पिछले कुछ हफ्तों से निजी उपभोग में कमी सुर्खियों में बनी हुई है। यह बहुत चिंता की बात है क्योंकि निजी पूंजीगत व्यय का चक्र दोबारा घूमने के ठोस संकेत अब भी नहीं दिख रहे हैं। लेकिन खपत में कमी को ठीक से समझने के लिए इसके पीछे के कारणों को समझना जरूरी है।
रोजमर्रा का सामान बनाने वाली (एफएमसीजी) कंपनियों को देखें तो उनमें बाजार पूंजीकरण के लिहाज से शीर्ष 10 कंपनियों की बिक्री वित्त वर्ष 2024-25 की दूसरी तिमाही में सुस्त होकर 4.3 प्रतिशत रह गई, जो उससे पिछली तिमाही में 6.1 प्रतिशत थी। बिक्री में इस कमी से पता चलता है कि शहरों में खपत कितनी कम हो रही है। बाद में निजी खपत पर होने वाले खर्च (पीएफसीई) में आई कमी ने इस चिंता को सही साबित भी कर दिया। दूसरी तिमाही में यह खर्च केवल 6 प्रतिशत बढ़ा, जबकि अप्रैल-जून तिमाही के दौरान इसमें 7.4 प्रतिशत इजाफा हुआ था।
निजी उपभोग में कमी का सिलसिला पिछले कुछ समय से ही चल रहा है। यह सुस्ती आठ तिमाही पहले 2022-23 की तीसरी तिमाही में शुरू हुई थी, जब पीएफसीई साल भर पहले के मुकाबले केवल 1.8 प्रतिशत बढ़ा था। 2022-23 की तीसरी तिमाही से 2024-25 की दूसरी तिमाही तक आठ तिमाहियों में औसत पीएफसीई वृद्धि दर घटकर 4.1 प्रतिशत ही रह गई। इससे पहले 2020-21 की तीसरी तिमाही से लेकर 2022-23 की दूसरी तिमाही तक पीएफसीई औसतन 10.5 प्रतिशत रफ्तार से बढ़ा था। कोविड महामारी से पहले (2012-13 की पहली तिमाही से 2019-20 की चौथी तिमाही तक) औसत वृद्धि दर 6.7 प्रतिशत रही थी। निजी उपभोग में यह कमी एक साथ कई कारणों से आई।
पहला कारण तो अस्थायी कर्मियों के वेतन और खुद के रोजगार में लगे लोगों की कमाई की रफ्तार है। 2022-23 की तीसरी तिमाही से 2024-25 की पहली तिमाही तक सात तिमाहियों में अस्थायी कर्मियों का वेतन केवल 4.6 प्रतिशत बढ़ा और अपना रोजगार चला रहे लोगों की कमाई तो 4.5 प्रतिशत ही बढ़ी। उससे ठीक पहले की सात तिमाहियों (2020-21 की चौथी तिमाही से 2022-23 की दूसरी तिमाही तक) में अस्थायी कर्मियों का वेतन 14.6 प्रतिशत और अपना रोजगार करने वालों की कमाई 10.5 प्रतिशत बढ़ा। फिक्की और क्वेस कॉर्प की हाल की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि इंजीनियरिंग, विनिर्माण, प्रोसेस और बुनियादी ढांचा क्षेत्रों में वेतन 2019 से 2023 के बीच केवल 0.8 प्रतिशत बढ़ा। उसी दौरान एफएमसीजी क्षेत्र में वेतन केवल 5.4 प्रतिशत रफ्तार से बढ़ा।
दूसरा कारण खाद्य मुद्रास्फीति है, जो पिछली 8 तिमाहियों (2022-23 की तीसरी तिमाही से 2024-25 की दूसरी तिमाही) में औसतन 7.1 प्रतिशत रही। उससे ठीक पहले की आठ तिमाहियों में यह औसतन 5.3 प्रतिशत और कोविड महामारी से पहले (2012-13 की पहली तिमाही से 2019-20 की चौथी तिमाही) 5.9 प्रतिशत रही थी। निम्न आय वर्ग वाले परिवारों को अन्य आय वर्ग वालों की तुलना में मासिक आय का बड़ा हिस्सा भोजन पर खर्च करना पड़ा। ग्रामीण इलाकों में सबसे कम आय वाले 10 प्रतिशत परिवारों ने उपभोग पर अपने मासिक प्रति व्यक्ति व्यय (एमपीसीई) का 52.3 प्रतिशत हिस्सा भोजन पर खर्च किया। उनके उलट सबसे अधिक आय वाले 10 प्रतिशत परिवारों ने एमपीसीई का केवल 34.1 प्रतिशत भोजन पर खर्च किया। इसी तरह शहरों में सबसे गरीब 10 प्रतिशत परिवारों का 43.3 प्रतिशत एमपीसीई भोजन पर गया, जबकि सबसे अमीर 10 प्रतिशत परिवारों ने उस पर केवल 27.3 प्रतिशत खर्च किया। इस तरह बढ़ी हुई खाद्य महंगाई ने कम आय वाले परिवारों की गैर-जरूरी सामान पर खर्च की क्षमता बहुत कम कर दी है, जिसके कारण कुल खपत कम हो गई।
तीसरा कारण वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) रहा। अप्रत्यक्ष कर होने के कारण इसका असर उच्च आय वर्ग के लोगों की तुलना में निम्न आय वर्ग के लोगों पर ज्यादा हुआ। पिछली आठ तिमाहियों (2022-23 की तीसरी तिमाही से 2024-25 की दूसरी तिमाही) के दौरान जीएसटी राजस्व औसतन 11.5 प्रतिशत की दर से बढ़ा, जो सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की नॉमिनल वृद्धि दर से अधिक थी। इस अवधि में औसत नॉमिनल जीडीपी वृद्धि दर 9.3 प्रतिशत रही थी। अप्रत्यक्ष करों का बोझ बढ़ने से खुदरा कीमतें बढ़ गईं, जिनका नतीजा कमजोर मांग के रूप में सामने आया।
चौथा कारण परिवारों पर वित्तीय देनदारी थीं, जो 2022-23 में बढ़कर जीडीपी की 5.7 प्रतिशत हो गईं। उससे पहले के तीन साल (2019-20 से 2021-22) के दौरान ये 3.7 से 3.9 प्रतिशत के बीच ही थीं। परिवार पर कर्ज को व्यक्तिगत खर्च योग्य आय के प्रतिशत में आंकें तो 2022-23 में यह बढ़कर 48 प्रतिशत हो गई, जो 2019-20 में 40 प्रतिशत ही थी। उपलब्ध आंकड़े यह संकेत दे रहे हैं कि परिवारों की देनदारियां और व्यक्तिगत खर्च करने योग्य आय के प्रतिशत के रूप में घरेलू ऋण 2023-24 में संभवतः और बढ़ गया होगा। उपलब्ध आंकड़े इशारा कर रहे हैं कि निजी खर्च योग्य आय के प्रतिशत के रूप में परिवारों की वित्तीय देनदारी और कर्ज 2023-34 में और भी बढ़ जाएंगे। मोतीलाल ओसवाल फाइनैंशियल सर्विसेज के आंकड़े बताते हैं कि परिवारों पर कर्ज की किस्त अदा करने का बोझ 2023-24 में बढ़कर 12.4 प्रतिशत पर पहुंच गया, जो 2018-19 में 10.8 प्रतिशत ही था।
कर्ज चुकाने का बोझ बढ़ने की एक वजह ब्याज दरों में बढ़ोतरी भी थी। मुद्रास्फीति पर काबू पाने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने नीतिगत दर बढ़ाई थी, जो जरूरी भी था। कुल व्यक्तिगत ऋणों में बढ़ोतरी का सिलसिला लगातार जारी है मगर खपत के लिए पर्सनल लोन (आवास और शिक्षा को छोड़कर) पिछली पांच तिमाहियों में बहुत कम हुई है। 2023-24 की पहली तिमाही में यह दर 28.2 प्रतिशत थी, जो 2024-25 की दूसरी तिमाही में 14.1 प्रतिशत ही रह गई। इस तरह कर्ज चुकाने का बोझ बढ़ने और खपत के लिए पर्सनल लोन लेने की रफ्तार घटने से उपभोग को बहुत झटका लगा है।
पांचवां कारण देश का शेयर बाजार रहा, जिसने पिछले कुछ वर्षों में दूसरे शेयर बाजारों की तुलना में शानदार प्रदर्शन किया है। अप्रैल 2022 से मार्च 2024 के बीच इसका बाजार पूंजीकरण 89 प्रतिशत बढ़ गया और देसी निवेशकों को मोटा मुनाफा हुआ। इससे खपत भी बढ़नी चाहिए थी। मगर खुदरा निवेशकों को 2021-22 और 2023-24 के बीच डेरिवेटिव्स श्रेणी में 1.81 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। परिवारों की कुल खर्च योग्य आय को देखा जाए तो नुकसान का आंकड़ा उसके 22 प्रतिशत से भी अधिक है। गौर करने वाली बात यह है कि इसमें से ज्यादातर नुकसान (92-93 प्रतिशत) उन निवेशकों को हुआ जिनकी सालाना आय 5 लाख रुपये से कम थी। नकद श्रेणी में मुनाफा सांकेतिक होता है क्योंकि जब तक शेयर बेचे नहीं जाते नकदी हाथ में नहीं आती। इसके विपरीत डेरिवेटिव्स में नुकसान वास्तविक होता है। इसने भी मध्यम आय वर्ग के लोगों के उपभोग पर असर डाला होगा।
ये सभी कारक मध्य वर्ग के लिए नुकसानदेह रहे हैं और उसका उपभोग इनकी वजह से कम हुआ है। चूंकि उच्च-आय वर्ग के लोगों पर इन चुनौतियों का ज्यादा असर नहीं पड़ा, इसलिए उनका खर्च कम नहीं हुआ। विभिन्न क्षेत्रों में प्रीमियम उत्पाद तेजी से बढ़ना इसी बात को साबित करता है। भारत में कुल मांग में निजी उपभोग की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है और इसमें सुस्ती देश की अर्थव्यवस्था की वृद्धि के लिहाज से ठीक नहीं है। बड़ा सवाल यह है कि निजी खपत में आई कमी कुछ समय के लिए है या व्यवस्था में गहरी समस्या की ओर इशारा कर रही है। इस बारे में कुछ भी कह पाना अभी तो मुश्किल है मगर वेतन वृद्धि में कमी या ठहराव, खाद्य मुद्रास्फीति के ऊंचे स्तर, परिवारों पर बढ़ रहे कर्ज के बोझ और डेरिवेटिव्स में खुदरा निवशकों को हुए नुकसान पर पैनी नजर रखनी होगी।