गोवा (GOA) में वर्ष 2027 में विधानसभा चुनाव होंगे, परंतु राज्य की सत्ता पर विराजमान भारतीय जनता पार्टी (BJP) के लिए कहीं न कहीं चिंता का कारण अभी से ही दिखने लगा है। गोवा में दो संसदीय सीट-दक्षिण गोवा और उत्तर गोवा- हैं।
लोक सभा चुनाव में दक्षिण गोवा की सीट ने भाजपा को तगड़ा झटका दिया। पार्टी को लगा था कि उसने पल्लवी डेम्पो को उम्मीदवार बनाकर शानदार सियासी चाल चली है। भाजपा उम्मीद कर रही थी कि एक नए चेहरे (डेम्पो) के साथ वह कांग्रेस (Congress) को उसके मजबूत गढ़ से से एक बार फिर बाहर का रास्ता दिखा देगी।
कांग्रेस ने दक्षिण गोवा (South Goa) की सीट पर दस बार कब्जा जमाया है, जबकि भाजपा को 1999 और 2014 में इस पर जीत हासिल हुई थी। डेम्पो का नाम स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सुझाया था (मोदी ने सैन्कोलो में उनके लिए प्रचार भी किया था)।
डेम्पो राज्य में किसी संसदीय क्षेत्र से चुनावी मैदान में उतरने वाली पहली महिला थीं और उनका नाम भी गोवा के लोगों के लिए नया नहीं था। वह एक ऐसे परिवार से संबंध रखती हैं, जो खनन, जहाज निर्माण, खेल और रियल एस्टेट क्षेत्र से जुड़ा है। अपने शपथ पत्र में डेम्पो ने 255.44 करोड़ रुपये मूल्य की परिसंपत्तियों का ब्योरा दिया था। उनके पति श्रीनिवास डेम्पो ने 998.83 करोड़ रुपये की परिसंपत्तियों की घोषणा की थी।
इनमें ज्यादातर परिसंपत्तियां 81 कंपनियों में शेयरधारिता और कुछ बड़े ब्रांड एवं बैंकों से खरीदे गए बॉन्ड के रूप में थीं। डेम्पो दंपति के दुबई और लंदन में घर हैं। शपथ पत्र के अनुसार उनके पास महंगी कारें, आभूषण और अन्य निवेश भी हैं।
कांग्रेस ने डेम्पो के आगे कैप्टन विरियाटो फर्नांडिस को अपना उम्मीदवार बनाया था। फर्नांडिस भारतीय नौसेना में 26 वर्षों तक सेवा देने के बाद सेवानिवृत्त हुए थे। उन्हें उनकी सेवा के लिए कई प्रशस्ति पत्र भी मिले हैं और करगिल युद्ध में भी उन्होंने परोक्ष रूप से भूमिका निभाई थी जब भारतीय नौसेना ने ऑपरेशन तलवार चला कर पाकिस्तानी बंदरगाहों को घेर लिया था ताकि वह अपने सैनिकों तक कोई मदद नहीं पहुंच पाए।
फर्नांडिस ने दक्षिण गोवा (South Goa) सीट पर 13,000 मतों से जीत दर्ज की। भाजपा उत्तर गोवा (North Goa) की सीट अपने पास रखने में कामयाब रही और उसका उम्मीदवार यहां 1 लाख वोट से जीत गया।
परंतु, दक्षिण गोवा की सीट दिलचस्प है, क्योंकि यहां ईसाई समुदाय की बड़ी आबादी है। उदाहरण के लिए साल्सेट में 40 फीसदी आबादी ईसाइयों की है। गोवा के मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सदानंद तनावड़े सहित भाजपा नेताओं ने दक्षिण गोवा सीट पर हार के लिए ईसाइयों की बहुसंख्यक आबादी और ईसाई ‘धर्मगुरुओं’ की भूमिका को जिम्मेदार बताया।
गोवा के कैथोलिक चर्च के प्रधान फिलिप नेरी फराओ ने अनुयायियों से उन लोगों के पक्ष में मत देने के लिए कहा जो ‘संविधान में वर्णित’ मूल्यों का पालन करते हैं। मगर सच्चाई थोड़ी अधिक पेचीदा है।
वर्ष 2022 में राज्य विधानसभा चुनाव में जीतने वाले कांग्रेस के 11 विधायकों में से 8 भाजपा में शामिल हो गए, जिससे राज्य विधानसभा में इसके (BJP) सदस्यों की संख्या बढ़कर 33 तक पहुंच गई। राज्य विधानसभा में कुल 40 सीटें हैं। इन आठ विधायकों में तीन बड़े नाम दक्षिण गोवा की विधानसभा सीटों से चुने गए थे।
उदाहरण के लिए दिगंबर कामत और एलेक्सियो सिक्वेरा साल्सेट तालुका की सीटों का प्रतिनिधित्व करते हैं। आंकड़ों पर गौर करने के बाद पता चलता है कि भाजपा ने इन विधानसभा क्षेत्रों में खराब प्रदर्शन किया। दिगंबर कामत राज्य के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं। मडगांव उनका गढ़ समझा जाता है जहां डेम्पो लगभग 1,000 वोट से फर्नांडिस से आगे रहीं।
इसकी तुलना में फर्नांडिस को साल्सेट तालुका के आठ विधानसभा क्षेत्रों में डेम्पो से 60,000 अधिक वोट मिले, जिससे उन्हें अजेय बढ़त मिल गई।
चर्च ने मतदाताओं को कितना प्रभावित किया और दल-बदल करने वाले नेताओं से जनता कितनी निराश हुई यह कहना मुश्किल है। मगर काफी हद तक स्थिति साफ है क्योंकि भाजपा को उत्तर गोवा सीट पर भले ही बड़े अंतर से जीत मिली हो, लेकिन जिन विधानसभा क्षेत्रों पर पाला बदलने वाले विधायकों का दबदबा था वहां भाजपा का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा।
लिहाजा, इससे भाजपा एक सबक यह ले सकती है कि आप कभी-कभी थोड़ी होशियारी दिखाने के चक्कर में बड़ा नुकसान उठा लेते हैं। राज्य में राजनीतिक दलों में फूट डालकर ’स्थिर’ सरकार बनाई जा सकती है, मगर फिर लोक सभा में लोग वह कर सकते हैं, जो उन्होंने दक्षिण गोवा सीट पर किया।
राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर ने गोवा में 2014 में चर्च को साथ लेकर भाजपा की जीत की पटकथा लिखी थी। भाजपा ने 2012 के विधानसभा चुनाव में भी ईसाई समुदाय के साथ जुड़ने की पहल की थी जब पर्रिकर ने विकास आधारित एजेंडे के नाम पर कैथलिक चर्च को साथ लिया था।
उदाहरण के लिए उस समय राज्य सरकार ने चर्च संचालित 127 अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को राज्य की तरफ से अनुदान दिया था। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के विचारों के खिलाफ था।
आरएसएस के एक नेता भाजपा की इस पहल से सहमत नहीं दिखे और बाद में उन्होंने आरएसएस-भाजपा का साथ छोड़ कर अपने दम पर चुनाव लड़ा, मगर उन्हें करारी शिकस्त मिली।
अगर भाजपा राज्य में और नुकसान नहीं उठाना चाहती है तो वह ‘धर्मगुरुओं’ की भूमिका पर टीका-टिप्पणी करने के बजाय पर्रिकर के कदम से कुछ सीख सकती है। जोड़-तोड़ के दम पर जुटाया गया बहुमत राजनीतिक नुकसान का कारण भी बन सकता है।