कोविड-19 महामारी खास तौर पर अधिक उम्र वाले लोगों के लिए खतरनाक मानी जाती है। कम उम्र वाले बच्चों के लिए भी यह महामारी बहुत खतरनाक है। युवा वयस्कों के इस बीमारी की चपेट में आने की कम आशंका होती है, लिहाजा उनकी जान भी कम जाती है। संक्रमित होने पर भी अधिकतर युवाओं में इस बीमारी के लक्षण दिखाई नहीं देते हैं और उनके लिए यह किसी साधारण फ्लू से अलग नहीं रह जाती है। लेकिन कोविड महामारी के बेहद संक्रामक होने की वजह से इस पर काबू पाने के लिए देश भर में लागू किया गया लॉकडाउन खास तौर पर युवाओं के लिए नुकसानदेह साबित हुआ है। भले ही काम पर जाने के लिए तैयार युवा इस बीमारी के बेहद प्रतिकूल प्रभावों से बच सकते हैं लेकिन वे अपने करियर एवं भविष्य पर इसका उतना ही खतरनाक असर देख रहे हैं।
महामारी और उसके साथ आए लॉकडाउन ने एक साथ मिलकर सभी उम्र के कामकाजी लोगों को लाभप्रद रोजगार से वंचित नहीं तो दूर जरूर कर रखा है। परंपरागत रूप से रोजगार की गिनती में केवल 15 साल से अधिक उम्र के लोग ही आते हैं। समय के साथ रोजगार का ऊपरी उम्र दायरा धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है। हमारा मानना है कि एक आधुनिक समाज में रोजगार का निचला उम्र दायरा अधिक संवेदनशील होता है। बच्चों से स्कूल जाने की उम्मीद होती है लेकिन रोजगार की उम्र पर कोई ऊपरी सीमा नहीं लगाई जानी चाहिए। लिहाजा हम 15 साल या उससे अधिक उम्र वाले सभी उम्र के लोगों के रोजगार संबंधी आंकड़ों का परीक्षण करते हैं। भारत में 15 से 19 साल की उम्र वाले लोगों की तादाद सभी रोजगारशुदा लोगों के 1.5 फीसदी से भी कम है। यह निम्न अनुपात इस लिहाज से अच्छा है कि किशोरों को स्कूल या कॉलेज में ही होना चाहिए, काम पर नहीं।
अगले पांच साल यानी 20-24 वर्ष के उम्र समूह की हिस्सेदारी रोजगार में लगे कुल लोगों की 8.5 फीसदी है लेकिन इस अनुपात में भी गिरावट आ रही है। वर्ष 2017-18 में इस समूह के युवाओं की रोजगार हिस्सेदारी 9.1 फीसदी हुआ करती थी लेकिन 2018-19 में यह 8.6 फीसदी पर आ गई और उसके अगले साल तो यह 8.5 फीसदी ही रह गया। यह उम्र उच्च शिक्षा लेने की होती है, लिहाजा उनके रोजगार अनुपात में कमी आने का मतलब है कि अब वे उच्च शिक्षा पर अधिक ध्यान दे रहे हैं। इसके बाद अगले पांच साल की उम्र वाले हरेक समूह (25-29, 30-34, 35-39, 40-44, 45-49 और अन्य) की कुल रोजगार में हिस्सेदारी 11 फीसदी से लेकर 15 फीसदी तक है। 40-49 वर्ष के लोगों का रोजगार अनुपात थोड़ा अधिक है। कुल रोजगार में इस उम्र वाले लोगों की हिस्सेदारी 14-15 फीसदी है। इससे अधिक उम्र वाले रोजगार-प्राप्त लोगों की संख्या 11-12 फीसदी है।
अर्थव्यवस्था पर निगरानी रखने वाली संस्था सीएमआईई की तरफ से किए गए उपभोक्ता पिरामिड परिवार सर्वेक्षण से सामने आने वाली एक चिंताजनक तस्वीर यह है कि 28 साल से लेकर 39 साल तक की उम्र वाले लोगों की कुल कार्यबल में हिस्सेदारी घट रही है। खासकर 2019-20 में यह गिरावट अधिक तेज रही है। कुल रोजगार में इस उम्र के लोगों की सामूहिक हिस्सेदारी 2019-20 में 34 फीसदी पर आ गई जबकि 2017-18 में यह 37 फीसदी हुआ करती थी। दरअसल भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए पिछले कुछ साल बहुत ही मुश्किल रहे हैं और इसका असर श्रमशक्ति पर भी पड़ा है। ऐसा लगता है कि अपेक्षाकृत युवा श्रमबल पर आर्थिक सुस्ती का प्रतिकूल प्रभाव कुछ अधिक ही रहा है।
लॉकडाउन का भी कुछ ऐसा ही असर रहा है। 20-24 वर्ष के उम्र समूह की कुल रोजगार में हिस्सेदारी भले ही 9 फीसदी से कम है लेकिन जुलाई 2020 तक रोजगार गंवाने वालों में उनकी हिस्सेदारी 35 फीसदी तक जा पहुंची है। वहीं बेरोजगारों में 25-29 वर्ष के उम्र वाले युवाओं की हिस्सेदारी 46 फीसदी हो चुकी है जबकि कुल रोजगार में उनकी हिस्सेदारी 11 फीसदी तक है।
कुल मिलाकर, वर्ष 2019-20 में औसत रोजगार के अनुपात में अप्रैल से जुलाई 2020 के दौरान 1.1 करोड़ लोगों को रोजगार गंवाना पड़ा। लेकिन इन बेरोजगार लोगों में भी 40 साल से कम उम्र वाले कामगारों की तादाद 1.96 करोड़ के साथ काफी अधिक रही है। असल में तीन कारक युवा कामगारों के खिलाफ काम करते हुए नजर आ रहे हैं।
पहला, एक शिथिल पड़ती अर्थव्यवस्था में श्रमबल की मांग भी कमजोर होने लगती है। अब उद्यम अपना विस्तार कम कर रहे हैं, लिहाजा अतिरिक्त श्रम की जरूरत भी कम पड़ रही है। अतिरिक्त श्रम की इस मांग को अमूमन युवा ही पूरा करते हैं। लेकिन आर्थिक सुस्ती आने से इस नए युवा श्रम की मांग भी कमजोर पड़ चुकी है। इसकी वजह से श्रमशक्ति की उम्र प्रोफाइल सापेक्षिक रूप से अधिक उम्र वाले कामगारों के पक्ष में होती जा रही है।
दूसरा, किसी उद्यम में काम कर रहे युवा तुलनात्मक रूप से कम अनुभवी होते हैं, लिहाजा उन्हें आसानी से हटाया जा सकता है। शुरुआती वर्षों में उद्यम युवा श्रम को उपयोगी बनाने के लिए उनमें निवेश करते हैं। लेकिन मुश्किल वक्त में उद्यम ऐसा निवेश करने को उतना तैयार नहीं हैं। इसका नतीजा यह होता है कि छंटनी की तलवार अपेक्षाकृत युवा कामगारों पर जल्द गिर जाती है।
तीसरा कारक, लॉकडाउन के दौरान उद्यम नए लोगों को न तो आसानी से रोजगार दे सकते हैं और न ही उन्हें प्रशिक्षण ही दिया जा सकता है। यह एक नए तरह का अवरोध है लेकिन यह अपने आप में बेहद गंभीर है। इसका कारण यह है कि कोविड महामारी से उपजी बाधाएं काफी लंबी खिंच गई हैं। इस रोजगार परिदृश्य में यह बात याद रखनी होगी कि युवाओं की बड़ी आबादी वाले देश में श्रमशक्ति का उम्रदराज होते जाना काफी अजीब है। इसके दुष्प्रभाव आने वाली पीढिय़ों पर पड़ सकते हैं।
(लेखक सेंटर फॉर मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इकॉनमी के प्रबंध निदेशक हैं)
