ऐसे समय में जब मिलिंद देवरा जैसे नामी-गिरामी नेता कांग्रेस पार्टी छोड़ रहे हैं तब नए लोगों का इस पार्टी से जुड़ना हैरानी की बात होने के साथ ही जश्न का मामला भी होना चाहिए। ऐसा इसलिए कि वाईएस शर्मिला ने अपनी पार्टी का आखिरकार कांग्रेस में विलय कर दिया है। शर्मिला ने कर्नाटक कांग्रेस के नेता और उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार से मुलाकात कर बातचीत पर मुहर लगाई थी।
लेकिन तेलंगाना कांग्रेस के तत्कालीन प्रदेश प्रमुख रेवंत रेड्डी झुकने को तैयार नहीं थे। इसके बाद वह तेलंगाना के मुख्यमंत्री बन गए और उन्होंने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया। जब शर्मिला ने अपनी पार्टी का विलय कर दिया तब कांग्रेस ने उन्हें आंध्र प्रदेश में पार्टी इकाई का प्रमुख नियुक्त किया ताकि उन्हें सीधे तौर पर उनके भाई के खिलाफ खड़ा किया जा सके। हालांकि संदेह की स्थिति बनी हुई है।
जब आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी की मृत्यु हुई तब जगनमोहन रेड्डी अपने पिता का पद संभालने के खासे इच्छुक दिख रहे थे। लेकिन कांग्रेस ने इसकी अनुमति नहीं दी इसलिए उन्होंने अपनी खुद की पार्टी वाईएसआर कांग्रेस बना ली। बाद में उन्हें केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के आय से अधिक संपत्ति के मामलों के आरोप में जेल जाना पड़ा। जब वह जेल में थे तब उनकी बहिन शर्मिला और मां विजयलक्ष्मी ने ही अपने गढ़ को संभाला था। इसके साथ ही उन्होंने जगन की रिहाई के लिए जोरदार अभियान चलाया और करीब 16 महीने तक सलाखों के पीछे से भी पार्टी बनाने में जुटे रहे।
उन्होंने एक नारा ‘राजन्ना राज्यम’ दिया जिसके तहत एक ऐसा कल्याणकारी राज्य बनाने का वादा किया गया था जिसकी कल्पना उनके पिता ने की थी। शर्मिला ने 3,000 किलोमीटर की पदयात्रा शुरू की। इसके बाद जगन जमानत पर बाहर आए और उन्होंने 2014 का विधानसभा चुनाव लड़ा। हालांकि वह सरकार बनाने में कामयाब नहीं रहे लेकिन उनकी पार्टी ने 67 सीटें जीतीं। कई लोगों ने इसे उनकी बहिन और मां की मेहनत के नतीजे के रूप में देखा। शर्मिला ने कभी चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन अपने भाई को सत्ता में लाने के लिए उन्होंने 2019 तक काफी मेहनत की।
जब जगन मुख्यमंत्री बने तब शायद उन्हें लगा कि उनकी सार्वजनिक भूमिका बड़ी होनी चाहिए थी, जो अब तक संगठनात्मक स्तर पर और परदे के पीछे ही थी। वर्ष 2021 में, उन्होंने तेलंगाना में अपनी खुद की पार्टी बनाई लेकिन उन्होंने यह संकेत दिए कि वह अपने भाई के क्षेत्र में उनको चुनौती नहीं देंगी। उनकी मां भी उनके साथ थीं। हालांकि तेलंगाना को लेकर की गई उनकी यह कवायद पूरी तरह से विफल रही। तेलंगाना से निराश होने के बाद वह अपने परिवार के एक सदस्य के खिलाफ खड़ी होने की तैयारी में हैं।
विधानसभा चुनावों में मुश्किल से छह महीने बचे हैं और कांग्रेस को भी यह बात अच्छी तरह समझ में आ रही है कि वह आंध्र में खुद को उभारने की कोशिश कर सकती हैं जहां इसका प्रदर्शन अच्छा नहीं है। पिछले विधानसभा चुनाव में नोटा के लिए डाले गए वोटों की तुलना में इसकी वोट हिस्सेदारी कम थी। अब अचानक ही आंध्र प्रदेश में लड़ाई त्रिकोणीय हो गई है जो जगन, चंद्रबाबू नायडू और शर्मिला के नेतृत्व वाली कांग्रेस के बीच में है। इसके अलावा चुनावी मैदान में भाजपा भी है।
जैसा कि हमेशा होता है, कांग्रेस में हर कोई इस बात से खुश नहीं है कि उन्हें पार्टी में ऊपर से लाकर थोप दिया गया है। लेकिन इतना तो साफ है कि यह शर्मिला की आखिरी राजनीतिक लड़ाई है। अगर वह पार्टी को नया रूप नहीं दे सकेंगी, अपने विरोधी गुटों को एक साथ नहीं ला सकती हैं या खुद को अपने भाई को कड़ी चुनौती देने वाले प्रत्याशी के रूप में पेश नहीं कर सकती हैं तब राजनीति के खेल में उनकी पारी के लिए ज्यादा गुंजाइश नहीं बचेगी।
आंध्र प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य अभी कैसा दिखता है? मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी द्वारा कल्याणकारी योजनाओं पर किए जाने वाले खर्च ने आसमान छू लिया है लेकिन इस खर्च का बोझ आखिरकार किसी न किसी को उठाना ही पड़ेगा। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2020-21 के दौरान राज्य ने औसतन हर महीने 9,226 करोड़ रुपये का कर्ज लिया और इसका ज्यादातर इस्तेमाल वेतन, पेंशन और कल्याणकारी योजनाओं के मद में हुआ।
यह सिलसिला वर्ष 2021-22 में भी जारी रहा। आरबीआई ने हाल ही में जारी अपनी रिपोर्ट में भी राज्य की खराब वित्तीय स्थिति के बारे में बताया है जिसमें यह बताया गया है कि मार्च 2023 तक राज्य की कुल देनदारी 4.28 लाख करोड़ रुपये थी। चंद्रबाबू नायडू की उम्मीदें अब फिर से उभरने पर टिकी हैं। लेकिन तेलुगू देशम पार्टी (तेदेपा) का नेतृत्व उनके बेटे नारा लोकेश के हाथों में है। सवाल यह भी है कि क्या वह अपने पिता की तरह लोकप्रियता हासिल कर पाएंगे?
इस बात में कई लोगों को संदेह है। तेदेपा ने जन सेना के पवन कल्याण के साथ हाथ मिला लिया है जो भाजपा के सहयोगी हैं। इससे राज्य में भाजपा के लिए पिछले दरवाजे से प्रवेश मार्ग तैयार हो सकता है जहां पार्टी फिलहाल हाशिये पर है। दिलचस्प बात यह है कि भाजपा (डी पुरंदेश्वरी पार्टी की प्रदेश अध्यक्ष हैं) और कांग्रेस दोनों की प्रदेश प्रमुख अब महिला हैं। ऐसे में आंध्र प्रदेश की राजनीति में एक नया मोड़ आ गया है।