इस समाचार पत्र के अंग्रेजी संस्करण के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आर जगन्नाथन के विचारोत्तेजक आलेख ‘डेमोक्रेसी, ऑटोक्रेसी, ऑर बोथ?’ ने कुछ अहम मुद्दों को उठाया। उनका यह कहना सही है कि विभिन्न देशों की तुलना करना आसान नहीं है क्योंकि कोई भी देश सभी तरह से दूसरे देश जैसा नहीं होता। इसके बाद वह सीधे तौर पर जोर देकर कहते हैं कि अधिनायकवादी देशों में कामकाज ज्यादा प्रभावी ढंग से होता है। वह कहते हैं, ‘कोई देश जो तेजी से बड़े बदलाव चाहता है उसके लोकतांत्रिक होने की संभावना कम होती है क्योंकि बड़े बदलावों के लिए केंद्रीकृत सत्ता की जरूरत होती है।’
एक और तरीका है। जैसा कि कई लोगों ने कहा भी है (पिछले दिनों दी फाइनैंशियल टाइम्स में मार्टिन वुल्फ का लेख) तानाशाही और प्रदर्शन में कोई संबंध नहीं है। अगर एक नेता ली कुआन यू जैसा निकलता है जिन्होंने आधुनिक सिंगापुर बनाया तो उसके साथ ही कई माओ, स्टालिन, पोल पोत और शावेज भी होते हैं जो अपने देश के लिए मुश्किलें पैदा करते हैं। लोकतांत्रिक देश अक्सर लड़खड़ा जाते हैं लेकिन अक्षम लोगों को मतदान के जरिये हटाने का विकल्प बेहतर प्रदर्शन ला सकता है।
यह इस पर भी निर्भर करता है कि कैसा बदलाव लाया जा रहा है। बड़ी बुनियादी ढांचागत परियोजनाओं को कम भ्रम और जोखिम के साथ संचालित किया जा सकता है लेकिन हमारे लिए सबसे बड़ी आर्थिक चुनौती है रोजगार। हमें हर वर्ष लाखों की तादाद में अच्छी गुणवत्ता वाले रोजगार की आवश्यकता है। हमारी निजी क्षेत्र द्वारा संचालित अर्थव्यवस्था में कई चीजें होनी चाहिए। सन 1991 के बाद से सरकारों की व्यापक आर्थिक नीति वृद्धि को मजबूत बनाने की रही है। परंतु सालाना अच्छी गुणवत्ता वाले लाखों रोजगार तैयार करने के लिए इतना पर्याप्त नहीं है।
सरकार को दीर्घकालिक श्रम सुधारों के साथ अधिक लोगों को काम पर रखने की बाधा दूर करनी चाहिए और मुक्त व्यापार समझौतों के साथ श्रम आधारित क्षेत्रों मसलन कपड़ा और जूता-चप्पल के क्षेत्र में बाजार पहुंच बनानी चाहिए। यह भी पर्याप्त नहीं है।
भारतीय उद्यमियों में इस मानसिकता का अभाव है कि श्रम गहन विनिर्माण अच्छा कारोबार है। आखिर इस बात को इसके अलावा कैसे समझा जाए कि भारत में एक बड़े परिधान संयंत्र में 3,000 से 5,000 लोग काम करते हैं जबकि वहीं बांग्लादेश में ऐसे ही कारखाने में 30,000 से 50,000 लोग काम करते हैं। मानसिकता में बदलाव में लगातार वर्षों तक मान-मनुहार, मॉडलिंग, प्रोत्साहित करना शामिल है।
ऐसा आदेश देकर नहीं किया जा सकता है। दर्जनों उद्यमी सही दिशा में बढ़ते हैं और फिर सैकड़ों और उसके बाद हजारों उसका अनुसरण करते हैं। ऐसा कैसे होता है? सन 1991 के बाद के अपने अनुभव की बात करते हैं। सबसे अहम तत्व था राज्य का पीछे हटना। हमने उन नियमों को खत्म कर दिया जो उद्योगों की शुरुआत, उन्हें शुरू करने की जगह, उत्पादन की सीमा, कीमत, आयात, आयात की सीमा, संबंधित तकनीक के लाइसेंस की जरूरत के निर्धारण आदि को तय करते थे।
यह सब वे अफसरशाह तय करते थे जिन्हें कोई औद्योगिक ज्ञान नहीं होता। इन बातों ने तीन दशक तक भारत को पिछड़ा बनाए रखा। इन नियंत्रणों को हटाने के बाद ही भारत तीन दशक से दुनिया के 10 बेहतरीन प्रदर्शन वाले देशों में बना हुआ है। अनुमान कहते हैं कि अगले तीन दशक तक ऐसा जारी रहेगा।
नियंत्रण शिथिल होने से भारत की उद्यमिता उभरी। बीते वर्षों के दौरान मैंने बिज़नेस इंडिया की देश की 100 शीर्ष कंपनियों की सूची की तुलना की। आश्चर्य की बात यह है कि 1991 तक के 10 सालों में लगभग एक जैसी सूची सामने आई। 1991 के बाद के 10 सालों में सूची में आधी कंपनियां नई थीं। औषधि, सूचना प्रौद्योगिकी सेवाओं, होटल और ब्रांडेड उपभोक्ता वस्तुएं सामने आए जबकि जिंस उत्पादक पीछे हट गए। करीब सन 2000 के बाद से कुछ पुराने जिंस समूह वापस प्रमुखता से उभरे। नए उद्यमियों के प्रवेश की गति धीमी पड़ी जो अब तक जारी है। जिस समय भारतीय बाजार सबसे तेज गति से विकसित हो रहे थे, उसी समय वहां नए उद्यमियों का उभार कमजोर पड़ रहा था। ऐसा क्यों हुआ?
एन्न क्रूगर अपने पर्चे ‘पॉलिटिकल इकॉनमी ऑफ द रेंट-सीकिंग सोसाइटी’ में कहते हैं कि आर्थिक गतिविधियों पर सरकारी प्रतिबंध से ऐसी गतिविधियों को बढ़ावा मिलता है जहां प्रवेश की सीमा तय हो सकती है, संरक्षणवाद देखने को मिल सकता है या परिचालन लाइसेंस पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। तब लोग कानूनी या गैर कानूनी तरीकों से ये सुविधाएं पाना चाहते हैं। क्या 1991 से 2000 के दौर में इस प्रवृत्ति में कमी आई? दरअसल ऐसे लाभ राजनीतिक संपर्कों पर निर्भर करते हैं। यह स्थिति पुराने उद्यमियों को लाभ पहुंचाती है और नए लोगों का प्रवेश रोकती है।
विजय केलकर और अजय शाह की पुस्तक ‘इन सर्विस ऑफ दी रिपब्लिक’ के अंतिम पृष्ठ में कहा गया है, “निजी क्षेत्र को अधिकारियों की मनमानी शक्ति से डर लगता है और वे बोलते भी नहीं। कोई आवाज नहीं मिलती, लेकिन निवेश में कमी आती है।’ यह घटा हुआ निवेश उद्यमिता में कमी के रूप में सामने आता है। अर्थव्यवस्था में केंद्रीय नियंत्रण के कम होने के साथ ही संस्थानों की स्वायत्तता बढ़ी। चुनाव आयोग, सर्वोच्च न्यायालय, प्रवर्तन निदेशालय तथा अन्य संस्थान इसके उदाहरण हैं। ये सभी अल्पमत या गठबंधन की सरकारों के प्रति कम कृतज्ञ रहे। इसकी वजह कमजोरी हो या बुद्धिमता लेकिन स्वतंत्रता पर इसका असर समान रहा।
सरकार के पास अपने कदम पीछे लेने की और अधिक गुंजाइश बरकरार है और यह बात हमें विकसित देश बनने की राह पर ले जाती है। 1991 के बाद के सुधार मोटे तौर पर केंद्र सरकार के स्तर पर हुए। केंद्र सरकार के दायरे में भी सुधार वित्त, वाणिज्य और उद्योग मंत्रालयों तक सीमित रहे। शिक्षा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, गृह, कृषि तथा अन्य मंत्रालयों में भी काफी सुधार की गुंजाइश मौजूद है। किसी सरकार का आकलन उसकी कमजोरी या मजबूती के आधार पर नहीं बल्कि उसके प्रदर्शन के आधार पर होना चाहिए।
जगन्नाथन अपने आलेख के अंत में कहते हैं, ‘क्या इसमें कोई आश्चर्य की बात है कि कई मतदाता मजबूत नेताओं को पसंद करते हैं भले ही इसका अर्थ लोकतंत्र की कमी के रूप में हो ताकि उनकी रोजमर्रा की दिक्कतें हल हो सकें।’ वह ऑस्ट्रियन-ब्रिटिश दार्शनिक कार्ल पॉपर का हवाला देते हैं। पॉपर की पुस्तक उन लोगों पर हमले की तरह है जो हमें इतिहास के नाम पर भारी भरकम सिद्धांत देते हैं कि कैसे खोया हुआ यश-वैभव वापस पाया जाए। उनका तर्क शक्ति के केंद्रीकरण का नहीं बल्कि विकेंद्रीकरण का है। आर्थिक और राजनीतिक शक्तियों में विभाजन होना ही चाहिए।
जगन्नाथन की तरह मैं भी पॉपर को उनकी उसी पुस्तक ‘द ओपन सोसाइटी ऐंड इट्स एनिमीज’ से उद्धृत करना चाहूंगा, ‘अगर इस पुस्तक में मानवता के कुछ महानतम बौद्धिक नेताओं को लेकर कुछ कटु वचन बोले गए हैं तो मैं मानता हूं कि मेरा उद्देश्य उन्हें नीचा दिखाने का नहीं है। यह मेरी इस धारणा से उभरा है कि अगर हमारी सभ्यता को बचना है तो हमें महान लोगों की इज्जत करने की रवायत छोड़नी होगी।’ मैं पॉपर की सोच के साथ हूं।
(लेखक फोर्ब्स मार्शल के को-चेयरमैन और सीआईआई के पूर्व अध्यक्ष हैं)