महामारी के बाद देश आर्थिक सुधार की प्रक्रिया से गुजर रहा है और वित्त वर्ष 24 में सकल घरेलू उत्पाद के 7.5 फीसदी से अधिक होने की उम्मीद है। पहले इसके छह से 6.5 फीसदी तक रहने का अनुमान जताया गया था। इससे पहले वित्त वर्ष 23 में सात फीसदी और वित्त वर्ष 22 में 9.7 फीसदी की वृद्धि हासिल हुई थी। वृद्धि में कुछ असमानता है। खासतौर पर कृषि अभी भी संघर्ष कर रही है लेकिन सुधार ने सकारात्मक रूप से चौंकाया है।
इस सुधार में भारतीय रिजर्व बैंक ने अहम भूमिका निभाई है लेकिन उसे उतनी सराहना नहीं मिली जितनी मिलनी चाहिए। जिस तरह बतख पानी के ऊपर सहजता से तैरती रहती है जबकि पानी के नीचे वह बहुत तेजी से अपने पैरों से पानी काटती रहती है उसी तरह रिजर्व बैंक ने प्रमुख वैश्विक झटकों से देश को उबारा जबकि कई अन्य देशों का पतन हो गया।
मेरे लिए तीन बातें हैं। पहली बात, भारत बिना मुद्रास्फीति में भारी इजाफा किए महामारी के बाद सुधार हासिल करने में कामयाब रहा। ध्यान रहे वैश्विक वित्तीय संकट के बाद हमें मुद्रास्फीति से जूझना पड़ा था। इसकी एक वजह वैश्विक कीमतें भी हैं। 2012-13 में तेल की कीमतें हाल के वर्षों की तुलना में कहीं अधिक तेजी से बढ़ी थीं और भारत रियायती रूसी कच्चे तेल की मदद से अपनी अधिकांश जरूरत पूरी करने में कामयाब रहा।
बहरहाल जवाब का एक बड़ा हिस्सा मौद्रिक नीति में निहित है जिसे महामारी के दौरान शिथिल किया गया था लेकिन उसे पूरी तरह नियंत्रण से बाहर नहीं होने दिया गया। वैश्विक वित्तीय संकट के बाद वह पूरी तरह बेलगाम हो गई थी। उसके बाद वास्तविक रीपो दर यानी मुद्रास्फीति को घटाकर हासिल रिजर्व बैंक की रीपो दर को 2009 में 5 फीसदी ऋणात्मक होने दिया गया जबकि 2010 में यह 6.2 फीसदी ऋणात्मक हो गई। अगले तीन वर्षों तक यह ऋणात्मक ही बनी रही।
उच्च राजकोषीय घाटे को लंबे समय तक ऊंचे स्तर पर बनाए रखने के अलावा उसने यह सुनिश्चित किया कि 2009 से 2013 तक पांच वर्षों की अवधि के लिए मुद्रास्फीति में इजाफा किया जाए। इसके विपरीत मौद्रिक नीति को शिथिल बनाकर महामारी के कारण कमजोर हुई आर्थिक परिस्थितियों से निपटने का प्रयास किया गया और वास्तविक रीपो दरें 2020 से 2022 तक पुन: ऋणात्मक रहीं।
इस अवधि में मुद्रास्फीति में इजाफा हुआ और रीपो दर धनात्मक समायोजन के साथ 6.5 फीसदी हो गई और वास्तविक रीपो दर धनात्मक हो गई। इसके परिणामस्वरूप भारत की मुद्रास्फीति की दर सीमित हो गई और अब उसमें गिरावट आ रही है।
दूसरा, वर्तमान रिजर्व बैंक यह भी नहीं भूला है कि उसका काम वृद्धि और मुद्रास्फीति पर ध्यान देना है। 2015 में जब मुद्रास्फीति को लक्षित करने का काम शुरू हुआ था तब रिजर्व बैंक ने वास्तविक रीपो दर को लंबे समय तक यानी 2015 से 2019 तक दो फीसदी धनात्मक से ऊपर बनाए रखा। रिजर्व बैंक ने उस समय मुद्रास्फीति को लेकर कुछ ज्यादा ही उत्साह दिखाना शुरू किया और आर्थिक वृद्धि की अनदेखी करनी शुरू कर दी।
रिजर्व बैंक के मुद्रास्फीति संबंधी अनुमान जो मौद्रिक नीति समिति को निर्देशित करते हैं, वे निरंतर वास्तविक मुद्रास्फीति से ऊंचे बने रहे। इसके परिणामस्वरूप रिजर्व बैंक ने रीपो दर को बहुत ऊंचा बनाए रखा और 2017 से 2019 तक यह औसतन 2.5 फीसदी से अधिक रही जबकि इस दौरान वास्तविक मुद्रास्फीति में कमी आई।
इसके परिणामस्वरूप जीडीपी वृद्धि 2016 के 8.2 फीसदी से घटकर 2019 में 3.9 फीसदी तक आ गिरी। सामान्य दिनों में वास्तविक रीपो दर को एक फीसदी के आसपास रखना ही वृद्धि और मुद्रास्फीति के बीच सही संतुलन है और रिजर्व बैंक ने इसे गंवा दिया।
तीसरा, रिजर्व बैंक का मुद्रा प्रबंधन भी वैश्विक वित्तीय संकट के दौर में और हाल के समय में एकदम अलग-अलग रहा है। जब अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व तथा अन्य केंद्रीय बैंकों ने क्वांटिटेटिव ईजिंग को अपनाया था, उस समय भारत तथा दुनिया के अन्य हिस्सों में आवक बढ़ी जिससे वृहद आर्थिक प्रबंधन जटिल हो गया।
इस अनुमान के साथ की एक दिन यह आवक, बाहर जाने वाली राशि बन जाएगी, रिजर्व बैंक को विदेशी मुद्रा भंडार बनाना चाहिए था। भारत ने विदेशी मुद्रा भंडार में इजाफा किया लेकिन यह इजाफा बहुत अधिक नहीं था। 2009 के 264 अरब डॉलर से बढ़कर 2011 में यह 305 अरब डॉलर तक ही पहुंचा। उसके बाद इसमें ठहराव आ गया। 2013 तक विदेशी मुद्रा भंडार पुन: घटकर 292 अरब डॉलर रह गया।
इतना ही नहीं रिजर्व बैंक इस बात को समझ नहीं पाया कि खुली अर्थव्यवस्था की वृहद आर्थिकी ने रुपये को मार्च 2009 के 51.8 प्रति डॉलर से जुलाई 2011 तक 44.4 प्रति डॉलर पहुंचा दिया। इसने निर्यात को नुकसान पहुंचाया और आयात को प्रोत्साहन दिया। बढ़ती तेल कीमतों ने चालू खाते के घाटे को 2009 के जीडीपी के दो फीसदी से बढ़ाकर 2012 तक जीडीपी के 5 फीसदी तक पहुंचा दिया। इससे भारत संकट की स्थिति में आ गया।
जब अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने क्वांटिटेटिव ईजिंग कार्यक्रम को धीमा करना शुरू किया तो भारतीय रुपया ध्वस्त हो गया। रिजर्व बैंक को एक महंगा विनिमय गारंटी वाला बॉन्ड जारी करना पड़ा। 2022 में जब अमेरिकी केंद्रीय बैंक ने मुद्रास्फीति पर नियंत्रण के लिए ब्याज दरें बढ़ाईं तो ऐसा कुछ नहीं हुआ।
ऐसा इसलिए क्योंकि इस बार रिजर्व बैंक प्रबंधन ने मुद्रास्फीति का इस्तेमाल विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाने में किया था और यह 2019 के 413 अरब डॉलर से बढ़कर 2022 में 607 अरब डॉलर हो गया।
जब यह राशि वापस जाने लगी तो रुपये में गिरावट का सही ढंग से प्रबंधन संभव हो सका और यह प्रति डॉलर 75 से गिरकर प्रति डॉलर 83 तक ही पहुंच सकी। इससे मुद्रास्फीति को कम रखने और चालू खाते के घाटे को जीडीपी के दो फीसदी के दायरे में रखने में मदद मिली।
उसके बाद इसने दोबारा विदेशी मुद्रा भंडार तैयार किया और वह 617 अरब डॉलर तक पहुंच गया। फिलहाल चालू खाते का घाटा भी जीडीपी के एक फीसदी के स्तर पर है।
भविष्य में जब वृहद आर्थिक हालात सामान्य हो जाएंगे तब रिजर्व बैंक अन्य संस्थागत सुधार के विषयों पर नजर डाल सकता है। उदाहरण के लिए सरकार के ऋण प्रबंधन की उसकी भूमिका या फिर सांविधिक तरलता अनुपात का इस्तेमाल। ये दोनों बॉन्ड बाजार के विकास को बाधित करते हैं।
परंतु अब तक रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नीति, विदेशी मुद्रा और विनिमय दर नीति का सराहनीय प्रबंधन किया जिससे भारत को संकट और वैश्विक झटकों से उबारने में मदद मिली। पेटीएम को लेकर उसके हालिया कड़े कदम ने भी एक नियामक के रूप में अच्छा संदेश दिया है।
(लेखक जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनैशनल इकनॉमिक पॉलिसी के प्रतिष्ठित विजिटिंग स्कॉलर हैं)