केन्स की अर्थशास्त्र की पाठय पुस्तक को पढ़ते वक्त हम लिक्विडिटी ट्रैप (तरलता का फंदा) नामक जुमले से रूबरू होते हैं।
इस जुमले का मुख्य तौर पर इस्तेमाल वैसी परिस्थिति को बयां करने के लिए किया जाता है, जब निवेशक अपना पूरा पोर्टफोलियो नकद के रूप में रखना चाहते हैं। नतीजतन केंद्रीय बैंकों के लिए बाजार में तरलता बनाए रखने की गुंजाइश नहीं के बराबर रह जाती है। ऐसी सूरत में निवेशक बॉन्ड या किसी अन्य संपत्ति के रूप में अपना निवेश नहीं करते।
जाहिर है अगर बॉन्ड नहीं खरीदे जाएंगे तो इनकी कीमतें स्थिर रहेंगी। संक्षेप में कहें तो बाजार में तरलता बढ़ाने से ब्याज दरें भी कम होंगी, ऐसा हमेशा मुमकिन नहीं। इस वजह से कहा जा सकता है कि सरकार की मौद्रिक नीतियां विकास की रफ्तार को बढ़ाने में मददगार साबित नहीं हो सकतीं।
हालांकि ट्रैप सिध्दांत के जरिये पोर्टफोलियो की सबसे बुरी हालत का चित्रण किया गया है और केन्स के अर्थशास्त्र की सामान्य व्याख्याओं के तहत इसे ज्यादा तवाो नहीं दी गई है। बहरहाल, यह सिध्दांत अलग नजरिए से नीति संबधी बहसों पर अपना ध्यान आकर्षित कराने में सफल रहा है। ब्याज दर की न्यूनतम सीमा पर अगर हम बहस में नहीं भी पड़ते हैं, तो क्या ऐसी कोई परिस्थिति बन सकती है, जब ब्याज दर के न्यूनतम स्तर पर पहुंचने के बाद भी कर्ज लेने वाले नदारद रहेंगे? अगर ऐसा है तो केन्स की यह आशंका सही है कि मौद्रिक नीति अर्थव्यवस्था को मंदी की चपेट से निकालने में अप्रभावकारी साबित हो सकती है।
3 साल पहले जब जापान की अर्थव्यवस्था मंदी के दौर से गुजर रही थी, वहां हमें यह बात देखने को मिली थी। हालात यहां तक पहुंच गए थे कि ब्याज दर के नकारात्मक (वास्तविक दर शून्य) होने के बावजूद कर्ज के लिए पर्याप्त भूख नहीं दिख रही थी। आखिरकार बाकी एशियाई देशों की अर्थव्यवस्थाओं में उफान और अमेरिकी ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री में बढ़ी मांग जापानी अर्थव्यवस्था में तेजी के उत्प्रेरक बनी।
सवाल यह उठता है कि क्या अमेरिकी अर्थव्यवस्था और वित्तीय एकीकरण की जड़ें गहरी होने की वजह से वैश्विक अर्थव्यवस्था का भी यही हाल (लिक्विडिटी ट्रैप) है? इस बाबत चल रही बहसों से शायद ऐसे ही संकेत मिलते हैं। साथ ही इस बाबत और ठोस प्रमाण भी शायद जल्द देखने को मिल जाएं। अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा जनवरी में ब्याज दरों में 1.25 फीसदी की कटौती के बावजूद वित्तीय संपत्तियों के बाजार में खामोशी का आलम है।
इसके मद्देनजर दुनियाभर की वित्तीय संस्थाओं को अपनी होल्डिंग में कमी करनी पड़ रही है। साथ ही यह बिल्कुल मायने नहीं रखता कि ये संपत्तियां सीधे तौर पर सब-प्राइम हाउसिंग लोन सेगमेंट का प्रतिनिधित्व करती हैं या नहीं। अगर एक कैटिगरी की संपत्ति के मूल्यों में गिरावट होती है, तो जाहिर है इसका असर दूसरी कैटिगरी की संपत्तियों पर भी पड़ेगा।
इन आर्थिक हलचलों से निकलने वाले 2 नतीजे काफी अहम हैं। पहला नतीजा बिल्कुल साफ नजर आ रहा है, जबकि दूसरा आसन्न है। इसके तहतमंदी की मार से प्रभावित वित्तीय कंपनियों का दायरा काफी सिमट जाएगा और बाजार की वर्तमान परिस्थितियों के मद्देनजर ये कंपनियां इससे खुद को उबारने में अक्षम होंगी।
बेयर स्टीयर्नस का मामला इसकी ताजा मिसाल है। साथ ही कुछ अन्य वित्तीय कंपनियों का भी ऐसा ही हश्र होना तय है। अगर ऐसा होता है, तो यह नए दौर का लिक्विडिटी ट्रैप होगा, जिसके तहत मौद्रिक नीति कीमतों को प्रभावित करने में नाकाम रहती हैं। बाजार में धन का प्रवाह हमेशा वित्तीय बाजार के नतीजों को प्रभावित करने में सक्षम नहीं होता।
दूसरा नतीजा विभिन्न तरह की संपत्तियों के विकल्प की उपलब्धता से जुड़ा हुआ है। पिछले हफ्ते अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने ब्याज दरों में 0.75 फीसदी की कटौती की। इसके बावजूद कुछ संपत्तियां (वित्तीय कंपनियां) बाजार में और तरलता की आस लगाए बैठीं हैं। इसका मतलब यह है कि नया लिक्विडिटी ट्रैप सभी सेगमेंट तक नहीं पहुंचा है। इसने कई तरह की कंपनियों को तो अपनी चपेट में लिया है, लेकिन अब भी कुछ कंपनियां इसके दायरे से बाहर हैं, जो काफी महत्वपूर्ण हैं।
हालांकि इन कंपनियों पर इस फंदे का खतरा अब भी कायम है। आखिरकार हम यह कह सकते हैं कि इस फंदे में सभी संपत्तियां एक-दूसरे का विकल्प बन सकती हैं। अब सवाल यह पैदा होता है कि इस फंदे से बाहर कैसे निकला जाए? केन्स की पाठय पुस्तक के अलावा जापान के अनुभव ने भी लिक्विडिटी ट्रैप के हल का सूत्र दिया है।
नुस्खा यह है कि मांग का एक ऐसा बाहरी जरिया तैयार किया जाए, जिसका अर्थव्यवस्था के ताजा सूरत-ए-हाल से अलग अस्तित्व हो। पश्चिमी देशों को मंदी से उबारने में सरकारी खर्चों में की गई भारी बढ़ोतरी ने अहम भूमिका निभाई है। निर्यात में हुई भारी बढ़ोतरी ने जापान को मंदी के जंजाल से मुक्त किया। अमेरिकी राजकोषीय नीति के तहत उपभोक्ताओं को ध्यान में रखते हुए 160 अरब डॉलर का पैकेज इसी सिध्दांत के तहत जारी किया गया है। इस बात में दो राय नहीं हो सकती कि इस पैकेज का अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक असर पड़ेगा। हालांकि अभी यह देखना बाकी है कि यह मंदी की मार से उबारने के लिए पर्याप्त होगा या नहीं।
अगर ये कदम कारगर साबित नहीं होते हैं, तो इस मुश्किल से निकलने में सिक्युरिटीज की कीमतों को बढ़ाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा। इसका मतलब यह हुआ है कि प्रभावित देशों की सरकारों को सिक्युरिटी मार्केट के पुनरुध्दार के लिए काफी संसाधनों को इकट्ठा करना होगा। इसके तहत सरकार को वित्तीय संस्थानों को भारी ‘कीमत’ अदा करनी होगी। इसमें निवेश के नियम-कायदे में भारी बदलाव भी शामिल है।
साथ ही राजकोषीय प्रतिबध्दता, नैतिक खतरों और नियमों की सीमा जैसे मसलों को वैश्विक वित्तीय सिस्टम की बदहाली की आशंका के मुकाबले तौलना होगा, यानी तमाम नफा-नुकसान का बारीकी से जायजा लेना होगा। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि इसकी पहल कौन करेगा?