प्रतीकात्मक तस्वीर
स्टेल्थ विमान, ड्रोन, कंप्यूटर चिप, इलेक्ट्रिक मोटर, बैटरी, निगरानी उपकरण और मोबाइल फोन, ये सभी ऐसे खास खनिजों पर निर्भर हैं जिन्हें हम क्रिटिकल मिनरल या दुर्लभ खनिज कहते हैं। दुर्भाग्य से भारत में क्रिटिकल मिनरल सीमित मात्रा में हैं और इनके प्रसंस्करण की विशेषज्ञता की भी कमी है। ये ऐसी कमजोरियां हैं, जो हमारी उत्पादन महत्त्वाकांक्षाओं को हासिल करने में बड़ी बाधा बनती हैं।
यह चुनौती छोटी नहीं है, क्योंकि यह अर्थव्यवस्था के लगभग हर हिस्से- विनिर्माण, सेवा और यहां तक कि कृषि क्षेत्र को भी प्रभावित करेगी। उदाहरण के लिए अर्थव्यवस्था के अधिक से अधिक विद्युतीकरण की दिशा में बढ़ते कदम को ही लें, जहां परंपरागत जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा की जगह धीरे-धीरे बिजली ले रही है। इसके लिए व्यापक पैमाने पर उपभोग और गतिशीलता दोनों के लिए ही अधिक विद्युत भंडारण की आवश्यकता होती है। इसलिए चाहे वाहन क्षेत्र हो या ड्रोन, रोबोट, शिपिंग और विमान, अथवा बड़े पैमाने पर ऊर्जा भंडारण, हर क्षेत्र में बैटरी और मोटरें अर्थव्यवस्था का जरूरी हिस्सा बन जाएंगी। वर्तमान रुझान को देखते हुए लीथियम, कोबाल्ट, निकल, मैंगनीज जैसे तमाम खनिज धीरे-धीरे आम जनजीवन के लिए बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाएंगे।
इसी तरह कंप्यूटरीकरण हो या डिजिटलीकरण की ओर बढ़ते कदम, चौकसी एवं निगरानी, आर्टिफिशल इंटेलिजेंस क्रांति तथा क्वांटम कंप्यूटिंग की बढ़ती प्रवृत्ति, ये सभी कार्य अलग-अलग इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों पर ही निर्भर हैं। उनके बढ़ते महत्त्व और इनके निर्यात नियंत्रित करने की चीन की प्रवृत्ति को देखते हुए भारत इन क्षेत्रों में अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ाने का प्रयास कर रहा है। इसके लिए इमेज सेंसर एवं ऑप्टिकल इक्विपमेंट के लिए गैलियम, जर्मेनियम और इंडियम जैसे खनिजों से लेकर चिप के लिए टैंटलम व नियोबियम और मैग्नेट के लिए यूरोपियम, येट्रियम तथा टर्बियम जैसे दुर्लभ खनिजों की सख्त आवश्यकता होगी।
हमें रक्षा आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखना होगा। सरकारी नीति में विशिष्ट बदलाव के कारण कम अवधि में ही देश में सैन्य-औद्योगिक परिदृश्य उभर आया है। इससे आने वाले समय में मिसाइलों, तोपों, विमानों, पनडुब्बियों आदि का उत्पादन बढ़ेगा ही। टाइटेनियम और टंगस्टन जैसे खनिजों का उपयोग कुछ समय से किया जा रहा है, लेकिन अंतरिक्ष उपकरणों और मिसाइलों के बढ़ते उपयोग की वजह से बड़े स्तर पर उत्पादन के लिए बेरिलियम और दुर्भल खनिजों समेत अन्य खनिज चाहिए।
सवाल उठता है कि खनिजों की बढ़ती जरूरत और उपयोग के तेजी से बदलते परिदृश्य में सरकार क्या कर रही है। वास्तव में इस दिशा में बहुत कुछ किया गया है। भारत को किन-किन महत्त्वपूर्ण खनिजों की आवश्यकता है, उनकी पहचान की गई है, खनिज संसाधनों के लिए संयुक्त उद्यम ‘काबिल’ के माध्यम से विश्व स्तर पर करार किए जा रहे हैं, इस क्षेत्र में प्रसंस्करण क्षमता बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन योजनाएं पेश की गई हैं। इसके अलावा महत्त्वपूर्ण खनिज ब्लॉकों में निजी भागीदारी को प्रोत्साहित किया जा रहा है। ऐसा महसूस भी किया जा रहा है कि अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया सहित साझा हित वाले देशों के साथ महत्त्वपूर्ण खनिज साझेदारी के प्रयास सफल हो रहे हैं।
इतना सब हो रहा है तो फिर मैं यह लेख क्यों लिख रहा हूं? सही कहूं तो सरकार देश में महत्त्वपूर्ण खनिजों का मजबूत परिदृश्य विकसित करना चाह रही है। हालांकि, चाहे खनन क्षेत्र हो या प्रसंस्करण, सरकार की वर्तमान अवराेध दूर करने की रणनीति निवेश का अनुकूल वातावरण बनाने के लिए अपर्याप्त है। अब चूंकि उत्पादन के साथ-साथ अर्थव्यवस्था का भविष्य ही महत्त्वपूर्ण खनिजों के खनन और प्रसंस्करण पर टिका है, इसलिए हम इसे गलत भी नहीं ठहरा सकते।
यहां बड़ी समस्या क्रिटिकल मिनरल्स वैल्यू चेन बनाने के समयावधि को लेकर है। आसान भाषा में कहें तो एक खनिज की पहचान होने और फिर उसके खनन की पूरी प्रक्रिया शुरू होने में लगभग डेढ़ दशक का समय लगता है। प्रसंस्करण की बात करें तो स्वीकृति आदि लेने से लेकर उत्पादन के लिए जरूरी सामान जुटाने और यूनिट लगाने तक 5 से 10 साल लग जाते हैं, जबकि कोई भी यूनिट लगभत तीन वर्ष में उत्पादन शुरू करती है।
बात यह है कि अपस्ट्रीम माइनिंग का संयंत्र स्थापित करने में सबसे अधिक समय लगता है, जबकि मिडस्ट्रीम प्रॉसेसिंग थोड़ा जल्दी शुरू हो जाता है। हां, डाउनस्ट्रीम उत्पादन में सबसे कम समय लगता है। बस, दिक्कत यहीं है। बिना पर्याप्त बड़े घरेलू बाजार के किसी अपस्ट्रीम यूनिट की ठीक से योजना नहीं बनाई जा सकती और क्रिटिकल खनिजों की घरेलू आपूर्ति के अभाव में डाउनस्ट्रीम यूनिट चलाना जोखिम भरा है। दूसरे शब्दों में कहें तो वैल्यू चेन खड़ी करने में आने वाली समय की यह दिक्कत अपना बाजार खड़ा करने में बड़ी चुनौती बनती है। इससे इस क्षेत्र का सहज विकास सीधे प्रभावित होता है। इससे निपटने के लिए सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता होती है और इस क्षेत्र के समक्ष आने वाली ऐसी अड़चनों को दूर करने की सख्त जरूरत है। केवल लाइसेंस को सुविधाजनक बनाना या निवेश में सब्सिडी देना अथवा शोध एवं विकास (आरऐंडडी) को सक्षम बनाना काफी नहीं होगा। नीति एक साथ दो मोर्चों पर काम कर सकती है। यदि खनन और प्रसंस्करण के कामों को बेहतर ढंग से समन्वित किया जाए तो तमाम जोखिम कम हो जाएंगे और बाजार विफलता के तत्व भी खत्म हो जाएंगे। सबसे पहले, यह पूरी खनन प्रक्रिया में लगने वाले समय और उससे जुड़ी अन्य अड़चनों को पहचानने में मदद करेगा। एक संभावना यह है कि कुछ चीजों के उत्पादन पर तब तक काम किया जाए और उसमें देरी की जाए जब तक कि अपेक्षित प्रसंस्करण क्षमता विकसित न कर ली जाए। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि कुछ रक्षा उपकरण के विकास में देरी की जा सकती है और दुर्लभ खनिज की आपूर्ति श्रृंखला तैयार होने तक इनके आयात पर निर्भर रहा जा सकता है। अथवा यह खनन में लगने वाले समय को कम किया जा सकता है। विभिन्न स्वीकृतियों और लाइसेंसों की पूर्व-अनुमति को सुविधाजनक बनाया जा सकता है, जिसमें अमूमन कई साल लग जाते हैं। इससे खदानों को चालू करने के लिए जरूरी समय कम हो जाएगा, लागत घट जाएगी तथा निजी निवेश के लिए जोखिम भी काफी हद तक दूर हो जाएगा।
दूसरे, भारत मिडस्ट्रीम सेगमेंट यानी प्रसंस्करण स्तर पर सीधे क्रिटिकल मिनरल्स वैल्यू चेन में प्रवेश कर सकता है। इसका उद्देश्य (ए) यह सुनिश्चित करना होगा कि डाउनस्ट्रीम निर्माताओं के लिए महत्त्वपूर्ण खनिज उपलब्ध हों, और (बी) घरेलू अपस्ट्रीम खनन और प्रसंस्करण उद्योग को अपने उत्पाद के लिए आसानी से उपलब्ध बाजार के माध्यम से विकसित होने के लिए सही वातावरण मिले। यह काम कई प्रकार से किया जा सकता है।
एक तरीका फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के न्यूनतम मूल्य वाले सार्वजनिक वितरण प्रणाली जैसे दृष्टिकोण पर आधारित हो सकता है, जहां सरकार खरीद मूल्य की घोषणा करे और प्रसंस्कृत खनिजों को खरीदे तथा उनका भंडारण करे। इसके बाद मांग के अनुसार उन्हें बेच सकती है। एक विकल्प एमएमटीसी के साथ मूल्य स्थिरीकरण दृष्टिकोण है, जहां एक क्रिटिकल मिनरल्स ट्रेडिंग कंपनी को घरेलू प्रसंस्करण इकाई से पहले खरीदने और फिर घरेलू फर्मों को बेचने का अधिकार दिया जाता है। इसके अलावा, वैश्विक बाजार हस्तक्षेप के माध्यम से कीमत में घट-बढ़ को समायोजित किया जाता है। यहां मुख्य बात यह है कि प्रसंस्कृत खनिजों की उपलब्धता सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी पूरी तरह इसी कंपनी की होगी। एक अन्य दृष्टिकोण में सरकार द्वारा कुछ चुनिंदा निजी कंपनियों की पहचान करना भी शामिल होगा, लेकिन उन्हें सख्ती से विनियमित करना होगा क्योंकि इस क्षेत्र में निजी कंपनियां अक्सर मुनाफाखोरी को बढ़ावा देती हैं। पूरी कवायद का बड़ा उद्देश्य मुख्य उत्पादन श्रृंखला को समृद्ध और मजबूत बनाने के लिए महत्त्वपूर्ण खनिजों की आपूर्ति में मूल्य और मात्रा के स्तर पर स्थिरता सुनिश्चित करना है। याद रखें कि पश्चिमी दुनिया का एक समय इस क्षेत्र में प्रभुत्व था, लेकिन जब वैल्यू चेन के हर स्तर पर लाभ की प्रवृत्ति हावी हो गई तो उसे अपने संयंत्र बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ा और इसने चीन के सामने घुटने टेक दिए। इससे इस क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर चीन का दबदबा कायम हो गया, क्योंकि इसने अपस्ट्रीम खनन और प्रसंस्करण पर नहीं, बल्कि विनिर्माण में डाउनस्ट्रीम लाभ पर ध्यान केंद्रित किया।
(लेखक जाने-माने अर्थशास्त्री हैं। यहां व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं)