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बिहार में दो चरण में विधान सभा चुनाव होने वाले हैं। इसके साथ ही राज्य का दशक भर पुराना शराबबंदी कानून राजनीतिक विवाद का विषय बन गया है। अप्रैल 2016 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में नैतिक और सामाजिक सुधार के अभियान के तौर पर शुरू हुए इस कानून पर अब आर्थिक नुकसान, अवैध धंधे और जहरीली शराब से होने वाली मौतों की भयावह संख्या पर बहस होने लगी है।
बिहार सरकार ने जब शराबबंदी लागू की तो, राज्य को अपने कर राजस्व का प्रमुख स्रोत छोड़ना पड़ा। आबकारी वित्त वर्ष 2015-16 में 3,142 करोड़ रुपये था, वह एक साल में ही घटकर 30 करोड़ रुपये रह गया। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की एक रिपोर्ट में 2016-17 के राजस्व में 1,490 करोड़ रुपये की कमी का अनुमान लगाया गया, जबकि विश्लेषकों का मानना है कि चालू राजस्व में औसतन बिहार के जीएसडीपी का 1 फीसदी और उसकी अपनी कर प्राप्तियों का 15 फीसदी से ज्यादा सालाना नुकसान हुआ।
इस नुकसान की भरपाई के लिए सरकार ने आय के वैकल्पिक स्रोतों का सहारा लिया और संपत्ति पंजीकरण से होने वाली आमदनी वित्त वर्ष 2025 में बढ़ाकर 7,648.88 करोड़ रुपये तक किया। इसके अलावा, जब्त वाहनों की नीलामी की गई और केंद्र से मिलने वाली कर हस्तांतरण पर निर्भरता बढ़ गई। मगर इससे भी आबकारी राजस्व की भरपाई नहीं हो पाई। इस अंतर ने बिहार की राजकोषीय क्षमता को सीमित कर दिया है, जिससे वह केंद्रीय निधियों पर अधिक निर्भर हो गया है और उसके व्यय लचीलेपन में भी कमी आई है।
भारत भर में शराब राज्य सरकारों के लिए राजकोषीय आधार बनी हुई है। दिल्ली ने वित्त वर्ष 2024 में शराब पर उत्पाद शुल्क और वैट से 7,484 करोड़ रुपये की कमाई की। देश में सबसे ज्यादा कमाई करने वाले राज्यों में शामिल उत्तर प्रदेश ने वित्त वर्ष 2026 में शराब उत्पाद शुल्क से 63,000 करोड़ रुपये की कमाने का लक्ष्य रखा है।
प्रतिबंध लागू होने के बाद से बिहार में नकली शराब से 190 लोगों की जान जाने की पुष्टि हुई है। इसमें सारण, सीवान, गया और भोजपुर जैसे जिले सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। अकेले 2022 के सारण त्रासदी ने 70 से अधिक लोगों की मौत हो गई थी।
प्रवर्तन कार्रवाई के बावजूद अवैध धंधा मजबूत साबित हुआ है। 31 मार्च, 2025 तक अधिकारियों ने 9.36,000 से अधिक निषेध मामले दर्ज किए और 14.3 लाख लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है। लगभग 3.86 करोड़ लीटर शराब जब्त की गई है और 74,000 से अधिक वाहनों की नीलामी की गई है, जिससे लगभग 340 करोड़ रुपये का राजस्व प्राप्त हुआ है।
शराबबंदी नीति के समर्थक इसे घरेलू हिंसा को कम करने और लोगों के स्वास्थ्य में सुधार का श्रेय देते हैं। आलोचकों का कहना है कि शराब की मांग केवल भूमिगत हो गई है, जिससे असुरक्षित खपत को बढ़ावा मिला है और एक समानांतर काली अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाया
गया है।