जनवरी-मार्च तिमाही तथा 2022-23 के पूरे वित्त वर्ष के लिए भारत की आर्थिक वृद्धि के आंकड़े सुखद आश्चर्य लेकर आए हैं। ये आंकड़े मुझ समेत सभी विश्लेषकों के पूर्वानुमानों से बेहतर हैं।
ध्यान रहे कि गत दिसंबर में अपनी बैठक में भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति ने अनुमान जताया था कि जनवरी-मार्च तिमाही में वृद्धि दर 4.2 फीसदी रह सकती है। परंतु वृद्धि दर उससे काफी अधिक यानी 6.1 फीसदी रही है।
ऐसे में पूरे वर्ष की वृद्धि दर अनुमान से बेहतर रही है। मौद्रिक नीति समिति ने उसके 6.8 फीसदी रहने का अनुमान जताया था लेकिन हकीकत में वह 7.2 फीसदी रही। मुद्रास्फीति में भी अपेक्षा से कहीं अधिक तेजी से कमी आई और वह 5 फीसदी से नीचे रही।
मौद्रिक नीति समिति ने नहीं सोचा था कि 2023-24 में मुद्रास्फीति में इतनी कमी आएगी। राजकोषीय घाटे में गिरावट और बाहरी खाते के संतुलन के सहज स्तर पर रहने के कारण अर्थव्यवस्था हर लिहाज से बेहतर स्थिति में नजर आ रही है।
इसकी कई वजह हैं: वर्ष के दौरान वाहन क्षेत्र के उत्पादन में जबरदस्त वृद्धि दर्ज की गई। इसमें यात्री और वाणिज्यिक दोनों तरह के वाहन शामिल हैं। हवाई और रेल यातायात में भी नाटकीय वृद्धि दर्ज की गई, विनिर्माण से जुड़े क्षेत्रों मसलन स्टील और सीमेंट आदि में भी मजबूती आई।
बैंक ऋण में सुधार हुआ और भी काफी कुछ हुआ। कोविड के कारण कुछ आंकड़ों का आधार कम था। बहरहाल जनवरी-मार्च तिमाही में हुई अप्रत्याशित वृद्धि के लिए स्पष्टीकरण जरूरी है।
इसकी प्रमुख वजह विदेश व्यापार को माना जा सकता है, हालांकि इस तिमाही के दौरान डॉलर के मूल्य में वस्तु एवं सेवा का निर्यात पिछले वर्ष की समान अवधि की तुलना में केवल चार फीसदी अधिक रहा। चूंकि यह वृद्धि सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि से धीमी थी तो फिर इसे तेज वृद्धि की वजह कैसे माना जा सकता है? इसका उत्तर विदेश व्यापार और सकल घरेलू उत्पाद के संबंध में छिपा है।
समग्र वृद्धि में निर्यात या आयात वृद्धि का बहुत अधिक योगदान नहीं है बल्कि व्यापार के अंतर की इसमें भूमिका है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस तिमाही में आयात में 4.1 फीसदी की गिरावट आई। इसकी वजह शायद अर्थव्यवस्था में मांग में शिथिलता और तेल की कम कीमत रही।
निर्यात में चार फीसदी की वृद्धि और आयात में 4.1 फीसदी गिरावट का विशुद्ध प्रभाव यह हुआ कि व्यापार घाटे में 61 फीसदी की नाटकीय कमी आई और यह 26.3 अरब डॉलर से घटकर 10.1 अरब डॉलर रह गया। 16.2 अरब डॉलर के इस अंतर ने भी तिमाही जीडीपी में मदद की और आर्थिक वृद्धि में 1.5 फीसदी अंक का योगदान किया और इस प्रकार यह 6.1 फीसदी के स्तर पर पहुंची।
यह अजीब लग सकता है कि आयातित वस्तुओं की मांग में कमी ने वास्तव में जीडीपी वृद्धि के आंकड़ों में इजाफा किया लेकिन आकलन का तरीका यही है। किसी पर्यवेक्षक ने इस नतीजे का अनुमान नहीं लगाया होगा।
ध्यान आकृष्ट करने वाला आंकड़ा विनिर्माण और उसकी कमजोर वृद्धि से संबंधित है। 2022-23 में 1.3 फीसदी की वृद्धि के साथ यह कृषि (4 फीसदी वृद्धि) समेत अर्थव्यवस्था के सभी चार क्षेत्रों से धीमा है। ज्यादा विचित्र बात यह है कि यह अस्वाभाविक नहीं है।
अगर हम पिछले चार सालों के आंकड़ों को साथ रखकर देखें तो कृषि में 19 फीसदी से अधिक की वृद्धि हुई है जबकि विनिर्माण में 13 फीसदी की। यह एक दिलचस्प विकासशील अर्थव्यवस्था है जहां विनिर्माण सबसे धीमा क्षेत्र है। यहां तक कि वह कृषि से भी पीछे है।
आप कह सकते हैं कि कोविड ने विनिर्माण क्षेत्र को कृषि से अधिक चोट पहुंचाई। परंतु बीते चार में से तीन वर्षों के दौरान विनिर्माण में न के बराबर वृद्धि क्यों नजर आई? कई उपभोक्ता वस्तुओं की मांग में धीमी वृद्धि हुई, हालांकि हवाई यातायात बढ़ा? कारों की बिक्री दोपहिया वाहनों की बिक्री से तेज क्यों हुई? मजबूत कृषि वृद्धि के बावजूद ग्रामीण मांग में कमी क्यों आई? क्या इसका संबंध कोविड के गरीबों पर असंगत प्रभाव से है?
यह चिंता का विषय होना चाहिए कि एक ओर जहां कृषि और विनिर्माण (वर्तमान मूल्य पर) आकार में समान हुआ करते थे वहीं ताजा तिमाही में कृषि का आकार विनिर्माण से 25 फीसदी बड़ा हो गया है।
यह ‘मेक इन इंडिया’, बढ़े हुए टैरिफ संरक्षण और भौतिक ढांचे को लेकर सरकार के सोच और इरादे के एकदम विपरीत है। कुछ लोग कह सकते हैं कि बिना कृषि क्षेत्र की तरह कच्चे माल पर सब्सिडी और नकद सहायता के विनिर्माण में प्रगति नहीं हो सकती। परंतु क्या वैसा विनिर्माण क्षेत्र प्रतिस्पर्धी रह सकेगा ?