प्रतीकात्मक तस्वीर | फाइल फोटो
यह बात तो सभी मानते हैं कि भारत को अपनी निवेश दर बढ़ाने और अपनी वृद्धि दर में टिकाऊ सुधार के लिए बड़े पैमाने पर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की आवश्यकता है। हालांकि, कर के मामले में अनिश्चितता अभी भी देश की कुल एफडीआई संभावनाओं के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। इस संदर्भ में नीति आयोग का ताजातरीन ‘कर नीति कार्य पत्र’ समस्या की बुनियाद का सही पता लगाता है।
‘स्थायी प्रतिष्ठान’ और लाभ आवंटन के नियमों को परिभाषित करने में जो अस्पष्टता है उसने ‘कारोबारी मौजूदगी’ और ‘करयोग्य मौजूदगी’ के बीच की रेखा को धुंधला कर दिया है जिससे निवेशकों के लिए जोखिम प्रीमियम उत्पन्न हो गया है। एक अप्रत्याशित स्थायी प्रतिष्ठान के मामले की शुरुआत, जो निवेशकों को पिछली अवधि के कर दावों के अधीन कर सकता है, भारत से अर्जित आय पर भारी और अप्रत्याशित कर देनदारियों का कारण बन सकता है, जिससे निवेश हतोत्साहित होता है।
यह जोखिम प्रीमियम न केवल नए निवेशकों को रोकता है, बल्कि मौजूदा कंपनियों को कर लाभ के लिए जटिल और अप्रत्यक्ष निवेश संरचनाओं की ओर भी प्रेरित करता है। इसका परिणाम पूंजी की अक्षमता और महंगी मुकदमेबाजी के रूप में सामने आता है।
कार्य पत्र में सर्वोच्च न्यायालय के जिन हालिया निर्णयों का उल्लेख है, वे दिखाते हैं कि इस तरह के कानूनी ढांचे से कैसे अप्रत्याशित परिणाम सामने आ सकते हैं। फॉर्मूला वन वर्ल्ड चैंपियनशिप लिमिटेड बनाम आयकर आयुक्त (2017) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि बुद्ध इंटरनैशनल सर्किट को विदेशी उपक्रम के लिए एक स्थायी प्रतिष्ठान माना जाएगा क्योंकि यह आयोजन करदाताओं के नियंत्रण और अधिकार में था। भले ही यह केवल कुछ दिनों तक चला।
वर्ष 2025 के हयात इंटरनैशनल (दक्षिण पश्चिम एशिया) लिमिटेड बनाम अतिरिक्त आयकर निदेशक मुकदमे में इस तर्क को भारत- संयुक्त अरब अमीरात संधि मामलों में भी आगे बढ़ाया गया। इसमें पुष्टि की गई कि प्रबंधन या समन्वय गतिविधियां देनदारियों को जन्म दे सकती हैं भले ही किसी भौतिक कार्यालय की मौजूदगी नहीं हो। ये निर्णय भारत के कराधान अधिकारों की वैधता को बनाए रखते हैं, लेकिन ये एक गंभीर दुविधा को भी उजागर करते हैं। यदि स्थायी प्रतिष्ठान की स्पष्ट और वस्तुनिष्ठ परिभाषा नहीं दी जाती, तो भारत एक वैध व्यावसायिक उपस्थिति को कर योग्य नियंत्रण के रूप में भ्रमित करने का जोखिम उठाता है। ऐसे प्रमुख विवादों को अंतिम समाधान तक पहुंचने में अक्सर छह से बारह वर्ष लग जाते हैं।
विदेशी कारोबार के लिए, ऐसे मुकदमेबाजी समयसीमा का अर्थ होता है अवरुद्ध परिसंपत्तियां, ब्याज देनदारियों का एकत्रित होना, और रणनीतिक गति की हानि। ऐसे में वास्तविक चुनौती भारत द्वारा कर अधिकारों को दोहराया जाना नहीं बल्कि नियमों की अस्पष्टता है। आधुनिक निवेश केंद्र केस दर केस निर्णय के आधार पर काम नहीं करते। सिंगापुर और नीदरलैंड जैसे देश स्थायी प्रतिष्ठान के लिए अवधि, गतिविधि के प्रकार और नियंत्रण की सीमा आदि को ध्यान में रखते हैं ताकि किसी प्रकार का मनमाना निर्णय नहीं लिया जा सके।
भारत की मौजूदा अस्पष्टता बेहतरीन वैश्विक व्यवहारों से अलग है। इससे अनुपालन को लेकर अनिश्चितता बढ़ जाती है। इस बारे में नीति आयोग का वह प्रस्ताव रचनात्मक साबित हो सकता है जिसमें उसने विदेशी संस्थाओं के लिए एक वैकल्पिक अनुमानित कराधान योजना की बात कही है।
इस प्रस्तावित योजना के अंतर्गत, विदेशी कंपनियां भारत से प्राप्त सकल राजस्व के लिए एक पूर्व निर्धारित क्षेत्र विशिष्ट प्रतिशत पर कर चुकाने का विकल्प चुन सकती हैं। ऐसा करने वाली कंपनियों को सुरक्षित क्षेत्र का लाभ मिलेगा क्योंकि कर प्राधिकार उस गतिविधि के लिए स्थायी प्रतिष्ठान की अलग से जांच नहीं करेगा जिससे उन्हें स्थानीय स्तर पर विस्तृत लेखा बनाए रहने से राहत मिलेगी।
यदि कोई कंपनी मानती है कि उसके वास्तविक लाभ अनुमानित राशि से कम हैं तो वह नियमित कर व्यवस्था के तहत रिटर्न दाखिल कर सकती है। इस प्रकार यह योजना निवेशकों को कर देनदारी संबंधी स्पष्टता प्रदान करती है और राजस्व का पूर्वानुमान लगाने की क्षमता को सुरक्षित रखती है। यद्यपि इसकी कामयाबी सावधानीपूर्वक संतुलन पर निर्भर करती है। उद्योग विशेष से संबंधित कर दरें डेटा आधारित होनी चाहिए न कि मनमाने आधार पर। कर प्रशासन को इसे लगातार लागू करने के लिए संस्थागत क्षमता भी विकसित करनी होगी।