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पहले कार्यकाल की उपलब्धियां तय करती हैं किसी मुख्यमंत्री की राजनीतिक उम्र

पहला कार्यकाल किसी भी मुख्यमंत्री की असली परीक्षा होता है, जिसमें अच्छा शासन और विकास ही तय करते हैं कि वह सत्ता में लौटेंगे या इतिहास में खो जाएंगे

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आदिति फडणीस   
Last Updated- October 10, 2025 | 10:59 PM IST

देश के कुछ मुख्यमंत्री दशकों तक सत्ता में क्यों बने रहते हैं, जबकि कुछ अपना कार्यकाल पूरा होने के बाद घर लौट जाते हैं और कभी-कभार बाद में उनके बारे में कुछ पता ही नहीं चलता? आखिर एक मुख्यमंत्री की राजनीतिक पूंजी क्या होती है? और उन्हें इतिहास की किताबों में जगह क्यों मिलती है?

किसी राज्य के शीर्ष पद को हासिल करने के लिए जाति का सहारा लेने की बात अब पुरानी हो गई है। राम कृष्ण हेगड़े को कर्नाटक के मुख्यमंत्री का पद इसलिए मिला कि वह शक्तिशाली और महत्त्वाकांक्षी वोक्कालिगा और लिंगायतों के टकराव वाले इलाके में शांत स्वभाव के एक ब्राह्मण थे। जयललिता को तमिलनाडु जैसे राज्य में ब्राह्मण होने के बावजूद यह पद मिला, जहां ब्राह्मण-विरोध एक राजनीतिक विचारधारा थी। इस तरह की राजनीति आपको एक बार मुख्यमंत्री पद पर बिठा सकती है। लेकिन एक से ज्यादा बार मुख्यमंत्री बनना लगभग पूरी तरह से इस बात पर निर्भर करता है कि आपने अपने पहले कार्यकाल में क्या किया था।

बिहार को ही लीजिए, जहां हाल ही में चुनावों की घोषणा हुई है। आज तक नीतीश कुमार और उनके समर्थक यह कहा जाना पसंद करते हैं कि नीतीश ‘सुशासन बाबू’ हैं। यह वही उपाधि है जो उन्होंने नवंबर 2005 से 2010 तक अपने पहले पूरे पांच साल के कार्यकाल (तकनीकी रूप से दूसरा कार्यकाल क्योंकि वह पहली बार 3 मार्च से 10 मार्च, 2000 तक भी मुख्यमंत्री थे) में खुद को दी थी। उन्होंने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया था कि उस समय जब वह अपने कार्यालय में दाखिल हुए तो उन्हें मुख्यमंत्री सचिवालय के फर्श पर सिर्फ रेमिंगटन टाइपराइटर और कागज बिखरे मिले। उन्होंने अपना पहला आदेश हाथ से लिखा और कार्बन नहीं होने के कारण उसे दूसरे कागज़ पर खुद ही कॉपी कर लिया।

द इकॉनमिस्ट ने 2004 में लिखा था: ‘बिहार…भारत की सबसे बुरी स्थिति का पर्याय बन गया है: व्यापक और अपरिहार्य गरीबी का; भ्रष्ट राजनेताओं का, जिन्हें उनके द्वारा संरक्षण प्राप्त माफिया सरगनाओं से अलग नहीं किया जा सकता; जाति-आधारित सामाजिक व्यवस्था जिसने सबसे बुरी सामंती क्रूरताएं बरकरार रखी हैं; ‘नक्सली’ माओवादियों के समूहों द्वारा आतंकी हमले; दीर्घकालिक कुशासन जिसने बुनियादी ढांचे को चरमराने दिया है, शिक्षा और स्वास्थ्य प्रणालियों को ध्वस्त होने दिया है, और कानून-व्यवस्था को लुप्त होने दिया है।’

बिहार के बदलाव की कहानी इतनी अच्छी तरह से प्रलेखित है कि उसे यहां दोहराना जरूरी नहीं है। लेकिन नीतीश कुमार के पहले कार्यकाल में ज्यादातर कदम प्रशासनिक और जाति-निरपेक्ष थे: उन्होंने सरकारी स्वामित्व वाले बिहार सेतु निर्माण निगम को पुनर्जीवित किया, जिसने अंततः लाभ कमाया। उसे ऐसे राज्य में पुल बनाने के लिए प्रेरित किया जहां बाढ़ आना आम बात है। नए स्कूल बनाए गए और विश्व बैंक से सहायता राशि लेकर 2,00,000 नए शिक्षकों की नियुक्ति की योजना बनाई गईं। रेडियोलॉजिकल और पैथोलॉजिकल जांच जैसी प्रमुख चिकित्सा सेवाओं को कम आय वर्ग के लिए सब्सिडी के साथ निजी कंपनियों को आउटसोर्स किया गया।

बिहार राज्य विद्युत बोर्ड का पुनर्गठन किया गया और उत्पादन एवं वितरण में सुधार किया गया। एक कार्यकाल पूरा करने के बाद, अपने दूसरे कार्यकाल में उन्होंने कई काम किए: लड़कियों को नि:शुल्क साइकिल देने की योजना, यह मानना कि महिलाएं बेहतर प्रशासक हो सकती हैं और स्कूल चलाने में उनके लिए पद आरक्षित करना… कुल मिलाकर नतीजा? एक प्रशासक के रूप में उनकी अपील मतदाताओं के बीच अभी भी गूंज रही है। इनमें से ज्यादातर काम उनके पहले कार्यकाल में ही हो गए थे।

पश्चिम बंगाल के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु ने 1977 से 1982 के बीच वह सब हासिल किया जिसके लिए आज उन्हें याद किया जाता है। भूमि सुधार और ऑपरेशन बर्गा, जिसमें बटाईदारों (बर्गादारों) के नाम दर्ज कर उन्हें जमीन से बेदखल होने से बचाया गया और यह सुनिश्चित किया गया कि उन्हें फसल का उनका वाजिब हिस्सा मिले। इस सुधार की बदौलत मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार बार-बार सत्ता में आती रही। बसु ही वह व्यक्ति थे जिन पर पार्टी सरकार का नेतृत्व करने के लिए सबसे ज्यादा भरोसा करती थी। कानूनी सीमा से ऊपर की जमीन राज्य के अधिकार में थी और भूमिहीन किसानों में पुनर्वितरित की जाती थी, जिससे एक स्वाभाविक मतदाता वर्ग का निर्माण होता था। मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने अपने मंत्रिमंडल के पहले फैसले में सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा कराया।  दूसरे शब्दों में कहा जाए तो कुछ निवेश और दशकों की सत्ता।

चंद्रबाबू नायडू की प्रशासनिक कुशलता जगजाहिर है। लेकिन लोग उनके कुछ महत्त्वपूर्ण सामाजिक कल्याणकारी कदमों को भूल जाते हैं। उन्होंने अपने पहले कार्यकाल में 1999 में दीपम योजना शुरू की थी जिसमें महिलाओं को गैस चूल्हे और 10 लाख गैस सिलिंडर कनेक्शन प्रदान किए गए। विश्व बैंक ने उल्लेख किया है कि उनके प्रशासन ने बड़े पैमाने पर लोकलुभावनवाद की तुलना में आर्थिक सुधार, बुनियादी ढांचे और तकनीक को प्राथमिकता दी। हालांकि इससे उन्हें चुनावी हार का सामना करना पड़ा, लेकिन यह तुरंत ब्रांड रिकॉल का रास्ता भी बना और अपनी तेलुगु देशम पार्टी की स्थापना के 30 साल बाद भी, वह आज भी अपनी जगह पर हैं।

जातिगत समीकरणों पर सतही बातें इसका केवल एक हिस्सा ही समझा सकती हैं लेकिन लगातार चुनावी जीत का विश्लेषण करें तो कहीं न कहीं, इसका आधार वह प्रशासन होगा जो सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में दिया था। अगर आप इस मोर्चे पर लड़खड़ाए तो आप हार जाएंगे।

First Published : October 10, 2025 | 10:59 PM IST