बीजू जनता दल (बीजद) के अगले संभावित प्रमुख एवं पूर्व अधिकारी वी के पांडियन ने एक साक्षात्कार में कहा था कि ‘गठबंधन को लेकर होने वाली बातचीत राजनीतिक सूझबूझ’ पर आधारित होती हैं। पांडियन का यह वक्तव्य बीजद और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बीच लोक सभा एवं विधान सभा चुनावों में गठबंधन पर बातचीत अटकने और बाद में असफल रहने से ठीक पहले आया था।
ओडिशा में 13 मई को विधान सभा और लोक सभा चुनाव होने हैं। मगर गठबंधन पर बातचीत टूटने का असर बीजद और भाजपा के शीर्ष नेताओं की राजनीतिक समझ-बूझ पर पड़ता नहीं दिखा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक दोनों में किसी ने भी सार्वजनिक सभाओं में एक दूसरे की आलोचना नहीं की है। मोदी ने कांग्रेस पर निशाना साधा है तो पटनायक ने अपने काम के आधार पर लोगों से बीजद के पक्ष में वोट देने का अनुरोध किया है।
हालांकि, राज्य भाजपा का प्रचार अभियान आक्रामक रहा है। भाजपा की प्रदेश इकाई ने पांडियन पर हमला करने से गुरेज नहीं किया है और उन्हें ‘भ्रष्टाचार का चेहरा’ तक करार दिया है। मगर दोनों ही दलों के शीर्ष नेताओं ने चुनाव बाद साथ आने के द्वार पूरी तरह बंद नहीं किए हैं। हालांकि, पांडियन को लेकर भाजपा असहज दिख रही है।
यह अटपटा लगता है न? मगर ओडिशा के मतदाताओं से पूछें तो उनका नजरिया शीशे की तरह साफ है। राज्य के मतदाताओं ने विधान सभा और लोक सभा चुनाव में अलग-अलग अंदाज में मतदान किए हैं। ओडिशा में लोक सभा की 21 सीटें हैं। 2014 के चुनाव में बीजद ने 20 सीटें जीती थी और भाजपा को झोली में केवल 1 सीट आई थी। वर्ष 2009 में बीजद को 12 और भाजपा को 9 सीटें मिलीं।
मगर 2019 में भाजपा लोक सभा में मिले समर्थन को विधान सभा चुनाव में सीटों में नहीं बदल पाई। बीजद को कुल 147 सीटों में 112 पर सफलता मिली। भाजपा को केवल 23 सीटों के साथ संतोष करना पड़ा। बीजद को भाजपा से 12 प्रतिशत अधिक मत प्रतिशत मिले। नतीजे मन माफिक नहीं रहे लेकिन भाजपा ने इस तटवर्ती राज्य में एक वैकल्पिक पार्टी के रूप में अपनी उपस्थिति मजबूत कर ली। चुनाव आंकड़ों का गहन अध्ययन करें तो मामला और भी दिलचस्प हो जाता है।
उदाहरण के लिए भुवनेश्वर लोक सभा सीट पर विचार करते हैं। इस सीट पर भाजपा की अपराजिता सारंगी ने बीजद के अरूप पटनायक को 30,000 वोट से पराजित कर दिया। इसके बाद भी भाजपा एक भी विधान सभा क्षेत्र में जीत नहीं दर्ज कर पाई और एक सीट पर तो कांग्रेस बाजी मार गई। जयदेव विधान सभा क्षेत्र में यह तीसरे स्थान पर रही और बीजद और इसके बीच 40,000 मतों का अंतर रहा! विधान सभा चुनाव में इतना बड़ा अंतर साधारण तो नहीं होता। भुवनेश्वर-उत्तर में बीजद का उम्मीदवार 25,000 से अधिक मतों के अंतर से जीत गया। एकामरा भुवनेश्वर सीट पर बीजद ने लगभग 50,000 के बड़े अंतर से जीत दर्ज की। भुवनेश्वर-मध्य, खोर्धा और बेगुनिया विधान सभा सीटों पर भी बीजद ने प्रभावी जीत दर्क की। भाजपा इनमें कहीं भी टक्कर देने की स्थिति में नहीं थी।
बारगढ़ जैसे दूसरे विधान सभा क्षेत्रों में भी यही स्थिति रही। यहां एक बड़ी बात साफ झलक रही है कि ओडिशा के मतदाताओं का नजरिया विधान सभा और लोक सभा चुनावों को लेकर साफ रहा है और दुविधा की कोई गुंजाइश नहीं दिखी है। विधान सभा में यहां के मतदाता बीजद को वोट देते हैं और लोक सभा में भाजपा को समर्थन देते हैं और पूरी तरह समझते हैं कि किन चुनाव में किसे जीत का ताज पहनाना चाहिए। इसे लेकर उनके मन में कोई उलझन नहीं है।
मगर पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश में ऐसी बात नहीं दिखती है। यहां भी 2029 की तरह विधान सभा और राज्यसभा चुनाव एक साथ होंगे। 2019 में जगनमोहन रेड्डी के नेतृत्व में वाईएसआर कांग्रेस ने राज्य विधान सभा चुनाव में कुल 175 सीटों में 151 सीटों पर शानदार जीत दर्ज की। लोक सभा चुनाव में पार्टी को 25 में 22 सीटें मिलीं। उस समय मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी (तेदेपा) को केवल 3 सीटें मिलीं। वहां के मतदाताओं के बीच विकल्प एक ही था। आंध्र प्रदेश के लोग जगन को ही दोनों चुनावों में जीत का ताज पहनाना चाहते थे।
यहां एक बात तो जरूर मन में उठती है। आखिर, मतदाताओं के इस सोच के पीछे क्या वजह हो सकती है। कल्याणकारी योजनाओं के मोर्चे पर जगनमोहन रेड्डी एवं वाईएसआर कांग्रेस का प्रदर्शन शानदार रहा है, यह अलग बात है कि राज्य कर्ज में डूबा हुआ है। उनके सांसद लगातार आंध्र प्रदेश से जुड़े विषय उठाते रहते हैं।
उदाहरण के लिए भारतीय खाद्य निगम द्वारा सेला चावल नहीं खरीदने के निर्णय ने राज्य में भारी उथल-पुथल मचाई है। वाईएसआर कांग्रेस के सांसदों ने इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया है। इसके उलट बीजद के सांसद शालीन रहे हैं और राज्य में भाजपा के प्रतिद्वंद्वी होने के बावजूद केंद्र में सरकार के साथ खड़े हैं।
नवीन पटनायक लोगों में काफी लोकप्रिय हैं, खासकर महिला मतदाताओं के बीच उनकी लोकप्रियता कम नहीं हुई है। उन्होंने महिला स्वयं सहायता समूहों को बढ़ावा देने के प्रयास किए हैं। यह भी माना जा रहा है कि यह पटनायक का अंतिम चुनाव हो सकता है, इसलिए लोग उन्हें राज्य के हक में समर्थन देने के लिए तैयार हैं। मगर इस बार लोक सभा में भाजपा बीजद को पीछे छोड़ सकती है।
आंध्र प्रदेश में जिस टीम-उनकी माता, बहन वाईएस शर्मिला- ने जगन को जीत दिलाई वह बिखर चुकी है। शर्मिला कडप्पा लोक सभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रही हैं। जगन को यह स्पष्टीकरण देना पड़ रहा है कि उनकी बहन को क्यों उनका साथ छोड़ना पड़ा।
दूसरी तरफ, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) का हिस्सा बनने की चाहत रखने वाली तेदेपा ने भाजपा और पवन कल्याण की जन सेना पार्टी (जेएसपी) के साथ गठबंधन तैयार किया है। तेदेपा राज्य में 17 लोक सभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी जबकि भाजपा और जेएसपी दोनों ही 2-2 सीटों पर उम्मीदवार उतारेंगी। विधान सभा में तेदेपा 144, भाजपा 10 और जन सेना 21 विधान सभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी।
क्या आंध्र प्रदेश ओडिशा का अनुसरण करेगा और लोक सभा और विधान सभा में अलग-अलग दलों को समर्थन देगा? या फिर आोडिशा आंध्र प्रदेश की राह पर चलेगा और विधान सभा और लोक सभा में इस बार कुछ नया कर दिखाएगा? परिणाम जो भी हो, वे भारतीय राजनीति के लिए उसके बड़े मायने होंगे।