इस पार्टी के पास अपना अभी तक कोई चुनाव चिह्न नहीं है (उसे सेब की तस्वीर दी गई थी मगर वह कोई और चिह्न मांग रही है)। इस पार्टी का अभी कोई झंडा भी नहीं है (हालांकि इसके झंडे में गांधी और आंबेडकर की तस्वीर होंगी)। भारतीय निर्वाचन आयोग से इस पार्टी को मान्यता मिलने का काम अभी चल ही रहा है।
लेकिन जनसुराज हौसले और हिम्मत से भरी हुई है। जनसुराज की शुरुआत समाज में बदलाव लाने के मकसद से आंदोलन के तौर पर हुई थी मगर लंबे आंतरिक विमर्श के बाद 2 अक्टूबर को बिहार की राजधानी पटना में इसे राजनीतिक दल का औपचारिक जामा पहना दिया गया।
इसके संस्थापक प्रशांत किशोर पांडेय उर्फ पीके ने इससे पहले राजनीतिक रणनीति बनाने वाली कंपनी आई-पैक की बुनियाद डाली थी। उन्होंने अपनी टीम से कहा है कि बिहार में 243 विधान सभा सीटों के लिए अगले साल होने वाले चुनावों में अगर पार्टी की 130 से कम सीटें आईं तो वे बहुत निराश होंगे। जनता दल (यूनाइटेड) से राज्य सभा सांसद रह चुके और अब जनसुराज के मार्गदर्शक एवं सलाहकार पवन वर्मा कहते हैं, ‘हमें अपने दम पर सरकार बनाने की उम्मीद है। उनका यही लक्ष्य है।’
किशोर ने 2 अक्टूबर, 2022 को पश्चिमी चंपारण के भितिहरवा (जहां गांधी ने 1917 में रोजगार देने योग्य शिक्षा के लिए एक स्कूल स्थापित किया था) से पदयात्रा शुरू की। इस अभियान को काफी सफलता मिली है। अभियान के लिए चरमोत्कर्ष पिछले साल आया, जब जनसुराज समर्थित और शुरुआत से ही पीके से जुड़े अफाक अहमद स्थापित राजनीतिक दलों के सभी उम्मीदवारों को पछाड़ते हुए शिक्षकों के निर्वाचन क्षेत्र से विधान परिषद सदस्य चुन लिए गए।
किशोर और उनके अनुयायी बिहार के 38 जिलों की पदयात्रा कर चुके हैं। पार्टी का दावा है कि उसके 1 करोड़ से अधिक सदस्य हैं। शिक्षित लोगों के विशेषकर सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारियों के बीच इस पार्टी का अधिक प्रभाव है। भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) और भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के लगभग 20 पूर्व अधिकारियों ने बाकायदा भुगतान कर इसकी सदस्यता ली है। आईआईटी मुंबई और दिल्ली से जुड़े और भारत के राजदूत रह चुके मनोज भारती पार्टी के पहले कार्यवाहक अध्यक्ष हैं। उनका ताल्लुक मधुबनी के दलित समुदाय से है।
जनसुराज पर स्थापित पार्टियों की तरह न तो संगठन का बोझ है और न ही वह धड़ों में बंटी है, इसलिए वह शुरू से ही सब कुछ दुरुस्त रखना चाहती है। अगले बिहार विधान सभा चुनावों के लिए उम्मीदवार चुनने के मकसद से बनाई गई समिति ही पार्टी की शीर्ष संस्था है।
वर्मा कहते हैं, ‘सोचा यह गया है कि किसी निर्वाचन क्षेत्र के लोगों को बताया जाएगा कि कौन-कौन चुनाव में खड़ा होना चाहता है। उसके बाद इस बात पर आंतरिक सहमति बनेगी कि जनता किसे खड़ा देखना चाहती है या किसे अपने लिए सबसे अच्छा मानती है। इसलिए प्रत्याशी चुनते समय यह नहीं देखा जाएगा कि कौन किसके करीब है या किसके पास ताकत है। यह मजाक नहीं चलेगा।’
तो क्या यह अमेरिका के प्राइमरी की तरह होगा? वर्मा कहते हैं, ‘एक तरह से, हां। मकसद यह है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया के सबसे उपेक्षित हिस्से यानी असली मतदाता की आवाज सुनी जाए, उनकी प्राथमिकताएं, उनकी पसंद सुनी जाए। यह सब एकदम निचले स्तर से शुरू किया जाए।’
किशोर ने 665 दिन की पदयात्रा के दौरान मतदाताओं की जरूरतें और इच्छाएं समझी हैं, जिनका सार यह समिति है। वह रोजाना करीब 15 किलोमीटर चलते थे। उस दौरान सड़क किनारे रहने वालों से बात करते थे, पेंटिंग, नृत्य और दूसरी तरह की प्रतियोगिताओं का उद्घाटन करते थे और रात में जहां भी ठहरते थे वहां के निवासियों के साथ बैठकें करते थे। जिला मुख्यालयों पर उनके संवाददाता सम्मेलन भी होते थे। उनका साजोसामान एकदम सादा था। उनकी टीम के एक महत्त्वपूर्ण सदस्य संदीप कश्यप कहते हैं कि पीके के लिए टेंट के तीन सेट रखे गए थे।
उन्होंने स्थानीय मीडिया को बताया, ‘एक टेंट वहां के लिए है, जहां वह रुकते हैं। दूसरा वहां लगाया जाता है, जहां उन्हें अगली रात रुकना होता है और तीसरा उससे अगली रात के लिए तैयार रखा जाता है।’
इन संवाददाता सम्मेलनों में समझाया जाता है कि जनसुराज का मकसद क्या है। पीके अपनी पदयात्रा में नाउम्मीदी और उम्मीद की बात करते हैं।
उदाहरण के लिए वह जाति जनगणना का जिक्र करते हैं और सवाल करते हैं कि सच्चर समिति की रिपोर्ट आने के बाद क्या वाकई मुसलमानों की स्थिति सुधरी है। वह बिहार सरकार के जाति सर्वेक्षण का जिक्र करते हुए सवाल करते हैं कि राज्य सरकार की इस गणना के बाद दलित अधिक सशक्त हुए हैं या नहीं। वह सामाजिक न्याय को ही मुद्दा नहीं बनाते बल्कि रोजी-रोटी, बेरोजगारी, शिक्षा तथा स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी और बिहार के चरमराते बुनियादी ढांचे की भी बात करते हैं।
एक जनसभा में वह कहते हैं कि तेजस्वी यादव नवीं फेल हैं और इस बात पर हैरानी जताते हैं कि बिहार की समस्याओं को वह समझ भी कैसे पाएंगे। वह कहते हैं कि बेरोजगारी का समाधान केवल सरकारी नौकरियां नहीं हैं। वह कहते हैं, ‘सरकारी नौकरियों की कुल संख्या केवल 23 लाख है, जो बिहार की आबादी का सिर्फ 1.5 प्रतिशत है।’ वह कहते हैं कि बिहार का ऋण-जमा अनुपात (सीडी रेश्यो) करीब 53 प्रतिशत है, जो सभी राज्यों के सीडी रेश्यो में सबसे कम है। इसके अलावा बिहारियों द्वारा बैंकों में जमा की गई लगभग 2 लाख करोड़ रुपये की जमा राशि राज्य से बाहर चली जाती है।
वह कहते हैं, ‘उत्तराखंड जैसे बहुत छोटे राज्य का जीएसटी संग्रह बिहार से अधिक है। फिर भी नीतीश और लालू इन समस्याओं को नजरअंदाज करते आए हैं।’ जब पीके ने पार्टी शुरू की थी तो पहली सभा में वादा किया था कि उनकी पार्टी सत्ता में आई तो उसका पहला निर्णय शराबबंदी समाप्त करना होगा ताकि राजस्व के मोर्चे पर अधिक नुकसान न हो।
वर्मा कहते हैं कि बिहार के विकास की तुलना पूरे भारत के मानकों से नहीं बल्कि गुजरात के पैमानों से की जाती है। किशोर सवाल करते हैं कि विकास के सभी लाभ गुजरात को ही क्यों मिल रहे हैं। उनकी पार्टी का लक्ष्य बिहारी पहचान बनाने का भी है।
पार्टी शुरू करने के बाद जनसभा में किशोर ने कहा, ‘आप सभी को इतनी जोर से ‘जय बिहार’ कहना होगा कि कोई भी आपको और आपके बच्चों को ‘बिहारी’ नहीं बुलाए और इसे गाली के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जाए। आपकी आवाज दिल्ली तक पहुंचनी चाहिए। बंगाल तक भी पहुंचनी चाहिए जहां बिहार के छात्रों को पीटा गया था। आपकी आवाज तमिलनाडु, दिल्ली, मुंबई और हर उस जगह तक पहुंचनी चाहिए, जहां बिहारी बच्चों को अपमानित किया गया और पीटा गया…।’
जदयू, राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) जैसी जमी-जमाई पार्टियां इस नई राजनीतिक पार्टी को खारिज कर रही हैं और इसमें कोई ताज्जुब की बात भी नहीं है। राजद के प्रवक्ता शक्ति सिंह यादव कहते हैं, ‘यह भाजपा का ही प्रोजेक्ट है और उसी का छोटा सा प्यादा है। इसका एक ही मकसद है, उन सभी पार्टियों के वोट काटो, जो भाजपा का विरोध कर रही हैं।’ जदयू इसे भाजपा की बी टीम कहती है।
बिहार की राजनीति पर जनसुराज का प्रभाव आंकने का कोई तरीका नहीं है। लेकिन राज्य के प्रशासनिक सेवा अधिकारी इसकी प्रगति को बेहद दिलचस्पी लेकर देख रहे हैं। इनमें से एक ने नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा, ‘जनसुराज के लिए आकर्षण तो बेशक बढ़ रहा है। प्रशांत किशोर एकदम अलग बातें कर रहे हैं, जो बिहार के लोगों ने पहले कभी सुनी ही नहीं है। मुझे यह बिल्कुल नहीं लगता कि वे पुरानी पार्टियों का सूपड़ा साफ कर देंगे मगर उन्हें नुकसान तो जरूर पहुंचाएंगे और सबसे ज्यादा खतरा जदयू को हो सकता है।’