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सियासी हलचल: समान नागरिक संहिता और आदिवासी

भाजपा के वर्ष 2024 के चुनावी घोषणापत्र में यूसीसी के आने से पहले से ही आदिवासी समूह के नेताओं ने गृह मंत्री अमित शाह और सरकार के शीर्ष अधिकारियों से मिलना शुरू कर दिया था।

Last Updated- June 21, 2024 | 9:16 PM IST
uniform civil code

भारत में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) का मुद्दा विवादों से अछूता नहीं रहा है। इन्हीं विवादों के बीच एक प्रश्न यह भी उठ रहा है कि भारत में आदिवासी समुदाय इस बात से कितने भयभीत हैं कि समान नागरिक संहिता (यूसीसी) उनसे उनकी पहचान छीन लेगी और एक विशिष्ट समुदाय के रूप में उन पर सवालिया निशान लगा देगी? अगर 2024 के लोक सभा चुनाव के नतीजों पर विचार करें तो इस प्रश्न का उत्तर देना और जटिल हो जाता है।

ठीक एक वर्ष पहले विधि आयोग ने धर्म, रीति-रिवाज और परंपराओं पर आधारित व्यक्तिगत कानूनों की जगह जाति, संप्रदाय, यौन रुझान एवं लिंगभेद से इतर एक साझा कानून लाने के प्रस्ताव पर सार्वजनिक प्रतिक्रियाएं मांगी थीं। व्यक्तिगत कानून और विरासत, गोद लेने और उत्तराधिकार से जुड़े कानून एक समान संहिता में लाए जाने का प्रस्ताव था। जून 2019 तक इस विषय पर सरकार को लगभग 19 लाख सुझाव मिले थे। अब लोक सभा चुनाव खत्म होने के बाद भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कार्यकर्ता लोगों को व्हाट्सऐप पर संदेश भेजकर उन्हें यूसीसी के लिए ‘हां’ के पक्ष में राय देने के लिए कह रहे हैं।

भाजपा के वर्ष 2024 के चुनावी घोषणापत्र में यूसीसी के आने से पहले से ही आदिवासी समूह के नेताओं ने गृह मंत्री अमित शाह और सरकार के शीर्ष अधिकारियों से मिलना शुरू कर दिया था। इन समूहों के नेता आदिवासियों को यूसीसी के दायरे से बाहर रखे जाने की मांग कर रहे थे। भाजपा सांसद, एक गैर-आदिवासी नेता एवं विधि पर स्थायी समिति के अध्यक्ष दिवंगत सुशील कुमार मोदी ने एक बार सार्वजनिक रूप से कहा था कि वह व्यक्तिगत तौर पर महसूस करते हैं कि पूर्वोत्तर के आदिवासियों को यूसीसी की जद से बाहर रखा जाना चाहिए।

मोदी ने पूर्वोत्तर राज्यों के मुख्यमंत्रियों जैसे कोर्नाड संगमा (मेघालय के मुख्यमंत्री एवं राजग के घटक दल के नेता) की मांग के साथ सहमति जताई थी। संगमा का मानना है कि यूसीसी से भारत की ताकत माने जाने वाली इसकी विविधता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। नगालैंड और मिजोरम विधानसभाओं में पारित प्रस्तावों में कहा गया है कि उन्हें यूसीसी के दायरे से बाहर रखा जाए। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार मिजोरम, नगालैंड में आदिवासी समुदायों की आबादी क्रमशः 94.4 प्रतिशत, 86.5 प्रतिशत और 86.1 प्रतिशत है। मिजो समुदाय के लोग अनुच्छेद 371 (जी) के अंतर्गत अपने व्यक्तिगत कानूनों की सुरक्षा का हवाला दे रहे हैं।

परंतु, भारत में सदैव किंतु-परंतु तो लगा ही रहता है। झारखंड के भाजपा नेता सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर रहे हैं कि यूसीसी के लिए आदिवासियों के मन में बैठे डर का नुकसान लोक सभा चुनाव में हुआ है। भाजपा राज्य की 14 में 8 सीटों पर जरूर विजयी रही मगर, इसके उम्मीदवारों की जीत का अंतर वर्ष 2019 के लोक सभा चुनाव की तुलना में कम रह गया। पार्टी को एक तरह से दोहरा झटका लगा। पहली बात तो उसका मत प्रतिशत 2019 के 51.6 प्रतिशत से घट कर 44.58 प्रतिशत रह गया और दूसरी बात यह कि आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों पर यह एक भी सीट नहीं जीत पाई।

झारखंड में भाजपा को हुए नुकसान के दो बड़े कारण बताए जा रहे हैं। इनमें एक है भ्रष्टाचार के मामले में पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी और दूसरा है यूसीसी का मंडराता खतरा। आदिवासी समूह ‘सरना’ की सुरक्षा के मुद्दे पर सक्रिय रहे हैं। सरना एक पुरानी प्रथा है जिसमें आदिवासी वन, पहाड़, मवेशी, जीव-जंतु आदि की पूजा करते हैं। आदिवासी समन्वय समिति महिलाओं के अधिकारों, विरासत एवं दत्तक ग्रहण आदि मुद्दों पर आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए लोगों को एकजुट करने में आगे रही है। आदिवासियों के बीच ईसाई धर्म की भी पैठ धीरे-धीरे बढ़ रही है जिससे मामला और पेचीदा हो जाता है।

हालांकि, इतना कुछ होने के बाद भी मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में हालात बिल्कुल अलग दिखे। मध्य प्रदेश में आदिवासियों सहित सभी लोगों ने भाजपा को दिल खोलकर वोट दिए। पार्टी को राज्य की 29 लोकसभा सीटों में सभी पर जीत हासिल हुई। लोक सभा चुनाव से पहले कुछ महीने पहले हुए राज्य विधान सभा चुनाव में भी भाजपा कुल 230 सीटों में 163 झटकने में कामयाब रही। भाजपा को विधान सभा में इससे पहले कभी इतना प्रचंड बहुमत नहीं मिला था। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश दोनों में मिलाकर कुल 76 विधान सभा सीटें आदिवासी समुदायों के लिए आरक्षित हैं। वर्ष 2018 में भाजपा को इनमें 19 सीटों पर जीत मिली थी और 2013 में यह संख्या बढ़कर 44 हो गई। इनमें अधिकांश सीटें पहले कांग्रेस के पास थीं।

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा के उम्दा प्रदर्शन से एक और महत्त्वपूर्ण प्रश्न खड़ा होता है। वह प्रश्न यह है कि अगर झारखंड में आदिवासी यूसीसी के कारण अपनी पहचान के संकट से इतने भयभीत हैं तो यही भय मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा को वोट देने वाले आदिवासी मतदाताओं में क्यों नहीं दिखा? या फिर आदिवासी बहुल ओडिशा में क्यों बाजी भाजपा के हाथ लगी जहां उसने राज्य की 21 लोक सभा सीटों में 20 पर परचम लहरा दिया और राज्य में पहली बार सरकार भी बना ली?

First Published - June 21, 2024 | 9:16 PM IST

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