कुछ दिन पहले संसद में पारित कृषि विधेयकों पर हुए शोर-शराबे के बीच राजनीतिक बिसात पर एक ऐसा व्यक्ति भी है, जिसने बिल्कुल चुप्पी साध रखी है। यह व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि हाल में ही कांग्रेस से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल हुए नेता एवं सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं। इन विधेयकों पर सिंधिया की राय किसी को मालूम नहीं है, लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि कुछ महीने पहले तक ग्वालियर-गुना-मुरैना इलाके में नरेंद्र सिंह तोमर उनके सबसे बड़े राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी हुआ करते थे। इन विधेयकों को लाने में केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की अहम भूमिका रही है।
तोमर 2019 के लोकसभा चुनाव में मुरैना भेजे गए थे। चुनाव में वह इस सीट से सफल भी रहे। इससे पहले 2014 में उन्होंने ग्वालियर लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा था और कांग्रेस के अशोक सिंह को पराजित किया था। भाजपा में शामिल होने से पहले सिंधिया के निशाने पर तोमर थे और अब कृषि विधेयकों का समर्थन करने पर निश्चित तौर पर थोड़े असहज महसूस कर रहे होंगे। बात यहीं खत्म नहीं होती। सिंधिया के भाजपा में आने के बाद मध्य प्रदेश विधानसभा में 28 सीटें खाली हो गई हैं। इन सीटों पर उप-चुनाव की घोषणा 29 सितंबर को की जाएगी। मध्य प्रदेश की मौजूदा सरकार की स्थिरता के लिए ये चुनाव अहम हैं। इनमें ज्यादातर सीटें ग्वालियर-गुना-मुरैना क्षेत्र में हैं और इनमें भाजपा को जीत दिलाने के लिए सिंधिया को तोमर के साथ मिलकर काम करना होगा। आखिर तोमर हैं कौन और उनकी पृष्ठभूमि क्या है?
मध्य प्रदेश कैडर के एक आईएएस अधिकारी कहते हैं, ‘तोमर उन चीजों से दूर रहते हैं, जहां वह किसी तरह के विवाद में पड़ सकते हैं। तोमर के राजनीतिक करियर में तीन कृषि विधेयक सबसे अधिक विवादित नीतिगत सार्वजनिक मुद्दा साबित हुए हैं।’ तोमर के साथ काम कर चुके एक अधिकारी ने कहा कि वह सबको साथ रखकर चलना पसंद करते हैं। अधिकारी ने कहा, ‘अधिकारियों के साथ वह कभी सख्ती से पेश नहीं आए हैं, लेकिन वह नई बातों को लेकर उतने खुले दिल के भी नहीं हैं।’
इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि केंद्र के बजाय तोमर राज्य की राजनीति में स्वयं को अधिक सहज महसूस करते हैं। हालांकि राज्य में भी अपने क्षेत्र पूर्वी मध्य प्रदेश के बाहर शायद ही उनका दखल रहा है। यह क्षेत्र मोटे तौर पर पिछड़ा है और आदिवासी बहुल है। भोपाल और इंदौर जैसे इलाकों में शहरीकरण बढ़ा है, लेकिन पूर्वी मध्य प्रदेश कृषि संबंधित सूचकांकों पर भी पिछड़ा है। कांग्रेस के सत्ता से बाहर होने के बाद यह क्षेत्र और फिसल चुका है। इस इलाके के रीवा-जिधी से ताल्लुक रखने वाले कांगे्रस के दिवंगत नेता अर्जुन सिंह पिछड़ेपन के खिलाफ आवाज उठाते थे। हालांकि अर्जुन सिंह का जमाना बहुत पहले गुजर चुका है। विजयाराजे सिंधिया के बाद भाजपा का कोई भी बड़ा नेता इस क्षेत्र से निकल कर नहीं आया।
इस क्षेत्र को पिछड़ेपन से उबारने को लेकर चली मुहिम में तोमर का योगदान बहुत अधिक नहीं रहा है। तोमर ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत 1980 में भाजपा के युवा नेता के तौर पर की थी और 1984 तक पार्टी की युवा शाखा की स्थानीय इकाई का नेतृत्व किया था। उन्होंने पहली बार 1998 में राज्य विधानसभा में कदम रखा था। वह 2003 में राज्य सरकार में बतौर मंत्री शामिल हुए थे और 2007 तक इस पद पर रहे। बाद में उन्हें मध्य प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया।
उनके नेतृत्व में पार्टी ने लगातार दो विधानसभा चुनावों में सफलता अर्जित की थी। इससे इतना तो साबित हो गया था कि पार्टी के एक चेहरे के तौर पर अपनी पहचान बनाने के बजाय संगठन के स्तर पर वह अधिक सफल रहे थे। राजनीतिक प्रेक्षक उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर देखते हैं जो अपने अहं को काम के आड़े नहीं आने देते हैं। वर्ष 2014 में तोमर लोकसभा चुनाव में विजयी रहे थे और उस वक्त सबको हैरानी हुई जब उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाया गया। खान, इस्पात, श्रम एवं रोजगार, ग्रामीण विभाग एवं पंचायती राज सहित कई मंत्रालयों का प्रभार उनके पास था। 2019 में पार्टी ने ग्वालियर में उनकी जीत पर मंडराते अनिश्चितता के बादल को देखते हुए उन्हें मुरैना से चुनाव लडऩे के लिए कहा। उन्होंने यह प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया। जब उन्हें कृषि मंत्री बनाया गया तो ज्यादातर लोगों को यही लगा था कि यहां कोई उठापटक होने वाली नहीं है। उन लोगों की बात सही भी थी, लेकिन हाल के घटनाक्रम ने सबकुछ बदल कर रख दिया।
इस बारे में एक अधिकारी ने कहा, ‘वह उतने संवाद कुशल नहीं हैं। यही वजह है कि कृषि सुधार विधेयकों पर इतना हंगामा हुआ है। वह अगर सबको साथ लेकर चलने की अपनी छवि का सहारा लेते हैं तो परिस्थितियां शायद सुधर सकती हैं।’
हालांकि पंजाब और हरियाणा जाने और वहां के किसानों से बात करने के लिए उन्हें थोड़ी मदद की जरूरत होगी। तोमर के दिमाग में आने वाले समय में मध्य प्रदेश की राजनीति होगी। इसकी वजह यह है कि उन्हें और उनके पुराने प्रतिद्वंद्वी सिंधिया को अपने मतभेद भुला कर एक साथ काम करना होगा। तोमर को कुछ समय के लिए अपने मंत्री पद के दायित्व से थोड़ा ध्यान हटाना होगा और वहीं कृषि विधेयकों पर हो रहे विरोध प्रदर्शन की आग बुझाने की जिम्मेदारी किसी दूसरे व्यक्ति को संभालनी होगी।
