शिवराज सिंह चौहान जब से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार में कृषि एवं ग्रामीण विकास मंत्री का पद संभालने के लिए भोपाल से दिल्ली गए हैं, वह थोड़ा अकेलापन महसूस कर रहे हैं और इसमें उनका कुसूर भी नहीं है। जब वह भोपाल से विदा हुए तो उनके चाहने वालों की आंखें नम थीं। सैद्धांतिक तौर पर देखें तो उनको दिल्ली बुलाकर केंद्रीय मंत्री बनाया जाना उनके कदम में एक बड़े इजाफे की तरह था। उनके दोनों मंत्रालयों को एक साथ रखें तो देश के कुल सालाना बजट में से 4.15 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा उन्हीं को आवंटित होते हैं।
मगर बीते कुछ महीनों से जब दिल्ली की सीमाओं पर किसानों का प्रदर्शन और कृषि कीमतों की गारंटी की उनकी मांग निरंतर जारी है, उसी बीच वे लोग भी उनके काम पर तंज कस देते हैं, जिन्हें इन मंत्रालयों या इनके कामकाज के बारे में कुछ मालूम ही नहीं है। दिल्ली की सीमा पर हड़ताल कर रहे किसानों को जब चौहान ने बातचीत के लिए कृषि भवन आमंत्रित किया तब हिमाचल प्रदेश में मंडी की सांसद कंगना रनौत ने किसानों को ‘अलगाववादी’ बोल दिया।
सरकार द्वारा जारी विज्ञप्ति के मुताबिक चौहान ने किसानों से कहा था कि कृषि देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ और किसान उसकी आत्मा हैं तथा किसानों की सेवा ईश्वर की सेवा के बराबर है। कृषि मंत्री चौहान को गत 13 दिसंबर को एक सार्वजनिक कार्यक्रम में सफाई देते हुए कहना पड़ा था, ‘जगदीप धनखड़ एक किसान के बेटे हैं इसलिए वह दुखी हैं। हमने किसानों की समस्याओं को हल करने के लिए ईमानदारी से कोशिश की है। किसानों ने महाराष्ट्र में सोयाबीन कीमतों को लेकर चिंता प्रकट की और हमने कीमतें बढ़ा दीं। इसी प्रकार जब उन्होंने चावल के निर्यात शुल्क को लेकर शिकायत की तो हमने उसे कम कर दिया।’
चौहान को यह सफाई इसलिए देनी पड़ी कि मुंबई में केंद्रीय कपास प्रौद्योगिकी शोध संस्थान (सीआईआरसीओटी) के शताब्दी समारोह में हुए एक आयोजन में चौहान की मौजूदगी में धनखड़ ने किसानों को लेकर कुछ तीखे सवाल किए थे। चौहान की सफाई का वीडियो सार्वजनिक रूप से मौजूद है।
धनखड़ ने कहा था, ‘क्या हम किसानों और सरकार के बीच कोई लकीर खींच सकते हैं? मुझे समझ नहीं आता कि किसानों के साथ बातचीत क्यों नहीं हो रही है। मेरी चिंता यह है कि अब तक यह काम क्यों नहीं हुआ है?’
उन्होंने कृषि मंत्री से सवाल किया था कि क्या उनके पूर्ववर्ती मंत्री ने प्रदर्शनकारी किसानों को कोई लिखित आश्वासन दिया था और क्या वे वादे अधूरे थे? बाद में शायद चौहान के संबंधों को ठीक करने के लिए उपराष्ट्रपति ने उन्हें राज्य सभा में किसानों का ‘लाड़ला’ कहकर संबोधित किया था। उधर, मध्य प्रदेश में सरकार ऐसे निर्णय ले रही है जो उसे व्यापक रूप से राज्य के हित में प्रतीत होते हैं। राज्य सरकार द्वारा हाल ही में रातापानी वन्यजीव अभयारण्य को टाइगर रिजर्व में बदलने का फैसला भी ऐसा ही एक उदाहरण है।
पहली नजर में यह निर्णय ठीक ही लगता है। आखिर अभयारण्य पिछले 16 वर्षों से टाइगर रिजर्व बनने की प्रतीक्षा कर रहा था। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकार (एनटीसीए) अगस्त 2008 में ही इस प्रस्ताव को सैद्धांतिक मंजूरी दे चुका था। कमल नाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने 2019 में इसे टाइगर रिजर्व बनाने की अधिसूचना जारी की, लेकिन मार्च 2020 में जब शिवराज सिंह चौहान दोबारा सत्ता में आए तो अधिसूचना रद्द कर दी गई।
चौहान ही इस अभयारण्य को टाइगर रिजर्व बनने से रोकना चाहते थे, इसका और बड़ा सबूत क्या हो सकता है। मगर चौहान ऐसा क्यों चाहते थे? इसकी वजह यह थी कि रातापानी इलाके में करीब 100 गांव हैं, जिनका पुनर्वास करना होगा और यह पूरा इलाका सीहोर जिले में आता है जो चौहान का गृह क्षेत्र भी है। अगर रातापानी टाइगर रिजर्व बन गया तो इस इलाके की जमीन, जंगलों और उपज पर सख्त किस्म के प्रतिबंध लागू हो जाएंगे। सियासी तौर पर चौहान को यह बात रास नहीं आएगी।
बहरहाल अब यह फैसला हो गया है और चौहान तथा यादव के आपसी रिश्ते में असहजता का यह केवल एक नमूना है। चौहान के समर्थक इस बात से खासे चिंतित हैं कि उनका ‘साम्राज्य’ एक ऐसे व्यक्ति के हाथों में जा रहा है, जो चौहान सरकार में बस एक मामूली मंत्री था। यादव ने खुद स्वीकार किया है कि विधायक दल की बैठक में जब मुख्यमंत्री पद के लिए उनका नाम पुकारा गया तब वह विधायकों की तीसरी कतार में बैठे थे।
इसलिए अब चौहान कब भोपाल पहुंचते हैं और कब वहां से निकल जाते हैं, किसी को पता नहीं चलता। अब कोई इसे बड़ी या खास बात नहीं मानता।
चौहान के लिए यह सब बहुत परेशान करने वाला रहा होगा क्योंकि वह 16 साल से ज्यादा वक्त तक मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे, उन्हें राज्य में सोयाबीन क्रांति लाने का श्रेय दिया जाता है और उन्होंने अहम बुनियादी ढांचा तैयार किया है। उनकी लाड़ली बहना योजना ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव जिताया और उसके बाद ऐसी ही योजनाएं दोहराते हुए पार्टी ने कई राज्यों के चुनाव जीते हैं।
मध्य प्रदेश में भाजपा का सबसे अच्छा प्रदर्शन 2003 में रहा था, जब 230 सदस्यों वाली विधानसभा में उसने 173 सीटें जीती थीं। 2018 में पार्टी ने 109 सीटें जीती थीं मगर अपने समर्थकों समेत कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आने के ज्योतिरादित्य सिंधिया के फैसले ने चौहान को फिर मुख्यमंत्री बना दिया।
2024 के लोक सभा चुनाव में चौहान के नेतृत्व में भाजपा ने मध्य प्रदेश में सभी 29 सीटें जीत लीं। इनमें छिंदवाड़ा की सीट भी शामिल थी, जो 1998 से भाजपा की पहुंच से बाहर थी। चौहान खुद विदिशा से 8 लाख से अधिक वोटों से जीते। इसलिए उनके समर्थक मानते हैं कि उन्हें और बड़ी जिम्मेदारी मिलनी चाहिए थी।
अब आगे क्या? चौहान को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पूरा समर्थन हासिल है। पार्टी का नया राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना जाना है और उस पद के लिए चौहान भी दावेदार हो सकते हैं। उनकी अलग राजनीतिक शैली है, जिसमें वह किसी के साथ विवाद में नहीं उलझते। किसी ने उन्हें कभी ऊंची आवाज में बोलते भी नहीं सुना मगर कई मौकों पर वह दिखा चुके हैं कि उन्हें अपने तरीके से काम करना ही पसंद है। उनकी अधीरता उनकी फीकी मुस्कान के पीछे छिपी रहती है मगर उन्हें हाशिये पर नहीं धकेला जा सकता। हो सकता है कि असली समस्या यही हो।