मौजूदा समय में आर्थिक गतिविधियों में सुधार आने और चीन के साथ सीमा पर जारी तनाव कम होने की स्थिति में क्या यह खतरा दिख रहा है कि सरकार बेपरवाह हो जाए? पिछले हफ्ते कोविड महामारी के दौर में तीसरे आर्थिक पैकेज की घोषणा किए जाने के बाद मेरे मन में यही सवाल खड़ा हुआ है।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस पैकेज की घोषणा करते हुए कहा था कि अभी तक सरकार की तरफ से दिया गया प्रोत्साहन सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 15 फीसदी के बराबर हो चुका है। करीब 30 लाख करोड़ रुपये की यह समेकित राशि वास्तव में बड़ी रकम है। इसके बावजूद कुछ सवाल ऐसे जरूर हैं जिनके जवाब तलाशे जाने जरूरी हैं।
सबसे पहला सवाल यही है कि सरकार की नजर में प्रोत्साहन पैकेज की परिभाषा क्या है? इसकी जरूरत इसलिए है कि अर्थशास्त्र में प्रोत्साहन पैकेज की एक विशिष्ट परिभाषा होती है लेकिन मई में आत्मनिर्भर भारत शृंखला के तहत घोषित अधिकांश कदम असल में राहत भरे कदम थे, न कि प्रोत्साहन देने वाले। सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम (एमएसएमई) इकाइयों के लिए आपातकालीन कार्यशील पूंजी का इंतजाम करना, गरीबों के लिए मुफ्त राशन की व्यवस्था और रेहड़ी-पटरी दुकानदारों को ऋण देना देने जैसे कदम कोविड का प्रसार रोकने के लिए लगे सख्त लॉकडाउन की मार से बेहाल लोगों को राहत देने के लिए उठाए गए थे।
ये सभी कदम प्रभावित लोगों का वजूद बचाए रखने के लिए जरूरी थे लेकिन असल में इन्हें प्रोत्साहन देने वाले उपाय नहीं कहा जा सकता है। एमएसएमई दायरे में आने वाली इकाइयों की परिभाषा को बदलना या कोयला, खनिज, रक्षा एवं अंतरिक्ष क्षेत्रों को निजी क्षेत्रों के निवेश के लिए खोलना मध्यम अवधि के सुधारवादी कदम अधिक थे। इन्हें भी प्रोत्साहन नहीं माना जा सकता।
आत्मनिर्भर भारत 2.0 पैकेज में जाकर कोई वास्तविक प्रोत्साहन कदम उठाने की घोषणा की गई थी। लेकिन उन कदमों की संख्या भी बहुत कम थी।
इस तरह केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों को अधिक खर्च करने के लिए प्रेरित करने का कदम सूझबूझ वाला था लेकिन इन कर्मचारियों की संख्या इतनी कम है कि उससे बहुत फर्क नहीं पडऩे वाला है। इसके अलावा एलटीसी मद में मिलने वाले लाभों को आगे के लिए टाल दिया गया जबकि कर्मचारियों को फिलहाल अपनी जेब से ही खर्च करना होगा। और अब तीसरे आत्मनिर्भर भारत पैकेज की घोषणा की गई है। इसमें भी अधिकांश कदम राहत देने वाले ही हैं जो मौजूदा हालात में जरूरी होते हुए भी प्रोत्साहन देने वाले उपायों की श्रेणी में नहीं आते हैं।
अर्थशास्त्र में प्रोत्साहन
अर्थशास्त्र में प्रोत्साहन उपायों का एक विशिष्ट अर्थ होता है। इसका आशय किसी सरकार द्वारा बजटीय व्यय से अधिक आवंटित की गई राशि से होता है। इसमें यह प्रावधान होता है कि ताजा व्यय के लिए राशि का इंतजाम सरकार अधिक उधार लेकर करती है ताकि अतिरिक्त औद्योगिक क्षमता का इस्तेमाल किया जा सके। अगर ये दोनों शर्तें पूरी नहीं होती हैं तो यह व्यय होते हुए भी प्रोत्साहन नहीं माना जाएगा।
दूसरा बिंदु यह है कि कीन्सवादी अर्थशास्त्र में एक प्रोत्साहन कदम को बूस्टर खुराक जैसा माना जाता है। इसे जल्दी से खर्च करना होता है ताकि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को साम्यावस्था में लाया जा सके।
लेकिन भारत सरकार मई से ही जिन कदमों की घोषणा कर रही है वे किसी गंभीर बीमारी से जूझ रहे मरीज को मध्यम अवधि की रखरखाव खुराक देने जैसे ही अधिक हैं।
तीसरा, एक प्रोत्साहन का मकसद लोगों की जेब में अधिक पैसे पहुंचाना होता है ताकि वे उसे खर्च कर सकें। लोगों के खातों में सीधे नकदी डालने से वास्तव में ऐसा ही हुआ। भले ही एक व्यक्ति के खाते में डाली गई 500 रुपये की राशि अधिक नहीं थी लेकिन कुछ न होने से तो यह बेहतर ही है।
चौथा, खाद्य पदार्थों जैसे गैर-औद्योगिक उत्पादों पर खर्च करने वाले लोगों तक पैसे पहुंचाने के लिए प्रोत्साहन कहां है? यह अच्छी राजनीति भले हो सकती है लेकिन क्या यह अच्छा अर्थशास्त्र भी है?
पांचवां, क्या कीन्सवादी अर्थशास्त्रीय धारणा में सुलभ मुद्रा नीति को एक प्रोत्साहन कहा जा सकता है? हर कोई जानता है कि मौद्रिक नीति की अपनी सीमाएं होती हैं क्योंकि आप घोड़े को पानी के पास तक तो लेकर जा सकते हैं लेकिन उसे पानी पीने के मजबूर नहीं कर सकते हैं।
किसी भी स्थिति में जब उद्योग का जीडीपी में अंशदान 15 फीसदी से भी कम हो चुका हो तब सरकार जितनी भी उधारी ले वह मांग के स्तर पर बहुत तेजी से कोई बदलाव लाने के लिए काफी नहीं होने वाली है। लॉकडाउन के दौरान सक्षमता बढ़ाने के लिए उठाए गए कदमों की वजह से यह एक समस्या ही बन जाती है। इन कदमों की वजह से कुल घटक उत्पादकता भले ही बढ़ी हो लेकिन इसका यह मतलब भी है कि आउटपुट के लिए प्रति इकाई इनपुट की मांग भी कम हो गई है।
आयकर में कटौती
आखिर में हमारे सामने वही सवाल आकर खड़ा हो जाता है जो पूर्व वित्त मंत्री जसवंत सिंह ने जनवरी 2004 में मुझसे पूछा था। जसवंत ने कहा था कि लोगों की जेब में पैसे आखिर कैसे डाले जाएं? इस सवाल के जवाब में मैंने उनसे बस यही कहा था, ‘श्रीमान, लोगों पर कम कर लगाइए। इससे वे बेहतर महसूस करेंगे।’
वह बात अब भी लागू होती है क्योंकि खर्च करने का सीधा संबंध लोगों के पास खर्च के लिए पैसे होने के साथ ही बेहतर महसूस करने से भी है। परेशान लोग खर्च करने के लिए बाजार में नहीं जाते हैं।
