एक सच्ची घटना बताता हूं। मैं 2007 में बिज़नेस स्टैंडर्ड के लिए प्रबंधन की दो पत्रिकाएं निकालता था। मैं उनमें व्यवहारिकता का छौंक लगाने की कोशिश तो करता था मगर दोनों पत्रिकाओं में इतनी सैद्धांतिक बातें भरी रहती थीं कि मेरा काम हद दर्जे तक उबाऊ हो गया था।
इस उलझन भरी स्थिति का फायदा उठाने के लिए मैंने अपने बॉस को इस बात के लिए राजी कर लिया कि वह मुझे हैदराबाद में इंडियन स्कूल ऑफ बिज़नेस में पारिवारिक कारोबारों पर आयोजित हो रहे एक सम्मेलन में भाग लेने दें।
मैंने कहा कि मैं वहां जाकर प्रबंधन के सैद्धांतिक पक्ष के बारे में और जानना चाहता हूं। सम्मेलन वास्तव में बहुत काम का साबित हुआ। सत्र ही नहीं उनके बीच में होने वाली सामूहिक चर्चा भी बहुत कामयाब रही।
सत्रों के बीच ऐसी ही गपशप के दौरान मैंने एक परिवार द्वारा चलाए जा रहे कारोबार के एक मुखिया को कहते सुना, ‘वे (यानी विशेषज्ञ वक्ता) चाहते हैं कि हम अपने परिवार के लिए उत्तराधिकार की योजना बनाएं लेकिन अगर हमारे परिवार में कोई मूर्ख हुआ तो?’
उनकी बात सुन रहे दूसरे कारोबारी परिवारों के मुखिया सहमति में सर हिला रहे थे। वक्ता 1990 के दशक में अपनी पहचान कायम कर चुके थे, जब देश में कारोबार बंधनों से आजाद हुआ था और प्रतिस्पर्द्धा तथा लगभग मुक्त व्यापार का उदय हुआ था। परंतु अपनी अगली पीढ़ी को कमान सौंपने में उन्हें बहुत हिचक लग रही थी।
वर्ष 1990 के दशक में कारोबारियों का एक पूरा समूह उभरा। रतन टाटा विशाल कारोबारी समूह के नवोदित नेतृत्वकर्ता से वैश्विक स्तर के कारोबारी बन गए। एनआर नारायण मूर्ति और अजीम प्रेमजी ने सूचना प्रौद्योगिकी आउटसोर्सिंग (काम ठेके पर कराना) की लहर पर इस कदर सवार हुए थे कि अमेरिका में रोजगार गंवाने वाले लोगों के लिए ‘बैंगलोर्ड’ एक जुमला ही बन गया।
बिड़ला और मोदी 1991 में उदारीकरण आने से पहले से ही स्थापित कारोबारी घराने थे। उनका आकार और भी बढ़ गया तथा कई शाखाएं बन गईं। राम प्रसाद गोयनका ने अधिग्रहण को वृद्धि की कारोबारी नीति ही बना डाला।
बजाज ने विदेश से आई होड़ का मुकाबला किया और मोटरसाइकल कंपनी के तौर पर सिक्का जमा लिया। उसने स्कूटर निर्माता की अपनी पुरानी पहचान बिल्कुल त्याग दी जबकि एक समय बजाज के स्कूटर दहेज का हिस्सा होते ही थे, जिन्हें खरीदने के लिए लोग दसियों साल इंतजार करते थे।
सबसे बढ़कर धीरूभाई अंबानी रहे, जिन्होंने देश में शेयर कारोबार का माहौल तैयार किया और रिलायंस इंडस्ट्रीज का राजस्व नाटकीय रूप से बढ़ा दिया। उनकी कंपनी 2004 में फॉर्च्यून 500 की उस सूची में शामिल हो गई, जिसमें दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियां थीं।
आश्चर्य की बात है कि जिन प्रमुख उद्योगपतियों का कारोबार 1990 के दशक में तेजी से बढ़ा, उनमें से भी कई ने दुनिया भर के पारिवारिक कारोबारों में घर कर चुकी यह समस्या हल करने का प्रयास नहीं किया। इसे हल न करने के कारण ही यह धारणा प्रबल हुई कि अधिकांश पारिवारिक कारोबारों में तीसरी पीढ़ी आते-आते विभाजन हो जाता है।
उत्तराधिकार का संघर्ष
मैकिंजी डॉट कॉम द्वारा के 2 अगस्त 2024 को प्रकाशित एक शोध पत्र में पांच ऐसी बातें बताई गई हैं, जो बेहद उम्दा प्रदर्शन करने वाले पांच पारिवारिक कारोबारों को अन्य से अलग करते हैं। इनमें दूसरे स्थान पर ‘एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक कारगर हस्तांतरण’ को रखा गया है, जिससे ठीक पहले ‘मूल परिचालन श्रेष्ठता’ का स्थान है।
इसके बावजूद ग्रांट थॉर्नटन ने गत वर्ष मार्च में अपने लेख में लिखा कि भारत में 80 फीसदी कारोबार पारिवारिक स्वामित्व वाले हैं मगर उनमें से केवल 21 फीसदी पास ही उत्तराधिकार योजना है।
यह बात अविश्वसनीय प्रतीत होती है कि 1990 के दशक में उत्कृष्ट कारोबारी साम्राज्य खड़े करने वाले लोगों में से कई इस मामले में खरे नहीं उतरे। मेरा इरादा गुजर चुके लोगों के बारे में बुरा कहने का नहीं है मगर रतन टाटा जिनका गत 9 अक्टूबर को निधन हुआ वह भी उतने सहज तरीके से सेवानिवृत्त नहीं हो सके, जैसा उन्होंने सोचा होगा।
उन्होंने 2012 में साइरस मिस्त्री के लिए टाटा संस के चेयरमैन पद का रास्ता बनाया लेकिन चार साल बाद ही उन्होंने अपने युवा उत्तराधिकारी को हटाकर दोबारा अंतरिम चेयरमैन का पद संभाल लिया। वह तो हालिया इतिहास की बात है।
टाटा ने 1992 में एक नीति बनाई, जिसमें निदेशकों क 75 वर्ष का होने पर पद से हटने के लिए कहा जाता था। ऐसा करके कुछ पुराने कद्दावर लोगों को सेवानिवृत्त किया गया। आठ वर्ष बाद गैर कार्यकारी निदेशकों के लिए यह उम्र घटाकर 70 वर्ष कर दी गई। लेकिन 2005 में इसे दोबारा बढ़ाकर 75 वर्ष कर दिया गया ताकि टाटा अधिक समय तक शीर्ष पर रह सकें। यह उत्तराधिकार की योजना का कोई मजबूत प्रमाण नहीं लगता।
मूर्ति ने इन्फोसिस में उत्तराधिकार की दिलचस्प योजना बनाई, जिसमें सभी संस्थापकों को एक-एक कर शीर्ष पद संभालना था। मगर यह चल नहीं पाया और विशाल सिक्का को पहले गैर संस्थापक मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) के रूप में लाया गया। लेकिन सिक्का को भी असहज करने वाले हालात के बीच पद छोड़ना पड़ा।
विप्रो ने कई सीईओ आजमाए और एक दौर वह भी था, जब उसने दो सीईओ रखने का प्रयोग किया। किंतु बाद में इस मॉडल को त्याग दिया गया। अजीम प्रेमजी के बेटे ऋषद के कार्यकारी चेयरमैन बनने के बाद अब हालात काफी शांत और सहज नजर आते हैं। यह बात अलग है कि थियरी डेलापोर्ट ने अपना कार्यकाल पूरा करने से पहले ही इसी वर्ष विप्रो का सीईओ पद छोड़ दिया।
कई अन्य कारोबारी परिवारों में भी उत्तराधिकार की दिक्कत आती रही है। बिड़ला और मोदी उपनाम वाले लोगों के बीच लड़ाइयों के किस्से अब भी खूब कहे-सुने जाते हैं। लेकिन सबसे हैरान करने वाली लड़ाई थी धीरूभाई के बेटों मुकेश और अनिल की। यह विवाद 2005 में समाप्त हुआ, जब उनकी मां ने कारोबार का विभाजन कर दिया।
गोयनका और बजाज
अंबानी विवाद ने गोयनका को इतना हिला दिया कि उन्होंने कारोबार को दोनों बेटों हर्ष और संजीव के बीच बांटना शुरू कर दिया। ब्लूमबर्ग के साथ एक साक्षात्कार में हर्ष गोयनका ने कहा, ‘यह (बंटवारा) मेरे पिता की इच्छा थी। हम पर तो यह थोपा गया।’
राहुल बजाज को अप्रिय स्थिति का सामना करना पड़ा, जब उनका भतीजा कुशाग्र कारोबारी साम्राज्य में अपना हिस्सा मांगने लगा। परंतु बजाज ने अपना बाकी परिवार टीक से संभाला। काफी पहले जब उनके बेटे राजीव बजाज ऑटो को मोटरसाइकल बनाने वाली कंपनी में बदलना चाहते थे तो राहुल उसके खिलाफ थे मगर राजीव की राह में रोड़ा नहीं बने। आखिरकार राजीव को बड़ी दोपहिया कंपनी की बागडोर मिल गई और उनके भाई संजीव बजाज ने वित्तीय सेवा क्षेत्र में नाम कमाया।
इस सूची में सभी को शामिल नहीं कर पाया हूं, इसलिए मुझ पर पक्षपात का आरोप न लगाएं। परंतु पारिवारिक कारोबार वाले आजकल के लोगों के लिए यहां पर्याप्त उदाहरण हैं, जिनसे वे सबक ले सकते हैं। बशर्ते उनके परिवार में कोई मूर्ख न हो क्योंकि उस स्थिति में उत्तराधिकार की कोई योजना हो ही नहीं सकती।