भारतीय क्रिकेट और विवादों का अटूट रिश्ता है। ऐतिहासिक रूप से इनकी वजह पराजय और बेइज्जती रही। इसमें तब्दीली तब आई जब 14 मार्च, 2001 को सौरभ गांगुली के नेतृत्व वाली टीम के बल्लेबाजों वीवीएस लक्ष्मण और राहुल द्रविड़ ने पूरा दिन बल्लेबाजी करके बुनियाद रखी और दिन के आखिरी घंटे में ऑस्ट्रेलिया को पराजित किया। उसके साथ ही भारत के दबदबे वाले दो दशकों का दौर शुरू हुआ। खासतौर पर टेस्ट क्रिकेट में। भारत का उभार इतना जबरदस्त रहा कि वह ग्रेग चैपल के कार्यकाल वाले अप्रिय दौर से भी सहजतापूर्वक निपट सका। बीच की अवधि में महेंद्र सिंह धोनी नजर आए लेकिन विराट कोहली गांगुली के वास्तविक उत्तराधिकारी बनकर उभरे। उनमें गली क्रिकेट वाली आक्रामकता भी थी और ऑस्ट्रेलिया को उसी की शैली में मात देने का माद्दा भी।
यह विडंबना ही है कि भारतीय क्रिकेट को गौरवपूर्ण ऊंचाई पर ले जाने वाले ही अब उसे नीचे लाते दिख रहे हैं। गांगुली अब भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) के प्रमुख हैं। द्रविड़ राष्ट्रीय टीम के कोच हैं और लक्ष्मण राष्ट्रीय क्रिकेट अकादमी (एनसीए) के प्रमुख। जबकि सर्वविजेता (कम से कम टेस्ट में) कप्तान विराट कोहली निशाने पर हैं। हम यहां तक कैसे पहुंचे, यह बताना क्रिकेट रूपी धर्म के बड़े से बड़े जानकार के लिए भी मुश्किल है। प्रशंसकों के लिए तो यह नाराजगी का सबब है ही।
पहली बात तो यह कि मौजूदा विवाद खेलों को लेकर लाखों लोगों की एक भ्रामक धारणा को चुनौती देता है। लोग यह मानते थे कि खेलों में और खासकर क्रिकेट में बागडोर ऐसे लोगों के हाथ में है जो खिलाड़ी नहीं हैं। पहली बार एक शीर्ष और प्राय: समकालीन क्रिकेटर को क्रिकेट की सबसे बड़ी संस्था का मुखिया बनाया गया। नतीजा क्या निकला? दक्षिण अफ्रीका दौरे के ऐन पहले तमाम गड़बडिय़ां सामने आईं। हाल के वर्षों में भारत ने ऑस्ट्रेलिया से लगातार दो क्रिकेट शृंखलाओं में जीत हासिल की, इंगलैंड में एक शृंखला जीती और हर घरेलू शृंखला में विपक्षियों का सफाया किया। वेस्ट इंडीज अब श्रेष्ठ टीम नहीं रह गई है, न्यूजीलैंड का हम अक्सर दौरा करते हैं। लेकिन दक्षिण अफ्रीका में हम अब तक कोई शृंखला नहीं जीत सके हैं। इस समय दक्षिण अफ्रीकी क्रिकेट अपने ही संकट से गुजर रहा है। वहां नस्ली विवाद, चोट और प्रतिभाओं के पलायन की समस्या है। कोहली की टीम के लिए वहां जीत हासिल करने का यह सुनहरा अवसर था।
लेकिन बीसीसीआई ने क्या किया? टीम के दक्षिण अफ्रीका प्रस्थान से एक सप्ताह पहले कोहली पर हमला हुआ और आगे चलकर उन्हें और शर्मिंदा किया गया। मीडिया में भी कुछ अटकलबाजी हुई जो काफी हद तक गलत थी। ऐसी ही एक बेतुकी अफवाह यह थी कि उन्होंने एकदिवसीय शृंखला खेलने से इसलिए मना कर दिया क्योंकि उसी समय उनकी बेटी का जन्मदिन था।
पहली बात, विश्वसनीय सूत्रों के मुताबिक उन्होंने बोर्ड से ऐसा कुछ नहीं कहा था। बोर्ड के सूत्रों ने कहा कि भले ही उन्होंने बोर्ड से ऐसा कुछ नहीं कहा लेकिन ड्रेसिंग रूप में अपने साथियों से इस बारे में बात की थी। हमें नहीं पता बोर्ड क्या ड्रेसिंग रूम की जासूसी करता है या उसने खिलाडिय़ों के फोन में पेगासस डाला है। परंतु तथ्यों और तारीखों पर नजर डालें तो पता चलता है कि यह बचाव जिसने भी चुना था वह तारीखों से परिचित नहीं था। विराट की बेटी का जन्मदिन उन तारीखों के दरमियान नहीं पड़ता जब एकदिवसीय शृंखला होनी है बल्कि वह कोहली के 100वें टेस्ट के दौरान पड़ेगा (बशर्ते कि वह फिट रहें और चुने जाएं)। बोर्ड के पदाधिकारियों ने ऐसी गलती कैसे कर दी? इसलिए कि उन्होंने तैयारी नहीं की थी। ओमीक्रोन के कारण दौरे की तारीख बदल दी गईं। डालमिया, बिंद्रा, ललित मोदी, श्रीनिवासन या अनुराग ठाकुर के दौर में कई शर्मिंदा करने वाली घटनाएं घटी होंगी लेकिन ऐसा तब भी नहीं हुआ था। आईपीएल के बाद भारतीय क्रिकेट बोर्ड की छवि सर्वाधिक सक्षम प्रबंधन वाले बोर्ड की बनी थी।
इसके बाद भारतीय परंपरा के मुताबिक कुछ कुछ छेड़छाड़ शुरू की। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर एक नई व्यवस्था लागू की गई। आखिरकार शुचितावादियों की प्रार्थनाओं का जवाब दिया गया। एक बेहतरीन क्रिकेट खिलाड़ी को बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया। अब कम से कम खेल और कारोबारियों के बीच हितों का टकराव नहीं होगा। इसके बाद बोर्ड के प्रमुख को उन मैचों में एक क्रिकेट गेमिंग ऐप के विज्ञापन में देखा जिनमें उनकी टीम खुद खेल रही थी। दुनिया में यह अपनी तरह का अनूठा मामला है। उसके बाद ताजा गड़बड़ी सामने आई मानो विराट कोहली 2021-22 के लिए वही हैं जो ग्रेग चैपल 2005-06 के लिए थे।
टीम के चयनकर्ता और बोर्ड यह दलील दे सकते हैं कि कोहली तीनों प्रारूपों के कप्तान नहीं बने रह सकते। उन्होंने टी-20 की कप्तानी छोडऩे की घोषणा करके उनके लिए रास्ता खोल दिया। तब चयनकर्ताओं का यह तर्क सही है कि सफेद गेंद से खेले जाने वाले दोनों प्रारूपों यानी एकदिवसीय और टी-20 के लिए एक कप्तान रखना सही होगा। विश्व क्रिकेट में अलग-अलग कप्तान रखना एक मानक है। केवल भारत और न्यूजीलैंड इसके अपवाद रहे क्योंकि विराट कोहली और केन विलियमसन के कद तथा उनके और टीम के प्रदर्शन ने उन्हें निर्विवाद नेतृत्वकर्ता बनाया। भारत के लिए यह कारगर नहीं रहा और एक कप्तान के अधीन रहते टीम 2013 के बाद कोई आईसीसी ट्रॉफी नहीं जीत पाई। चयनकर्ताओं का यह सोचना सही है कि रवि शास्त्री और विराट कोहली के रूप में दो लोगों की तानाशाही (हम यह जुमला हल्के में नहीं प्रयोग कर रहे, रविचंद्रन आश्विन से पूछिए) समाप्त होनी चाहिए। कोहली द्वारा टी-20 की कप्तानी छोडऩे के बाद सफेद गेंद के दो प्रारूपों के अलग कप्तान रखना भी बेतुका था। उनकी खुद की फॉर्म भी उतार-चढ़ाव वाली रही है। शायद उन्हें अपनी बल्लेबाजी पर ध्यान देने की जरूरत है। उनकी उम्र भी बढ़ रही है। सारी बातें ठीक हैं लेकिन एक सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है क्या यह सब इतने खराब ढंग से करना चाहिए था? देश के सर्वाधिक सफल कप्तान को यूं खारिज करना?
बोर्ड उस दौर में लौट गया है जब वह बिशन सिंह बेदी या मोहिंदर अमरनाथ को मनमाने ढंग से अपमानित कर सकता था। या जब कोई विजय मर्चेंट युवा मंसूर अली खान पटौदी को अपमानजनक ढंग से कप्तानी से हटा देते थे, वह भी बिना वजह बताए। यह जानकारी मुझे अपने पानीपत के स्कूली दिनों के दोस्त और पुराने मित्र प्रदीप मैगजीन की किताब नॉट जस्ट क्रिकेट से जानने को मिला। मर्चेंट पटौदी परिवार के खिलाफ दुश्मनी पाले हुए थे क्योंकि उन्हें लगता था कि सीनियर पटौदी इफ्तिखार अली खान को सन 1946 के इंगलैंड दौरे पर उनके ऊपर तरजीह देकर कप्तान बना दिया गया था। एक दिलचस्प तथ्य यह है कि सीनियर पटौदी तब तक इंगलैंड के लिए ही खेलते थे। वह भारत के लिए इसलिए उपलब्ध हुए क्योंकि वह बदनाम एशेज दौरे के लिए या तो चुने नहीं गए या उन्होंने नाम वापस ले लिया क्योंकि वह डगलस जार्डिन की बॉडीलाइन रणनीति से असहमत थे। आपको प्रदीप की किताब पढऩी चाहिए। किताब बताती है कि कैसे मंसूर अली खान पटौदी के उत्तराधिकारी अजित वाडेकर का शानदार दौर 1971-74 तक यानी केवल तीन वर्ष चला। उसके पश्चात सफाया शुरू हुआ। क्लाइव लॉयड की आक्रामक वेस्ट इंडीज टीम के दौरे के समय बीसीसीआई को बूढ़े हो रहे टाइगर को वापस लाना पड़ा। उन्होंने दोबारा टीम तैयार की और 0-2 से पिछडऩे के बाद टीम को 2-2 की बराबरी दिलाई। अंत में भारत 3-2 से शृंखला हार गया। वह भी इसलिए कि अपना करियर शुरू कर रहे विवियन रिचड्र्स ने शानदार प्रदर्शन किया। इसके बाद सन 1983 का विश्व कप जीतने के बावजूद भारतीय क्रिकेट 25 वर्ष के गर्त में चली गई।
मर्चेंट की वजह चाहे जो रही हो, लेकिन 1970 में उन्होंने पटौदी को अपमानजनक ढंग से हटा दिया था। यदि बीसीसीआई 2021 में उसी इतिहास को दोहरा रहा है तो वह भारतीय क्रिकेट को आधी सदी पीछे धकेल रहा है। उसे पता नहीं है कि भारतीय क्रिकेट, खिलाड़ी और प्रशंसक सभी बदल चुके हैं। सबसे अहम बात, कोहली के नेतृत्व में उन्हें जीत की आदत लग गई है।
