुसंधान और नवाचार पर निर्भर हैं। इस कैलेंडर वर्ष की पहली दो तिमाहियों में अमेरिका की जीडीपी वृद्धि लगभग पूरी तरह आर्टिफिशल इंटेलिजेंस के बुनियादी ढांचे में निवेश से आई है। अब यह आवश्यक हो गया है कि यह समझा जाए कि कौन से आर्थिक तत्व किसी अर्थव्यवस्था को तकनीकी परिवर्तन के अनुकूल बनाते हैं, और वह परिवर्तन वास्तविक जीडीपी वृद्धि में कैसे परिवर्तित होता है।

इस साल के नोबेल विजेताओं ने इन सवालों के दो जवाब दिए हैं। प्रोफेसर एगियों और हॉविट कहते हैं: व्यावहारिक बनिए और जोएल मोकिर कहते हैं: प्रगतिशील बनिए। व्यावहारिक कैसे बनें? इस बात स्वीकार करके कि वृद्धि का अर्थ है कुछ क्षेत्रों, प्रौद्योगिकियों और कंपनियों का अंत ताकि नई कंपनियां और क्षेत्र उभर सकें। उभरती प्रक्रियाएं पुरानी और अप्रचलित प्रणालियों की जगह लेती हैं। नई कंपनियां, पुरानी कंपनियों की जगह लेती हैं। नई तकनीक बनाने वालों को असाधारण लाभ दिए जाने चाहिए और उन प्रौद्योगिकियों को अक्षम प्रणालियों की जगह लेने की इजाजत दी जानी चाहिए ताकि वृद्धि संभव हो सके।

अतीत पर टिके रहकर या उसे दोहराकर वृद्धि नहीं हासिल हो सकती। मोकिर के मुताबिक पीछे देखते रहना खतरनाक है। आर्थिक इतिहास पर लिखी उनकी कई किताबों की थीम साझा है: किसी देश में नवाचार और निवेश को पनपने दिया जाए या नहीं, और इसलिए आर्थिक वृद्धि हो या नहीं, यह सब सांस्कृतिक कारकों द्वारा निर्धारित होता है।

1990 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘द लीवर ऑफ रिचेज’ में उन्होंने तर्क दिया कि तकनीकी प्रगति वृद्धि की संभावना को निर्धारित करती है, लेकिन यह प्रगति प्रभावी रूप से कार्य कर पाएगी या नहीं, यह सांस्कृतिक और संस्थागत कारकों पर निर्भर करता है। बाद की एक पुस्तक में वह कहते हैं कि जिन देशों में ऐसी अंतर्निहित व्यवस्थाएं होती हैं जो यथास्थिति को बनाए रखती हैं और आगे नवाचार का प्रतिरोध करती हैं, उनको हमेशा वृद्धि और भू-राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं, दोनों में सीमाओं का सामना करना पड़ेगा।

वह इस विचार को एक प्रभावशाली काल्पनिक प्रयोग के माध्यम से समझाते हैं, ‘1700 तक ब्रिटेन और भारत के वैज्ञानिक और तकनीकी उपलब्धियों में कोई स्पष्ट अंतर नहीं था। तो फिर यह सवाल उठता है… क्यों दिल्ली में कोई ‘वेस्टर्न यूरोप कंपनी’ स्थापित नहीं हुई, जो यूरोप के गहरे राजनीतिक विभाजनों का लाभ उठाकर लंदन में एक भारतीय राज स्थापित कर सकती?’ यह एक ऐसा प्रश्न है जिसे हमें आज भी खुद से पूछते रहना चाहिए।

First Published : October 22, 2025 | 9:03 PM IST