पुणे स्थित सजग नागरिक मंच के अध्यक्ष विवेक वेलणकर यह जानना चाहते थे कि भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) ने बीते वर्षों में फंसे ऋण के रूप में कितनी राशि बट्टे खाते में डाली है। उन्होंने सूचना के अधिकार (आरटीआई) अधिनियम के तहत इस बारे में सूचना मांगी। बैंक ने इस हास्यास्पद तर्कहीन आधार पर सूचना देने से इनकार कर दिया कि यह सूचना जुटाना संसाधनों की बरबादी होगी। अग्रिम और जमाओं के आंकड़ों की तरह बट्टे खाते में डाली गई राशि का ब्योरा भी माउस के एक क्लिक पर उपलब्ध होना चाहिए। लेकिन सरकार नियंत्रित एसबीआई बुनियादी सूचनाएं भी जनता से छुपाकर रखना चाहता है।
इसके बाद वेलणकर ने दूसरा तरीका अपनाया। उन्होंने मनीलाइफ को बताया, ‘मैंने एसबीआई शेयरधारक होने के नाते यह सूचना मांगी…और बैंक ने साझा भी की।’ एसबीआई ने उन्हें जो आंकड़े दिए थे, वे चौंकाने वाले थे। उनके आधार पर ही मनीलाइफ ने 14 जुलाई को एक विशेष आलेख लिखा था। इसमें कहा गया कि एसबीआई ने वित्त वर्ष 2013 से वित्त वर्ष 2020 तक के आठ साल में 1.23 लाख करोड़ रुपये बट्टे खाते में डाले, लेकिन इस अवधि में वसूली केवल 7 फीसदी यानी 8,969 करोड़ रुपये की ही कर पाया।
सवाल यह है कि क्या एसबीआई ने उन्हें सही आंकड़े दिए? हमारा आलेख प्रकाशित होने के बाद बैंकिंग क्षेत्र से जुड़े एक व्यक्ति ने मुझे एसबीआई की 2020 की सालाना रिपोर्ट के पृष्ठ 65 के बारे में बताया। इस पृष्ठ पर ‘फंसी परिसंपत्ति प्रबंधन’ अनुभाग के तहत एक सारणी में दो पंक्तियां हैं। एक नकद वसूली या उन्नयन और दूसरी बट्टे खाते में डाली गई राशि की है। जब आप उस सारणी के आंकड़ों की वेलणकर को दिए गए आंकड़ों से तुलना करेंगे तो आपको आश्चर्य होगा। इन आंकड़ों में बड़ा अंतर है। उदाहरण के लिए वेलणकर को एसबीआई के वित्त वर्ष 2019 में 27,225 करोड़ रुपये बट्टे खाते में डालने का आंकड़ा दिया गया था, जबकि सालाना रिपोर्ट में यह आंकड़ा 58,905 करोड़ रुपये है। एसबीआई ने वेलणकर को वसूली गई राशि 815 करोड़ रुपये बताई थी, जबकि सालाना रिपोर्ट में ‘नकद वसूली एवं उन्नयन’ का आंकड़ा 31,512 करोड़ रुपये था।
मेरे कहने का यह मतलब नहीं है कि एसबीआई ने जानबूझकर वेलणकर और अपनी सालाना रिपोर्ट में एक ही चीज के अलग-अलग आंकड़े दिए हैं। मगर यह अंतर बहुत बड़ा है और संदेह पैदा करता है। अगर इन आंकड़ों में मामूली अंतर होता तो मुझे निश्चित रूप से कोई आश्चर्य नहीं होता।
जिस पूर्व बैंक अधिकारी ने मुझे से बारे में जानकारी दी, वह इनसे अचंभित नहीं हैं। उन्होंने कहा, ‘न केवल एसबीआई बल्कि बैकिंग परिचालन के सभी पहलुओं में अपर्याप्त एवं गलत सूचनाएं हैं और पारदर्शिता का पूर्णतया अभाव है। असल में ऋणों को बट्टे खाते में डालना, फंसे ऋण, निष्प्रभावी निगरानी, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का निजीकरण और ग्राहकों की मुुश्किलें भारतीय बैंकिंग से संबंधित नीति, ढांचे, प्रणाली और प्रक्रियाओं की समस्याओं के लक्षण हैं। मगर चीजें इसलिए नहीं सुधरती हैं क्योंकि हम बीमारी (समस्याओं) के लक्षणों को भ्रमित कर देते हैं।’
दुर्भाग्य से बैंकों और यहां तक कि भारतीय रिजर्व बैंक में भी सूचनाओं को छिपाया जाता है। वे व्यक्तिगत खातों और कुल आंकड़ों का घालमेल कर देते हैं। कुल आंकड़े कंप्यूटरीकृत और आपस में जुड़े परिचालन के दौर में न गोपनीय हो सकते हैं और न ही साझा करने में मुश्किल हो सकते हैं। पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त शैलेश गांधी और गिरीश मित्तल और सुभाष चंद्र अग्रवाल जैसे आरटीआई योद्धाओं की लंबी लड़ाई और उच्चतम न्यायालय जाने के बाद आरबीआई को बैंकों की केंद्रीय बैंक की निरीक्षण रिपोर्ट जारी करने को बाध्य होना पड़ा। हालांकि ऐसी कोई वजह नहीं हैं, जिनके कारण रिपोर्टों (कम से कम एक साल पुरानी) को आरबीआई की वेबसाइट पर स्वैच्छिक रूप से प्रकाशित नहीं किया जा सकता है।
जिन लोगों ने यह लंबी लड़ाई नहीं लड़ी, उन्हें आरबीआई इस आधार पर बैंक निरीक्षण रिपोर्ट देने से इनकार करता रहा कि उस पर बैंकों का भरोसा बनाए रखने की जिम्मेदारी है। ऐक्टिविस्टों ने उच्चतम न्यायालय तक लड़ाई लड़ी। अदालत ने 2015 में कहा कि बैंकिंग नियामक ‘भरोसे के संबंध’ का हवाला देकर सूचनाएं साझा करने से इनकार नहीं कर सकता। लेकिन रघुराम राजन और ऊर्जित पटेल के कार्यकाल में आरबीआई ने आदेश को मानने से इनकार कर दिया और एक नई खुलासा नीति जारी की। इसमें नागरिकों के बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों की रिपोर्टों के निरीक्षण, निगरानी और जांच-पड़ताल पर रोक लगा दी गई। ऐक्टिविस्टों को वापस शीर्ष अदालत में जाना पड़ा। आखिर में पिछले साल अदालत ने आरबीआई को चेतावनी दी, ‘हम इस अदालत के निर्देशों का आरबीआई के लगातार उल्लंघन करने पर कड़ा रुख अख्तियार कर सकते थे, लेकिन हम उन्हें खुलासा नीति को वापस लेने के लिए आखिरी मौका देते हैं।’ इसके बाद ऐसा लगा कि आरबीआई ने निर्देशों का पालन शुरू कर दिया है और उसने कुछ अत्यधिक कांट-छांट कर रिपोर्ट जारी कीं, लेकिन फिर से उन्हें रोकना शुरू कर दिया है।
अनावश्यक गोपनीयता के एक अन्य मामले में वित्त मंत्रालय और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने इरादतन डिफॉल्टरों के नाम गोपनीय रखने की कोशिश की है, जिन्हें संयोग से बैंक यूनियनों ने शनिवार को जारी कर दिया। अधिकारियों ने भारी फंसे ऋण प्रावधानों को तकनीकी रूप से बट्टे खाते में डाली गई राशि का नाम देने के लिए परिभाषिक अस्पष्टता का इस्तेमाल किया है। क्योंकि व्यक्ति को वास्तविक बट्टे खाते की राशि का पता केवल तभी चलेगा, जब वसूली के सभी प्रयास खत्म हो जाएंगे। एसबीआई ने वेलणकर के समक्ष यह स्वीकार किया कि उसने थोड़े फंसे ऋणों की वसूली की है। इससे यह साबित होता है कि तकनीकी बट्टा खाता ही वास्तविक बट्टा खाता है।
हमें मंत्रालय से लेकर नियामक और बैंकों तक सही सूचना एकत्रित करने और उन्हें पारदर्शी तरीके से साझा करने की संस्कृति बनाने की दरकार है।
अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तो सही सूचनाओं पर चर्चा नहीं हो पाएगी। हाल के एक भाषण में आरबीआई के गवर्नर ने बाहरी निगरानी, संकट को भांपने, ऐसा कुछ होने पर अग्रगामी कदम उठाने और बाजार खुफिया इनपुट के इस्तेमाल के बारे में बात की थी। यह एक बड़ा कदम है। लेकिन बाजार की गोपनीय जानकारी दो तरफा गली है। आरबीआई को सबसे पहले ज्यादा सूचनाएं साझा करने से ही ज्यादा सूचनाएं मिल पाएंगी।
