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MGNREGA से जुड़ी समस्याएं और उनका समाधान

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना समीक्षा के चरण से गुजरती प्रतीत हो रही है। खबरों के अनुसार मनरेगा में बड़े बदलाव भी किए जा सकते हैं।

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ए के भट्टाचार्य   
Last Updated- May 24, 2024 | 6:00 PM IST

ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना से जुड़ी समस्याओं का निदान कड़ी निगरानी से किया जा सकता है, न कि वित्तीय बोझ साझा करने से। बता रहे हैं ए के भट्टाचार्य

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (MGNREGA) समीक्षा के चरण से गुजरती प्रतीत हो रही है। समाचार माध्यमों में प्रकाशित खबरों के अनुसार मनरेगा में बड़े बदलाव भी किए जा सकते हैं।

वर्ष 2005 में संसद में एक विधेयक पारित कर तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) सरकार ने इस योजना की शुरुआत की थी। मनरेगा में प्रत्येक ग्रामीण परिवार के लिए वर्ष में कम से कम 100 दिनों का रोजगार एक निश्चित पारिश्रमिक पर सुनिश्चित करने का प्रावधान है।

पिछले कई वर्षों में मनरेगा के सफल होने पर संदेह जताने के साथ ही इस पर सवाल भी खड़े हुए हैं। हालांकि, इन तमाम किंतु-परंतु के बावजूद मनरेगा ने संकट के समय अपनी उपयोगिता सिद्ध की है। विशेषकर, कोविड-19 महामारी के दौरान इस योजना से ग्रामीण श्रमिकों को रोजगार पाने में काफी सहायता मिली।

मनरेगा कोष (MGNREGA Fund) का इस्तेमाल और भारतीय अर्थव्यवस्था पर दबाव के बीच सीधा संबंध दिखा है। तालिका में यह स्पष्ट रूप से दर्शाया गया है कि मनरेगा की शुरुआत के दो वर्षों बाद ही देश की आर्थिक वृद्धि कम होकर 2008-09 में 3.1 प्रतिशत रह गई। वैश्विक वित्तीय संकट इसका एक बड़ा कारण रहा था।

वित्त वर्ष 2007-08 में देश की आर्थिक वृद्धि दर 7.7 प्रतिशत थी परंतु इसकी धार कुंद पड़ गई। बाद के वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में सुधार अवश्य हुआ परंतु देश में रोजगार की उपलब्धता पर गहरी चोट पड़ी। इसका परिणाम यह हुआ कि मनरेगा के अंतर्गत रोजगार की मांग और आवंटित रकम दोनों में भारी बढ़ोतरी हुई।

कोविड-19 महामारी के समय भी ऐसा देखा गया। कोविड से बिगड़ी परिस्थितियों के बीच नीति निर्धारक अर्थव्यवस्था को संभालने की जद्दोजहद कर रहे थे और इस बीच ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार उपलब्ध कराने की यह योजना एक ताकतवर माध्यम बन गई। वर्ष 2020-21 में मनरेगा के अंतर्गत रोजगार खोजने वाले लोगों की संख्या बढ़ गई।

यह बात भी विचारणीय है कि मनरेगा की शुरुआत के बाद जब वैश्विक वित्तीय संकट या कोविड से प्रभावित वर्षों में देश की अर्थव्यवस्था कराह रही थी तब इस योजना के लिए वित्तीय आवंटन बढ़कर केंद्र सरकार के कुल का 3 प्रतिशत (सकल घरेलू उत्पाद का 0.5 प्रतिशत) से अधिक हो गया। अब स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है कि अगर मनरेगा आर्थिक चुनौतियों के समय मददगार साबित हुई है तो फिर इसकी समीक्षा या इसमें बदलाव की आवश्यकता क्यों आन पड़ी है?

जैसा तालिका में दर्शाया गया है, देश में आर्थिक चुनौतियां कम होती हैं तो सरकार के खजाने पर बोझ भी कम हो जाता है और रोजगार तलाशने वाले लोगों की संख्या घट जाती है।

उदाहरण के लिए वर्ष 2023-24 में केंद्र सरकार के कुल व्यय में मनरेगा का हिस्सा मात्र 1.9 प्रतिशत था। वर्ष 2014-15 और इससे भी पहले 2006-07 में मनरेगा का केंद्रीय व्यय में लगभग इतना ही हिस्सा रहा था। उन वर्षों में रोजगार की मांग कम थी और अर्थव्यवस्था चुस्त-दुरुस्त थी।

संकट के वर्ष गुजरने के बाद भी लोग नौकरियों की तलाश में भटकते हैं तो यह इस बात का सीधा संकेत है कि अर्थव्यवस्था, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र के लिए हालात अनुकूल नहीं हैं। इसी तरह, मनरेगा के अंतर्गत रोजगार की मांग नीति निर्धारकों को यह संकेत भी देती है कि देश के ग्रामीण क्षेत्र आर्थिक दबाव कहीं न कहीं से गुजर रहे हैं।

हम अच्छी तरह जानते हैं कि अर्थव्यवस्था में मांग को ताकत देने में ग्रामीण क्षेत्र महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। परंतु, ऐसा आभास हो रहा है कि मनरेगा को लेकर सरकार कुछ चिंतित है, इसलिए दो विशेष कारणों से वह इसकी समीक्षा करना चाहती है।

पहला कारण तो यह है कि मनरेगा उन योजनाओं में एक है जिनमें केंद्र सरकार पूरा वित्तीय दायित्व उठाती है मगर इनके तहत होने वाले कार्य की निगरानी राज्य सरकारें करती हैं। तर्क दिया जा रहा है कि अगर राज्य मनरेगा में वित्तीय अंशदान दें तो इसके तहत संपादित कार्य की गुणवत्ता में काफी सुधार होगा। इसके सकारात्मक प्रभाव यह होंगे कि अधिक उत्पादकता वाली एवं उपयोगी संसाधन तैयार होंगे।

कुछ राज्य मनरेगा के प्रावधानों का अपने विशेष हितों के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। यह मनरेगा की समीक्षा का दूसरा कारण है। मनरेगा का ढांचा मांग आधारित है जिसमें परियोजनाओं पर रकम उसी स्थिति में खर्च की जानी चाहिए जब परेशान श्रमिक रोजगार की तलाश में इधर-उधर भटक रहे होते हैं। जिन परियोजनाओं के क्रियान्वयन का उत्तरदायित्व राज्य सरकारों का है उनके लिए मनरेगा की रकम का उपयोग नहीं होना चाहिए।

राज्य सरकारों को अपने बजट से इन परियोजनाओं को आगे बढ़ाना चाहिए। वर्तमान स्थिति में निगरानी के अभाव में मनरेगा के कोष का दूसरे मदों में इस्तेमाल हो रहा होगा। खबरों के अनुसार उन राज्यों में ऐसा अधिक हो रहा है जहां पारिश्रमिक तुलनात्मक रूप से अधिक है। ऐसे राज्य मनरेगा की रकम अपनी कल्याणकारी योजनाओं को पूरा करने में खपा रहे होंगे।

एक और रुझान सामने आ रहा है जो चिंता का कारण हो सकता है। पिछले कुछ वर्षों के आंकड़े कह रहे हैं कि वर्ष 2018 से 2020 के बीच पश्चिम बंगाल ने मनरेगा के अंतर्गत आवंटित रकम का सर्वाधिक इस्तेमाल किया था। इसके बाद तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक रहे।

इतना ही नहीं, वर्ष 2023-24 के आंकड़ों के अनुसार केंद्र द्वारा मनरेगा पर किए गए कुल व्यय में पांच दक्षिणी राज्यों-आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और तेलंगाना- की हिस्सेदारी एक तिहाई से अधिक रही। वर्ष 2022-23 और 2023-24 में पश्चिम बंगाल को मनरेगा अधिनियम, 2005 के प्रावधान 27 के अंतर्गत रकम रोक दी गई।

केंद्र सरकार के निर्देशों का पालन नहीं करने के लिए राज्य को रकम से वंचित किया गया था। अतः स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है कि अगर नियमों का पालन नहीं करने वाले राज्यों को रकम से वंचित किया जा सकता है तो मनरेगा कोष का बेजा इस्तेमाल रोकने के लिए निगरानी तंत्र को मजबूत क्यों नहीं बनाया जा सकता? मनरेगा के संचालन में राज्यों को वित्तीय अंशदान देने के लिए कहना आसान है मगर इससे योजना के बेजा इस्तेमाल से उठने वाली चिंता एवं समस्याएं दूर नहीं होंगी।

अगर प्रत्येक राज्य को उनके यहां मनरेगा के संचालन पर होने वाले व्यय में 20 या 40 प्रतिशत हिस्सा देने के लिए कहा जाए तो इससे केंद्र पर राजकोषीय बोझ अवश्य कम होगा परंतु मनरेगा कोष के अनुचित इस्तेमाल की समस्या दूर नहीं होगी। किसी भी सूरत में, अगर राज्यों को मनरेगा के बजट में योगदान देने के लिए कहा जाता है तो इससे संबंधित कानून में संशोधन की आवश्यकता होगी।

ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार संकट दूर करने में काम आने वाले तात्कालिक उपायों में मनरेगा भी एक है। सरकार को केवल स्वयं पर वित्तीय बोझ कम करने में उलझने के बजाय साझा निगरानी व्यवस्था के माध्यम से इसके क्रियान्वयन से जुड़ी दिक्कतों पर अधिक ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

First Published : May 23, 2024 | 10:14 PM IST