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सियासी हलचल: हिमाचल प्रदेश में अभी नहीं टली कांग्रेस की बला

Himachal Pradesh political crisis: यह कहना थोड़ा अजीब लग सकता है लेकिन कांग्रेस ने बार-बार साबित किया है कि वह अपनी सबसे बड़ी दुश्मन स्वयं है।

Last Updated- March 01, 2024 | 9:24 PM IST
हिमाचल प्रदेश में अभी नहीं टली कांग्रेस की बला, Congress's trouble is not over yet in Himachal Pradesh

यह कहना थोड़ा अजीब लग सकता है लेकिन कांग्रेस ने बार-बार साबित किया है कि वह अपनी सबसे बड़ी दुश्मन स्वयं है। हिमाचल प्रदेश के हालिया घटनाक्रम भी इस बात की तस्दीक करते हैं।

राज्य में इस पार्टी की सरकार गिरने के कगार पर आ गई है और पार्टी के समर्थक अब तक सोच रहे हैं कि आखिर हालात अचानक कैसे बिगड़ गए। जब सुखविंदर सिंह सुक्खू को राज्य के मुख्यमंत्री पद पर नियुक्त किया गया था, तो उनसे काफी उम्मीदें थीं। लेकिन उनके नेतृत्व में पार्टी अपने पक्ष को और मजबूत करने के साथ जीत की सफलता भुनाने में विफल रही है। हालांकि इस दिशा में आगे बढ़ने की बात भी फिलहाल मुश्किल है।

सुक्खू ने इसलिए उम्मीदें जगाईं थीं कि वह संघर्षों का सामना करके नेता के तौर पर उभरे और जमीनी स्तर पर लोगों से उनका सीधा जुड़ाव है। शुरुआती वर्षों में गुजर-बसर करने के लिए वह दूध की पेटी ढोते थे और बाद में उन्होंने दूध बेचने का काम भी शुरू कर दिया।

मुश्किल के वक्त में वह राज्य के बिजली विभाग में चौकीदार बने। उन्हें राज्य बिजली बोर्ड से सहायक के पद के समान ही एक पद का ऑफर भी मिला। उनके पिता हिमाचल प्रदेश राज्य परिवहन निगम में बस चालक थे। इसलिए, यह कहना उपयुक्त होगा कि उनकी पृष्ठभूमि समृद्ध नहीं थी।

हिमाचल प्रदेश चुनाव (2022) से पहले कांग्रेस ने उन्हें चुनाव प्रचार समिति का प्रमुख बनाया, जिसका मतलब था कि चुनाव के लिए उम्मीदवारों को चुनने में उनकी अहम भूमिका थी। ऐसे में चुनाव में कांग्रेस की जीत पर उनके शीर्ष पद पर पहुंचने की प्रबल संभावना पहले से थी। उन्हें पार्टी संगठन की अच्छी समझ थी और उन्होंने पार्टी की राज्य इकाई का नेतृत्व किया। वह पार्टी के छात्र संगठन एनएसयूआई के प्रमुख भी रहे।

कांग्रेस ने जब 68 में से 40 सीट के साथ विधानसभा चुनाव में अच्छी जीत हासिल की तब आलाकमान को दिग्गज शख्सियत वीरभद्र सिंह (जिनका चुनाव से कुछ महीने पहले ही निधन हो गया था) के परिवार से प्रतिभा सिंह/विक्रमादित्य सिंह और दूसरी तरफ सुखविंदर सिंह सुक्खू के बीच चयन करना था।

वीरभद्र सिंह बुशहर के राजा रहे हैं और वह कई दफा कांग्रेस के मुख्यमंत्री भी रहे। सुक्खू का पक्ष इसलिए भी मजबूत हुआ कि उन्हें प्रियंका गांधी और सबसे अधिक विधायकों का समर्थन प्राप्त था। एक संघर्ष वाली स्थिति के बाद सुक्खू को मुख्यमंत्री पद मिला, वहीं विक्रमादित्य को लोक निर्माण विभाग का मंत्री बनाया गया। चूंकि राज्य में केवल 12 ही मंत्री हो सकते हैं, इसलिए वफादारों को पुरस्कृत करने के लिए अन्य तरीके अपनाए गए, जैसे एक मंत्री का विभाग लेकर दूसरे विधायक को दिया गया।

जिन विधायकों ने विभाग खो दिए (जैसे विक्रमादित्य), उन्हें मंत्री रहते हुए सार्वजनिक तौर पर अपमान का सामना करना पड़ा, क्योंकि उन्हें अपने मतदाताओं के सामने यह सफाई देनी पड़ी कि उन्हें हटाया नहीं गया है। हालांकि उन्होंने गुप्त रूप से सुक्खू के सामने जल्द से जल्द चुनौतियां खड़ी करने का संकल्प लिया। राज्य में बाढ़ ने व्यापक तबाही मचाई। राहत कार्य तो तेजी से हुआ, लेकिन यह चुनिंदा जगहों पर ही हुआ। विधायकों ने इस मामले को उठाते हुए भ्रष्टाचार और भेदभाव की शिकायत की।

सुजानपुर के विधायक राजिंदर राणा ने शिकायत की कि उन्हें मंत्री नहीं बनाया गया, जबकि उन्होंने भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री पी के धूमल को हराया था। राणा को भाजपा से सहानुभूति मिली क्योंकि वह वर्ष 2006 से 2012 तक भाजपा में थे। जब उनके पुराने दोस्तों ने उनसे संपर्क किया, तब राणा भी चुनौती बन गए। वह पिछले तीन महीनों से अपने जिले हमीरपुर में बेरोजगारी और अधूरे कार्यों की शिकायत कर रहे हैं। सुक्खू ने उनकी सिर्फ अनदेखी की।

कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश का राजनीतिक रूप से सबसे महत्त्वपूर्ण जिला है। विधानसभा चुनाव में, कांग्रेस ने कांगड़ा की 15 सीटों में से 10 सीटें जीती थीं। लेकिन जिले को सिर्फ एक ही मंत्री मिला। इसमें सुधीर शर्मा का नाम नहीं था जो वीरभद्र सिंह सरकार में मंत्री थे। वीरभद्र की पत्नी प्रतिभा सिंह के लोकसभा क्षेत्र मंडी को कोई मंत्री नहीं मिला। इसके विपरीत शिमला जिले में तीन मंत्री थे।

इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि सुधीर शर्मा ने पहले दिन से ही सुक्खू द्वारा वीरभद्र के वफादारों को जानबूझकर दरकिनार किए जाने की शिकायत करना शुरू कर दिया। वह उन पांच लोगों में से एक थे, जिन्होंने सुक्खू के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया। उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया गया है और वह अपने साथियों के साथ उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा रहे हैं।

सुक्खू के ग्रामीण परिवेश से जुड़े रहने और उनके जमीनी व्यक्ति होने के बारे में काफी कुछ कहा जाता है। लेकिन सियासत के लिए एक महत्त्वपूर्ण गुण में वह कमतर साबित हुए, वह राजनेता नहीं हैं। दिल्ली में कांग्रेस आलाकमान को इसे महसूस करना चाहिए था और उन्हें सलाह देनी चाहिए थी कि वह अपनी दिशा किस तरह सही करें।

हिमाचल में भाजपा की भी अपनी समस्याएं हैं। लेकिन यह एक ऐसी पार्टी नहीं है जो हाथ पर हाथ धरे बैठी रहे। उसने एक मौका देखा और उस पर काम किया, जिसके परिणामस्वरूप कांग्रेस को राज्य सभा सीट पर शर्मनाक तरीके से नुकसान सहना पड़ा जो पार्टी के लिए आसान जीत होनी चाहिए थी। एक बात तो तय है कि सुक्खू सरकार के लिए खतरा अभी टला नहीं है।

First Published - March 1, 2024 | 9:24 PM IST

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