नैशनल पीपल्स पार्टी (एनपीपी) के अध्यक्ष और मेघालय के मुख्यमंत्री कॉनराड संगमा ने मणिपुर की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) नीत सरकार से समर्थन वापस ले लिया। राज्य की 60 सदस्यीय विधान सभा में भाजपा के 32 विधायक हैं। सात विधायकों वाली एनपीपी के पीछे हटने से पूर्ण बहुमत वाली सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ा है।
विशेष बात यह है कि एनपीपी असम के मुख्यमंत्री हिमंत विश्व शर्मा द्वारा पूर्वोत्तर राज्यों के लिए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की तर्ज पर बनाए गए राजनीतिक मोर्चे नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक एलायंस से अलग नहीं हुई है। पार्टी उन गठबंधन सरकारों में भी बनी साझेदार है, जिनमें भाजपा शामिल है।
मेघालय में 31 विधायकों वाली एनपीपी सरकार को भाजपा के दो विधान सभा सदस्यों का भी समर्थन प्राप्त है। नागालैंड में एनपीपी के 5 एमएलए हैं और वह नैशनल डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) के नेतृत्व वाली सरकार का हिस्सा है। इसी प्रकार अरुणाचल प्रदेश में पांच सदस्यों वाली एनपीपी भाजपा नीत सरकार में हाथ बंटा रही है।
मणिपुर में एनपीपी अध्यक्ष कॉनराड संगमा की मांग है कि भाजपा एन. बीरेन सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाए तो वह सरकार को दोबारा समर्थन देने के लिए तैयार हैं। भले ही संगमा सरकार से हटने को अपने दिल की आवाज पर उठाया गया कदम बता रहे हों, लेकिन इसमें भी राजनीति और स्वार्थ झलकता है। मणिपुर के जिरीबाम जिले में हिंसा की हाल की घटनाओं में कम से कम 19 लोग मारे गए हैं। मणिपुर में लगभग 50 फीसदी आबादी मैतेई समुदाय की है।
मणिपुर हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को इस समुदाय को जनजाति का दर्जा दिए जाने की मांग पर विचार करने की बात कही थी। इसी आधार पर जब मैतेई लोगों ने सरकार के समक्ष अपनी आवाज उठाई तो राज्य के अन्य जनजातीय समूहों के साथ 2023 में व्यापक स्तर पर हिंसा भड़क उठी।
मैतेई समुदाय को आरक्षण की व्यवस्था किए जाने का मतलब होगा कि राज्य के कुकी-जो और नागा जैसे दो प्रमुख जनजातीय समुदायों के लिए शिक्षा और सरकारी नौकरियों में मिले आरक्षण में से उसे भी हिस्सा दिया जाएगा। बस, इसी को लेकर पूरे पूर्वोत्तर में स्थिति बिगड़ गई। मैतेई समुदाय के लोग असम, त्रिपुरा, नागालैंड, मेघालय और मिजोरम में रहते हैं, लेकिन मणिपुर में इनकी संख्या सबसे ज्यादा है।
कुकी-जो समुदाय के लोग भी पूरे पूर्वोत्तर क्षेत्र में फैले हैं। इस जनजाति की जड़ें चूंकि म्यांमार की चिन जनजाति से मिलती हैं, इसलिए इस पड़ोसी देश में जब से तख्तापलट हुआ है तब से बड़ी संख्या में शरणार्थी वहां से भारत आ रहे हैं। इससे मैतेई समुदाय में यह भय घर कर गया है कि यदि इसी तरह शरणार्थी आते रहे तो कुकी-जो की संख्या राज्य में उनसे ज्यादा हो जाएगी।
मणिपुर में होने वाली घटनाओं पर असम समेत पूर्वोत्तर के सभी राज्यों ने संज्ञान लिया है। सभी चाहते हैं कि हिंसा रुकनी चाहिए, लेकिन इस बात को लेकर मतभेद हैं कि यह काम किस प्रकार अंजाम दिया जाए। हथियारों से लैस उग्रवादी समूह क्षेत्र में सभी सरकारों के लिए संकट का सबब बने हुए हैं। लेकिन, संगमा के समक्ष दोहरी चुनौती है। हिंसा की बढ़ती घटनाओं के विरोध में अपनी पार्टी और स्वयं के हितों के लिए कुछ भी निर्णय लेते समय उन्हें अपने वोट बैंक को ध्यान में रखना होगा।
मणिपुर सरकार में साझेदार होने के बावजूद संगमा के विधायक सभी प्रकार के लाभ से वंचित हैं। उनमें से अधिकांश ने राज्य की भाजपा सरकार को समर्थन जारी रखने की बात कही है। लेकिन, वर्ष 2007 से 2012 तक मणिपुर के पुलिस महानिदेशक, एन. बीरेन सिंह के नेतृत्व वाली पहली सरकार में मंत्री रहे और अब एनपीपी के उपाध्यक्ष वाई जॉय कुमार जैसे नेताओं का मानना है कि भाजपा सरकार को समर्थन जारी रखने से उनकी पार्टी गर्त में चली जाएगी।
गारो जनजाति से ताल्लुक रखने वाले संगमा अच्छी तरह जानते हैं कि मणिपुर में असुरक्षित महसूस कर रहे कुकी-जो जनजाति के लोगों को मेघालय में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वह यह भी जानते हैं कि यदि पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में अपनी पार्टी एनपीपी का विस्तार करना है तो सहानुभूति के साथ इस जनजाति को साथ लेकर चलना ही होगा।
इसीलिए संगमा सरकार ने अपने शीर्ष अधिकारियों को निर्देश दिया कि वे कुकी-जो समुदाय के उन लोगों की मदद करें, जो मणिपुर से भाग कर मेघालय आ गए हैं। उन्होंने नई दिल्ली से भी यह इच्छा जाहिर की थी कि वह विभिन्न समूहों के बीच बातचीत के लिए मध्यस्थता करना चाहते हैं ताकि निष्पक्ष तरीके से उनकी समस्याओं को समझ कर पूरी तरह दूर किया जा सके। इसमें एक-एक शब्द बड़ी ही सावधानी से चुना गया था, ताकि किसी के दिल को ठेस न पहुंचे। लेकिन, उनकी इस अपील का कोई असर नहीं हुआ।
उल्टे मणिपुर के मुख्यमंत्री ने उनकी पार्टी के सदस्यों को सरकार में किसी भी प्रकार की सलाह-मशविरे की प्रक्रिया से दूर कर दिया और हिंसा की छिटपुट घटनाओं को दबाने के लिए अर्धसैनिक बलों का इस्तेमाल किया। धीरे-धीरे कानून-व्यवस्था की स्थिति इतनी बिगड़ गई कि इस महीने की शुरुआत में गृह मंत्री अमित शाह को महाराष्ट्र में अपना चुनावी अभियान छोड़कर मणिपुर जाना पड़ा।
पूर्वोत्तर की राजनीति में कॉनराड संगमा कोई अनजान चेहरा नहीं हैं। आप कह सकते हैं कि उत्तर-पूर्व के राज्यों की राजनीति उनकी रग-रग में समाई है। उनके पिता पीए संगमा वर्षों तक कांग्रेस में हैसियत वाले नेता रहे। कॉनराड को भी युवा और महत्त्वाकांक्षी राजनेता माना जाता है जो पूर्वोत्तर के राजनीतिक पटल पर नाम कमाना चाहते हैं। वह स्थानीयता पहचान और धर्म के लिए भी काफी मुखर होकर आवाज उठाते हैं। उन्होंने यूनिफार्म सिविल कोड का भी खुलकर विरोध किया और तर्क दिया कि यह गलत है, क्योंकि यह मेघालय की संस्कृति से मेल नहीं खाता है।
उन्होंने नागरिकता (संशोधन) विधेयक का भी विरोध किया और मांग की कि मेघालय एवं असम को सीएए से अलग रखा जाए। मालूम हो कि मेघालय में ईसाई समुदाय की जनसंख्या अधिक है। यह जानते हुए कि मणिपुर सरकार को उनका समर्थन व्यापक तौर पर अप्रांसगिक ही है और सरकार से हटने पर उनके विधायक भाजपा के पाले में भी जा सकते हैं, जिससे उन्हें भारी राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ सकता है, इसके बावजूद संगमा ने अपने मौजूदा कदम से एक बड़ा दांव खेला है। कुकी-जो समुदाय की नजर में उनकी अहमियत काफी बढ़ गई है। उनका रुख कितना कारगर साबित होगा, यह तो भविष्य ही बताएगा।