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सिर्फ ऊपरी बदलाव से नहीं बनेगी बात

Interim budget: मंत्रालय स्तर के सुधार से ही विनिवेश को गति मिल सकती है। केवल नाम मात्र के परिवर्तन करने से कोई खास लाभ नहीं होने वाला है। बता रहे हैं ए के भट्‌टाचार्य

Last Updated- February 08, 2024 | 9:12 PM IST
सिर्फ ऊपरी बदलाव से नहीं बनेगी बात, Only superficial changes will not help

गत सप्ताह प्रस्तुत अंतरिम बजट में कई दिलचस्प वर्गीकरण किए गए जिन पर कई लोगों ने शायद ध्यान भी न दिया हो। मिसाल के तौर पर विनिवेश को बजट दस्तावेज में प्राप्तियों में नहीं दिखाया गया। पहले विनिवेश को विविध पूंजीगत प्राप्तियों में अलग प्रविष्टि के रूप में दर्शाया जाता था। बहरहाल, 2024-25 के अंतरिम बजट में विनिवेश को अलग प्रविष्टि के रूप में नहीं दर्शाया गया। इसके बजाय विविध पूंजीगत प्राप्तियों के आंकड़ों को इस तरह प्रस्तुत किया गया कि सरकार को सार्वजनिक उपक्रमों (पीएसयू) में हिस्सेदारी की बिक्री से क्या प्राप्त होने की उम्मीद थी।

ऐसे में वर्ष 2023-24 के बजट अनुमान में उल्लिखित 61,000 करोड़ रुपये के विनिवेश लक्ष्य (परिसंपत्ति की बिक्री से प्राप्त 10,000 करोड़ रुपये को मिलाकर) के बजाय चालू वर्ष के संशोधित अनुमान से पता चला कि विविध पूंजीगत प्राप्तियों में केवल 30,000 करोड़ रुपये हासिल होना दिखाया गया। 2024-25 के बजट अनुमानों में भी विनिवेश का उल्लेख नहीं किया गया लेकिन 50,000 करोड़ रुपये की राशि उसी विविध पूंजीगत प्राप्तियों के मद में दर्शाई गई।

इस बदलाव की वजह क्या हो सकती है? क्या इससे विनिवेश को लेकर मोदी सरकार के रुख में कोई गुणात्मक परिवर्तन नजर आता है? जब वित्त मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी से इस बदलाव के बारे में पूछा गया तो उनके स्पष्टीकरण से संकेत मिला कि सरकार विनिवेश को लेकर नई राह तलाश कर रही है। अधिकारी ने कहा, ‘हमने विनिवेश के लिए कोई तय लक्ष्य नहीं रखा है। हमें विचार प्रक्रिया में आमूलचूल बदलाव की आवश्यकता है, न कि एकबारगी धन जुटाने की। हम ऐसा चरणबद्ध ढंग से भी कर सकते हैं।’

जहां तक सरकारी उपक्रमों में हिस्सेदारी के विनिवेश की बात है तो भारत ने इस मामले में अब तक लंबा सफर तय किया है। विनिवेश के साथ प्रयोग 32 वर्ष पहले सन 1991-92 में शुरू हुए थे जब मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे। विनिवेश को उनके कई सुधारवादी कदमों में से एक माना जाता है। ऐसे विनिवेश के जरिये सार्वजनिक उपक्रमों में प्रबंधन को सतर्क और बाजार के प्रति अधिक संवेदनशील बनाकर सुधार करने की भावना हो सकती है। इनमें सरकारी हिस्से के अल्पांश को बेचने की एक वजह सरकार के लिए राजस्व जुटाना था क्योंकि उसकी वित्तीय स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी।

नरसिंह राव सरकार को सभी संभव संसाधनों से राजस्व जुटाने की जरूरत थी ताकि राजकोषीय घाटे को टिकाऊ रूप से कम स्तर पर लाया जा सके। इसकी एक वजह यह थी कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष समेत अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थान केवल तभी फंड जारी करते जब उन्हें यह यकीन हो जाता कि भारत सरकार राजकोषीय घाटे को कम करने को लेकर प्रतिबद्ध है। सन 1990-91 में यह घाटा जीडीपी के 7.6 फीसदी तक पहुंच चुका था।

यकीनन वित्त मंत्रालय के अधिकारियों को उस समय एक बड़ी जीत हासिल हुई जब अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के साथ उनकी बातचीत के बाद कोष ने दोबारा ऋण दिया और सरकार को यह इजाजत दी कि वह अपने विनिवेश राजस्व को पूंजीगत प्राप्तियों के रूप में इस्तेमाल करे तथा घाटे की भरपाई में भी। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने पहले कहा था कि विनिवेश प्राप्तियों का इस्तेमाल सरकार के समग्र राजस्व का आकलन करने में नहीं किया जाना चाहिए। हालांकि समस्या उस तरीके की वजह से आरंभ हुई जिसका इस्तेमाल करते हुए बाद के तीन दशकों की सरकारों ने विनिवेश करना आरंभ किया।

सरकारों ने समय-समय पर विनिवेश का इस्तेमाल घाटा कम करने में किया है, न कि उपक्रमों में अपनी हिस्सेदारी कम करने के लिए। जबकि कारोबार में सरकारी दखल नहीं होने के सिद्धांत के अनुरूप ऐसा किया जाना चाहिए। इसमें विनिवेश के बाद धीरे-धीरे प्रबंधन को स्वायत्त बनाना और उन्हें बाजार शक्तियों के हवाले करना शामिल है। 

आश्चर्य नहीं कि सन 1991-92 में आधे-अधूरे मन से सरकारी हिस्सेदारी बेचने के साथ शुरू हुआ विनिवेश केवल सरकारी वित्तीय संस्थानों तक सीमित रह गया ताकि इसके आलोचक यह न कह सकें कि तथाकथित रूप से घर की संपत्ति निजी कंपनियों को बेच दी गई। साल बीतने के बाद इस हिचक से निजात मिली और सरकारी उपक्रमों में सरकारी की हिस्सेदारी को सीधे निजी कंपनियों को बेचा जाने लगा। संयुक्त मोर्चा सरकार ने तो एक विनिवेश आयोग भी गठित किया था जिसकी अनुशंसाओं पर आक्रामक ढंग से विनिवेश किया जाना था।

अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में विनिवेश ने तगड़ी छलांग लगाई और कई सरकारी कंपनियों का निजीकरण किया गया। उसके बाद से विनिवेश की गति धीमी हो गई और बीते दो दशकों में केवल एक सरकारी उपक्रम का निजीकरण किया जा सका। अंतर-सरकारी उपक्रमों में हिस्सेदारी की बिक्री को अक्सर सरकार की विनिवेश प्राप्तियों के रूप में दिखाया जाता है। निश्चित तौर पर बीते 32 साल के दौरान सरकारों ने केवल आठ साल के दौरान विनिवेश लक्ष्य हासिल किया। इनमें सबसे अधिक जीडीपी के 0.8 फीसदी के बराबर विनिवेश प्राप्ति 2008 में हुई। केवल पांच ऐसे वर्ष रहे जब यह प्राप्ति जीडीपी के 0.5 फीसदी से अधिक रही।

प्रश्न यह है कि विनिवेश को लेकर किस नए दृष्टिकोण से प्रदर्शन सुधरेगा? यकीनन बजट दस्तावेजों में नाम बदलने भर से बात नहीं बनेगी। इसके बजाय जुलाई में 2024-25 का पूर्ण बजट पेश करने वाली नई सरकार को विनिवेश के प्रबंधन और क्रियान्वयन का पुनर्गठन करना होगा। सरकार दो तरीके अपना सकती है।

पहला, नई सरकार को नीति आयोग के सार्वजनिक क्षेत्र की नीति से संबंधित दस्तावेज को गंभीरता से लेना चाहिए और उसके मुताबिक चुनिंदा सरकारी उपक्रमों के अलावा अन्य सभी सरकारी उपक्रमों के विनिवेश या निजीकरण के लिए पांच वर्ष की समय सारणी बनाई जानी चाहिए। शामिल कंपनियों और बाजार अवसरों के मुताबिक निजीकरण या विनिवेश का निर्णय लिया जा सकता है। पांच साल की योजना सरकार को अवसर देगी कि वह इस प्रकार बिक्री कर सके कि कीमतों में उतार-चढ़ाव बाधा न बने।

दूसरा, सभी सरकारी कंपनियां जिनके बारे में सरकार मानती है कि उसे उनसे बाहर हो जाना चाहिए, उन्हें एक नए मंत्रालय के अधीन लाया जाना चाहिए। दिसंबर 1999 में विनिवेश मंत्रालय की स्थापना की गई थी और दो वर्ष से भी कम समय के बाद उसे एक स्वतंत्र मंत्रालय में बदल दिया गया।

यही वह समय था जब कई सरकारी कंपनियों का निजीकरण किया गया। मई 2004 में विनिवेश मंत्रालय का दर्जा समेट कर एक विभाग तक सीमित कर दिया गया और उसे वित्त मंत्रालय का एक हिस्सा बना दिया गया। बाद में विभाग का नाम भी बदल दिया गया। इन सबके बीच विनिवेश अथवा निजीकरण की गति लगातार धीमी बनी रही।

वक्त आ गया है कि एक बार फिर विनिवेश मंत्रालय की स्थापना की जाए और उसे वित्त मंत्रालय से अलग किया जाए। इससे भी अहम बात यह है कि सभी सरकारी उपक्रम चाहे उनका निजीकरण होना हो या उनके शेयर बेचने हों, उन्हें नए विनिवेश मंत्रालय के हवाले किया जाना चाहिए। विनिवेश और निजीकरण का काम वित्त मंत्रालय के पास नहीं होना चाहिए बल्कि इसके लिए अलग मंत्रालय होना चाहिए जिसकी जिम्मेदारी राजस्व बढ़ाना या घाटा कम करना न हो। ऐसा करके ही विनिवेश को सरकार के राजस्व जुटाने के दायित्व से अलग किया जा सकेगा।

First Published - February 8, 2024 | 9:12 PM IST

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