प्रदूषक तत्त्वों से भरी हवा आमतौर पर पंजाब से दिल्ली की दिशा में बहती है। इस बार दिल्ली की सीमाओं पर किसानों के खिलाफ इस्तेमाल किए जा रहे आंसू गैस के गोले भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के उन लोगों की सोच और नजर को धुंधला कर सकते हैं जो पंजाब में पार्टी और शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) के बीच दोबारा गठबंधन को लेकर बातचीत कर रहे हैं।
वर्ष 2020 में जब पिछली बार किसान आंदोलन हुआ था तब एसएडी के मुखिया प्रकाश सिंह बादल (अब दिवंगत) और एसएस ढींढसा ने अपने पद्मभूषण पुरस्कार वापस लौटा दिए थे। उन्होंने किसानों के साथ सरकार के व्यवहार का विरोध करते हुए ऐसा किया था। किसानों के आंदोलन के इस दूसरे दौर का सबसे बड़ा नुकसान दोनों दलों के गठजोड़ को होगा।
इसका अर्थ यह होगा कि शायद एसएडी को पंजाब की 13 लोक सभा सीट में से एक या दो पर जीत मिल जाए लेकिन भाजपा के लिए तो अपना खाता खोलना भी मुश्किल होगा। वर्ष 2019 के लोक सभा चुनाव में भाजपा को होशियारपुर और गुरदासपुर के रूप में दो सीट पर जीत मिली थी। उस चुनाव में भाजपा और एसएडी के बीच गठजोड़ था। यह सही है कि तब से अब तक उसका स्वतंत्र मत प्रतिशत बढ़ा है लेकिन आम आदमी पार्टी (आप) जो पंजाब में सत्ता में है, वह भी बहुत अधिक लोकप्रिय है।
पंजाब में पिछला लोक सभा चुनाव गत मई में जालंधर सीट के लिए हुआ उपचुनाव था। भाजपा को 16 फीसदी वोट मिले थे जबकि एसएडी को 18 फीसदी वोट मिले थे। दोनों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था। आप को 34 फीसदी वोट मिले थे जबकि 2019 के लोक सभा चुनाव में इसी सीट पर पार्टी को केवल 2.5 फीसदी मत मिले थे।
अब किसान आंदोलन के दूसरे दौर की शुरुआत के बाद एसएडी भाजपा के साथ किसी गठबंधन को लेकर जल्दबाजी में नहीं है। ढींढसा, जो एक समय एसएडी के महासचिव और पांच बार मुख्यमंत्री रहे प्रकाश सिंह बादल के करीबी के रूप में पार्टी में नंबर दो की हैसियत रखते थे, उन्होंने 2017 के विधानसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन का हवाला देते हुए पार्टी छोड़ दी थी।
हालांकि उनकी नाराजगी की मूल वजह थी सुखबीर सिंह बादल को उनके पिता द्वारा बढ़ावा दिया जाना। ढींढसा ने पार्टी के राज्य सभा सदस्य के रूप में इस्तीफा दे दिया था जबकि उनके बेटे परमिंदर जो एसएडी-भाजपा सरकार में वित्त मंत्री थे, उन्होंने पार्टी से ही इस्तीफा दे दिया था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ढींढसा के पार्टी से बाहर जाने के बारे पर टिप्पणी करते हुए एसएडी में एक परिवार के शासन पर व्यंग्य करते हुए लोक सभा में कहा था, ‘बादल साहब के असली वारिस हमारे साथ बैठे हैं।’ अब खबरें आ रही हैं कि परमिंदर अपने समर्थकों के साथ दोबारा एसएडी में वापसी को लेकर चर्चा कर रहे हैं। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, ‘एक शब्द है अणख। इसे समझने में ढिलाई बरती जाती है। इसका अर्थ है आत्मसम्मान। सिख सब कुछ गंवा देंगे लेकिन वे अपने आत्मसम्मान के साथ समझौता नहीं करेंगे।’
भाजपा और एसएडी के बीच बातचीत के पिछले दौर में सुनील जाखड़ शामिल थे। जाखड़ पूर्व कांग्रेसी हैं जिन्होंने भाजपा की सदस्यता ले ली और उन्हें प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष बनाया गया। यह करीब छह सप्ताह पुरानी बात है। बातचीत में भाजपा के एक सर्वे का जिक्र किया गया जिसमें उसने छह लोक सभा सीट की मांग की थी और सात सीट एसएडी के लिए छोड़ दी थीं।
अकाली इससे सहमत नहीं थे। उनका मानना है कि इस तरह के गठबंधन में संतुलन लाभ भाजपा के पक्ष में है। उसका मानना है कि पार्टी हिंदू मतों को अपनी झोली में डाल लेगी जबकि गठजोड़ के परिणामस्वरूप एसएडी के जाट सिख वोट गंवाने होंगे। उन्हें लगता है कि लोक सभा चुनाव में भाजपा को उनकी जरूरत है जबकि एसएडी की नजर तीन साल बाद यानी 2027 में होने वाले विधानसभा चुनावों पर है।
अब से तब तक बहुत कुछ घटित हो सकता है। मसलन भारत के साथ समझौते पर पहुंचने के वास्ते सरकार पर दबाव बनाने के लिए अमेरिका और कनाडा को प्रेरित करने के मकसद से विदेशों में आंदोलन करने वाले सिखों की हत्याएं एक माह पहले तक पंजाब में राजनीतिक दृष्टि से बहुत अधिक अहमियत रखती थीं। परंतु अब हालात बदल गए हैं।
फिलहाल किसान आंदोलन को देखते हुए एसएडी का मानना है कि वह भाजपा के साथ बातचीत करती हुई न नजर आए तो ही अच्छा है। भाजपा और उसके साझेदार किसानों की जितनी आलोचना करेंगे, और उनमें विदेशी ताकतों और राष्ट्र विरोधियों की घुसपैठ की बात कहेंगे, पंजाब में एसएडी के लिए माहौल उतना ही बेहतर होता जाएगा।
लोक सभा चुनावों को लेकर अपना ध्यान भटकाने के बजाय एसएडी नाराज अकालियों को दोबारा अपने पाले में लाने के प्रयास को प्राथमिकता देगी ताकि पार्टी को मजबूत बनाया जा सके। यानी लोक सभा चुनाव में कांग्रेस और आप के लिए मैदान खाली रहेगा। अगर सबकुछ योजना के मुताबिक होता है तो एसएडी एक बार फिर पंजाब में प्रमुख शक्ति के रूप में उभर सकती है।