दुनिया के पांच बड़े देशों में से चार- भारत, अमेरिका, इंडोनेशिया और पाकिस्तान-में 2024 में या तो चुनाव होंगे या हो चुके हैं। दुनिया के दूसरे सबसे बड़े लोकतांत्रिक चुनाव यानी यूरोपीय संसद के चुनाव भी होने हैं। मैक्सिको, रूस और यूनाइटेड किंगडम सहित दुनिया के कई अन्य बड़े तथा प्रभावशाली देशों में ऐसे चुनाव होने हैं जिन पर सबकी नजर रहेगी।
‘लोकतंत्र’ शब्द जितना बताता है उससे कहीं अधिक छिपाता है। ये सभी चुनाव एक दूसरे से पूरी तरह अलग हैं। रूस जैसे कुछ देशों में होने वाले चुनाव दुनिया के अन्य हिस्सों में होने वाले चुनावों की तरह ही संस्थागत प्रक्रिया नजर आते हैं लेकिन वास्तव में वे एक निरंतर अधिनायकवादी होती व्यवस्था के अधीन होने वाले चुनाव हैं।
अन्य चुनाव मसलन पाकिस्तान में होने वाले चुनावों में शक्तिशाली संविधान से इतर ताकतों का हस्तक्षेप है। भारत में फंड जुटाने से लेकर मीडिया तक एक पक्ष का दबदबा होने के कारण यह कहना मुश्किल है कि हमारे यहां होने वाले स्वतंत्र चुनाव वास्तव में पूरी तरह निष्पक्ष भी हैं।
परंतु एक अन्य अंतर है जिस पर विचार करना आवश्यक है: विभिन्न देशों और ब्लॉक का अंतर यानी जहां चुनाव नतीजों का अनुमान लगाया जा सकता है तथा जहां अनुमान नहीं लगाया जा सकता है या दूसरे शब्दों में कहें ऐसे देश और ब्लॉक जो स्पष्ट जनादेश देते हैं तथा दूसरे वे जो ऐसा नहीं करते हैं, उनके बीच का अंतर।
उदाहरण के लिए इंडोनेशिया में इस वर्ष के आरंभ में हुए राष्ट्रपति चुनाव में प्रबोवो सुबिआंतो को 58 फीसदी मत मिले जबकि उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी को 25 फीसदी मत भी नहीं मिले। यानी यह बात उन्हें शासन करने का स्पष्ट जनादेश देती है। सबसे आशावादी समर्थक भी यह दावा नहीं कर सकते कि नवंबर में अमेरिका में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में जो बाइडन या डॉनल्ड ट्रंप को ऐसा ही जनादेश मिल सकेगा। सबसे अधिक संभव परिदृश्य यही है कि ट्रंप एक बार फिर राष्ट्रपति बन जाएं लेकिन शायद उन्हें बहुत अधिक मत न मिलें। संघीय स्तर पर अमेरिका तेजी से निष्क्रिय हो गया है क्योंकि वह अब लगातार अपने विजेताओं को सशक्त जनादेश देने में विफल रहता है।
इस बीच यूनाइटेड किंगडम में हुए हालिया चुनाव इसके विपरीत चीजें दर्शाते हैं। लेबर पार्टी को इस समय 28 अंकों की अविश्वसनीय बढ़त हासिल है। अगर इसे सीटों में बदलने में कामयाबी मिली तो सत्ताधारी कंजरवेटिव पार्टी आगामी संसदीय चुनावों में तीसरे या चौथे स्थान पर सिमट सकती है। ऐसे ही घटनाक्रम में कुछ राजनीतिक दल इतिहास के पन्नों से गायब ही हो गए।
कनाडा की कंजरवेटिव पार्टी के सदस्य यानी टोरीज 1993 के घटनाक्रम से भयभीत हैं जब 1980 के दशक से अधिकांश समय देश पर शासन करने वाले प्रोग्रेसिव कंजरवेटिव के खिलाफ 27 फीसदी मत परिवर्तन हुआ था और एक राजनीतिक शक्ति के रूप में उनका पतन ही हो गया था। लेबर पार्टी के नेता सर कीर स्टार्मर के इस बात की चिंता करने की संभावना नहीं है कि उन्हें मिलने वाला जनादेश बड़े सुधारों की शक्ति प्रदान करेगा या नहीं।
यूरोपीय संसद का मामला अलग है। यूरोपीय संघ की विधायी संस्था दरअसल यूरोप के प्रति आशंका रखने वालों का एक प्रतिवाद है। जैसा कि यूरोपीय संघ और भारत के बीच मुक्त व्यापार समझौते के वार्ताकार जानते हैं कि यूरोपीय संसद इस बात के लिहाज से काफी महत्त्वपूर्ण है कि आखिर यूरोपीय किस तरह की रियायतों पर सहमत हो सकते हैं।
परंतु कुछ सदस्य देशों की राजनीति में अहम बदलाव के बावजूद यानी फ्रांस, इटली और जर्मनी में धुर दक्षिणपंथ के उभार के बावजूद ताजा चुनाव यही सुझाते हैं कि राजनीतिक चुनाव खुद को खारिज कर सकते हैं और मध्य दक्षिण और मध्य वाम ब्लॉक संसद में पिछले साल की तरह ही सीटें हासिल कर सकते हैं। यूरोपीय चुनाव जहां स्वतंत्र, निष्पक्ष और प्रतिनिधित्व वाले हैं, वहीं यह प्रभाव भी एक वजह है जिसके चलते कुछ लोगों का मत अलग है यानी उन्हें नहीं लगता कि उनके चुनावों में बड़ा या स्पष्ट जनादेश मिलेगा।
यह बात हमें एक बुनियादी नतीजे की ओर ले जाती है: लोकतंत्र में विश्वास को बहाल रखने के लिए चुनावों का केवल हस्तक्षेप से स्वतंत्र होना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उन्हें यह क्षमता भी दर्शानी चाहिए कि वे निर्णायक जनादेश दे सकते हैं और उनमें विपक्ष के पक्ष में बड़ा मत प्रतिशत स्थानांतरित करने की भी क्षमता है। भारत में बीते एक दशक में हमें निर्णायक जनादेश मिले हैं लेकिन इस बात को लेकर हमारा संदेह बढ़ता जा रहा है कि सत्ताधारी दल के विरुद्ध मत परिवर्तन संभव भी है या नहीं।
कुछ लोगों ने शिकायत की है कि यह चुनावी मौसम खासतौर पर दिलचस्पी से रहित और नीरस है क्योंकि इसमें पिछले चुनावों की तरह उत्साह और अनिश्चितता का माहौल नहीं है। इस तरह से देखा जाए तो यह शिकायत अस्पष्ट नजर आती है। परंतु इसमें कहीं अधिक गहरी सच्चाई छिपी हुई है: लोकतांत्रिक देशों में लोगों को अनिश्चितता की भावना की आवश्यकता है ताकि उन्हें यह विश्वास हो कि उनकी आवाज और उनके वोट मायने रखते हैं। एक बार चुनाव हो जाने के बाद उन्हें अपने जीवन में वापस लौटने और अपने प्रतिनिधियों को सरकार के कामकाज में भाग लेने देने के लिए जनादेश को देखने की आवश्यकता होती है।