भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) अपने मुद्रास्फीति लक्ष्य निर्धारण ढांचे को लेकर सार्वजनिक टिप्पणियां आमंत्रित करने का फैसला किया है जो स्वागतयोग्य है। सलाह-मशविरा एक स्वस्थ प्रवृत्ति है लेकिन ढांचे में बदलाव करने के पहले हमें पहले यह सवाल पूछना चाहिए: यह व्यवस्था कितनी कारगर रही है?
रिजर्व बैंक के अगस्त 2025 के परिचर्चा पत्र में मुद्रास्फीति को लक्षित करने की लचीली व्यवस्था (एफआईटी) को कामयाब बताया गया है। उसमें कहा गया है कि औसत मुद्रास्फीति में कमी आई और वह लक्ष्य तय करने के पहले के 6.8 फीसदी से कम होकर बाद में 4.9 फीसदी पर आ गई। हालांकि महामारी और रूस-यूक्रेन युद्ध ने इसे अस्थायी रूप से बढ़ा दिया लेकिन कुल मिलाकर रिजर्व बैंक का निष्कर्ष है कि यह व्यवस्था भारत के हित में रही है।
एफआईटी कितनी कामयाब रही इसके आकलन के लिए हमें पहले यह पूछना चाहिए कि मुद्रास्फीति में कितनी कमी आई। मुद्रास्फीति में कमी करने के दो अनिवार्य तरीके हैं: पहला और थोड़ा कठिन तरीका है वास्तविक दरों को लंबे समय तक ऊंचा रखना ताकि मांग और ऋण को सीमित रखा जा सके और दूसरा चतुराईपूर्ण तरीका है उम्मीदों को स्थिर रखना ताकि उत्पादन में मामूली हानि के साथ मुद्रास्फीति में कमी आए।
अपेक्षाएं सामान्यतः तभी स्थिर होती हैं जब निरंतर और दृढ़ कार्रवाई के माध्यम से विश्वसनीयता अर्जित की जाती है। जैसा कि चर्चा पत्र में कहा गया है, भारत के आंकड़े वास्तव में अवस्फीति या मुद्रास्फीति में कमी को दर्शाते हैं। कठिन सवाल यह है कि रिजर्व बैंक ने कौन सा मार्ग अपनाया। क्या मुद्रास्फीति इसलिए घटी क्योंकि अपेक्षाएं विश्वसनीय रूप से स्थिर हो गईं यानी चतुराई का रास्ता या फिर इसलिए क्योंकि वास्तविक ब्याज दरें ऊंची रखी गईं यानी कठोर रास्ता?
अगर एफआईटी ने वांछित काम किया तो अपेक्षाएं 4 फीसदी के आसपास ठहर जाएंगी भले ही वास्तविक मुद्रास्फीति गतिशील रहे। असली परीक्षण यह है कि क्या अपेक्षाएं वास्तविक महंगाई से अलग हो गई हैं। नहीं ऐसा नहीं है।
एक अन्य कारक है राजकोषीय मजबूती। घाटे में कमी और आपूर्ति क्षेत्र से जुड़े कदमों ने कीमतों को टिकाऊ बनाने में मदद की। ध्यान देने वाली बात यह है कि राजकोषीय अनुशासन को चुनावी चक्रों के दौरान भी बरकरार रखा गया। ऐसा कम ही होता है। विश्वसनीयता के लिए यह जरूरी है। इससे संकेत मिलता है कि कीमतों में स्थिरता एक साझा लक्ष्य है बजाय कि केवल एक मौद्रिक काम के। समन्वय मायने रखता है। कम मुद्रास्फीति उस स्थिति में आसान है जब राजकोषीय नीति सुसंगत हो।
रिजर्व बैंक का अपना सर्वे दिखाता है कि परिवारों की अपेक्षाएं हालिया अनुभवों से प्रभावित होती हैं। वर्ष 2024 में आरबीआई बुलेटिन में प्रकाशित माइकल देवव्रत पात्रा, जॉयस जॉन और आशीष थॉमस जॉर्ज द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि खाद्य मूल्य में आए झटके अपेक्षाओं पर असर डालते हैं। आईआईएम अहमदाबाद के निशांत कश्यप के साथ शहर-स्तरीय आरबीआई डेटा पर किए गए मेरे शोध में भी इसी तरह का निष्कर्ष सामने आया।
एफआईटी के बाद भी, वर्तमान मुद्रास्फीति में एक प्रतिशत अंक की वृद्धि से अपेक्षित मुद्रास्फीति लगभग 0.35 फीसदी अंक बढ़ जाती है। अपेक्षाएं अब भी वास्तविक मुद्रास्फीति का पीछा करती हैं, बजाय इसके कि वे 4 फीसदी के आसपास स्थिर हों।
चूंकि अपेक्षाएं अभी भी स्थिर नहीं हैं, केंद्रीय बैंक ने उच्च वास्तविक ब्याज दरों जैसे कठोर उपायों का सहारा लिया है। एफआईटी के बाद वास्तविक ब्याज दरों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। मौद्रिक नीति अधिक प्रभावशाली तो बनी लेकिन वृद्धि के लिए अधिक महंगी भी साबित हुई। मुद्रास्फीति की नीति के प्रति संवेदनशीलता बढ़ी, लेकिन किसी भी सख्ती के परिणामस्वरूप उत्पादन तेजी से गिरा। मुद्रास्फीति में कमी बेहतर विश्वसनीयता के कारण नहीं, बल्कि कड़े वास्तविक ब्याज दरों के कारण आई।
भारत शायद बिना किसी औपचारिक लक्ष्य निर्धारण व्यवस्था के भी इसी तरह के परिणाम प्राप्त कर सकता था, केवल कड़ी वास्तविक ब्याज दरें बनाए रखकर। इसी कारण, एफआईटी के बाद के औसत यानी लगभग 4 फीसदी को भारत की ‘स्वाभाविक’ मुद्रास्फीति दर नहीं मानी जानी चाहिए। यह निरंतर कठोर लक्ष्य निर्धारण के तहत प्राप्त हुआ था। केवल एफआईटी के बाद के आंकड़ों पर आधारित अनुमान उस व्यवस्था से यांत्रिक रूप से प्रभावित होते हैं और यह 4 फीसदी को जितना ‘स्वाभाविक’ माना जाता है, उससे अधिक दर्शा सकते हैं।
प्रश्न यह है कि करीब एक दशक तक लक्षित करने के बाद आखिर अपेक्षाओं में ठहराव क्यों नहीं आ पाया? पहली बात, भारतीय खपत बास्केट अस्वाभाविक रूप से अस्थिर खाद्य और ईंधन कीमतों से प्रभावित जोखिम वाली है। दूसरा, संचार अभी भी मध्यम अवधि के बजाय नवीनतम आंकड़ों पर आधारित होता है। तीसरा, आकलन कमजोर है, सर्वेक्षण व्यक्तिपरक और शोरगुल वाले होते हैं और उनमें अग्रिम अनुबंधों या वेतन समझौतों का ध्यान नहीं रखा जाता है। यहां तीन सुझावों पर ध्यान दिया जा सकता है।
अपेक्षाओं का बेहतर आकलन: नीति निर्माताओं को सर्वेक्षणों से आगे बढ़कर वास्तविक अनुबंधों से अपेक्षाओं का अनुमान लगाना चाहिए। वस्तु एवं सेवा कर का अग्रिम मूल्य प्रतिबद्धताओं से संबंधित आंकड़ा बता सकता है कि कीमतें कितनी पहले तय की जाती हैं और उनमें कितनी बार संशोधन किया जाता है। बाजार-आधारित संकेतक जैसे इंडेक्स्ड बॉन्ड और दीर्घकालिक यील्ड इसके पूरक होने चाहिए, और इन्हें मौद्रिक नीति समिति की चर्चाओं में व्यवस्थित और पारदर्शी रूप से उपयोग में लाया जाना चाहिए।
अपेक्षाओं के निर्धारकों पर भारत-केंद्रित शोध करें: अनुबंध-स्तरीय डेटा, पारिवारिक समितियों और बाजार संकेतकों का उपयोग करके उच्च गुणवत्ता वाले भारत-विशिष्ट साक्ष्य से यह जांचना चाहिए कि क्या खाद्य मूल्य में उतार-चढ़ाव प्रमुख भूमिका निभाते हैं। यदि ऐसा है, तो जब भी माॅनसून से जुड़े झटके आएंगे, विश्वसनीयता बनाए रखना महंगा साबित होगा और कठोर मुद्रास्फीति लक्ष्य निर्धारण उपयुक्त नहीं रहेगा। यदि ऐसा नहीं है, तो एक टिकाऊ आधार बनाने की अधिक गुंजाइश होगी। किसी भी स्थिति में, नीतिगत ढांचा खराब तरीके से मापी गई अपेक्षाओं पर आधारित नहीं होना चाहिए, और साक्ष्य का आधार नियमित रूप से उन्नत किया जाना चाहिए।
ढांचे में लचीलापन लाएं: जब तक हम अपेक्षाओं को सही ढंग से नहीं मापते और यह नहीं समझते कि उन्हें प्रभावित करने वाले कारक क्या हैं, तब तक उन्हें विश्वसनीय रूप से स्थिर करना संभव नहीं है। एक संकीर्ण बिंदु लक्ष्य पर ज़ोर देने से मौद्रिक नीति पर पूरा भार आ जाता है और खाद्य मूल्य में तेज बढ़त के समय आर्थिक वृद्धि को नुकसान पहुुंचने का जोखिम रहता है। एक व्यापक सीमा, मसलन 3 से 6 फीसदी संरचनात्मक अस्थिरता को स्वीकार करते हुए जवाबदेही को बनाए रखेगी। एक बार जब अपेक्षाओं की प्रक्रिया को बेहतर ढंग से समझा और मापा जा सके, तब इस सीमा को और संकुचित किया जा सकता है।
भारत में मुद्रास्फीति को लक्षित करने से मुद्रास्फीति में कमी आई है लेकिन मोटे तौर पर ऐसा गलत वजहों से हुआ है। अपेक्षाओं के प्रबंधन के बजाय यह उच्च वास्तविक दरों और वृद्धि की अधिक लागत आरोपित करने पर केंद्रित रहा। मौजूदा समीक्षा सुधार का एक अवसर देती है। मसलन, बेहतर डेटा के साथ अपेक्षाओं का आकलन, भारत केंद्रित शोध में गहराई लाना और देश में अपेक्षाओं के बनने को लेकर समझ बनने तक दायरे में लचीलापन रखना। लक्ष्य वही है- टिकाऊ रूप से मुद्रास्फीति को कम रखना। हमें रास्ते को जबरदस्ती के उपायों से हटाकर साक्ष्य, संचार और यथार्थवाद पर आधारित विश्वसनीयता की ओर स्थानांतरित किया जाना चाहिए।
(लेखक इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस में वित्त के प्राध्यापक हैं। ये उनके निजी विचार हैं)