हाल में पांच राज्यों में हुएविधानसभा चुनावों के नतीजों से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि महंगाई और आतंकवाद प्रमुख मुद्दे नहीं रहे जो भारत के मतदाताओं को उद्वेलित करते हों।
वास्तव में किसी भी राजनीतिक दल के लिए यह विश्वास करना खतरनाक होगा कि महंगाई और आतंकवाद आगामी आम चुनावों में मतदाताओं की पसंद का निर्धारण नहीं करेंगे। आम चुनाव छह महीने के भीतर ही होने जा रहे हैं।
हालांकि कुछ राजनीतिक दलों ने कुछ ऐसा ही सोचना शुरू कर दिया है। इससे और भी खराब बात तब हो सकती है जब इसे केंद्र विंदु में रखते हुए लोकसभा चुनावों की रणनीति बनाई जाती है। इससे ज्यादा भ्रामक शायद कुछ भी नहीं हो सकता है।
और जो पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव के बाद केंद्र में अगली सरकार बनाने की सोच रही है, उसके लिए तो यह और भी बड़ा और खतरनाक है।
पहली बात तो यह है कि यह मानना पूरी तरह से गलत होगा कि मतदाताओं की सोच विधानसभा चुनावों और लोकसभा चुनाव में एक जैसी रहती है। ज्यादातर मतदाताओं की केंद्र और राज्य सरकारों के बारे में सोच और अपेक्षाएं अलग अलग होती हैं।
अगर देश भर में व्याप्त आतंकवाद के खौफ और कमरतोड महंगाई ने पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार द्वारा समर्थित उम्मीदवारों के खिलाफ लहर पैदा नहीं की तो इसकी वजह यह थी कि मतदाता यह नहीं मानते कि कीमतों के प्रबंधन और आतंक से निबटने की जिम्मेदारी उनके राज्य में सत्तारूढ़ सरकार की है।
यह सही है कि भारतीय संविधान के मुताबिक कानून व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में आती है। लेकिन पिछले महीने मुंबई में हुए आतंकवादी हमले को देश के खिलाफ एक युध्द के रूप में देखा जा रहा है जिसमें बाहरी ताकतों का हाथ था।
यह कानून व्यवस्था से जुड़ा ऐसा साधारण मामला नहीं था, जहां नागरिकों की सुरक्षा को पूरी तरह से स्थानीय या घरेलू तत्त्वों से खतरा होता है। जब आतंकवादी हमलों के लिए दुश्मन के विदेशी हाथ को जिम्मेदार ठहराया जाता है, तो इन्हें रोकने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की होती है।
यही कारण है कि पिछले महीने हुए विधानसभा चुनावों में मतदाताओं के लिए यह प्रमुख मुद्दा नहीं बन पाया जो उम्मीदवारों के राजनीतिक भाग्य का फैसला करता।
इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व में विपक्षी दलों ने आतंकवाद और महंगाई को प्रमुख मुद्दा बनाया, इसके बावजूद संप्रग ने दिल्ली में ताज नहीं गंवाया।
हो सकता है कि साख और मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी के विकल्प ने इस चुनाव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई हो, खासकर संप्रग के पास शीला दीक्षित जैसी विश्वसनीय और सक्षम नेता थीं, जो अगली सरकार को बेहतर नेतृत्व दे सकती थीं।
लेकिन इस बात पर भी कोई संदेह नहीं है कि आतंकवाद और महंगाई का दिल्ली के मतदाताओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। महंगाई और आतंकवाद के मुद्दा न बनने के प्रमाण राजस्थान और मिजोरम के चुनाव परिणाम हैं, जहां कांग्रेस ने भाजपा और स्थानीय राजनीतिक दल मिजो नैशनल फ्रंट को हरा दिया।
यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि इन दो राज्यों में यूपीए सरकार की जीत भी महंगाई या आतंक के मुद्दे पर नहीं हुई। इसकी जगह पर यहां पर स्थानीय मसले प्रभावी रहे (इसके साथ ही कुछ प्रभावशाली जातियों के मतों का ध्रुवीकरण भी अहम रहा), जिसके चलते सत्तासीन दलों की किस्मत पलट गई।
इसी तरह से मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनावों में भाजपा की जीत का भी आतंकवाद और महंगाई से कोई लेना-देना नहीं है।
यहां पर भी जीत इसलिए हुई कि यहां का नेतृत्व जनता को यह भरोसा दिलाने में सफल रहा कि आने वाले पांच साल तक वे बेहतरीन प्रशासन देंगे।
आखिर महंगाई के मामले में क्या हुआ? इस पर विचार करते समय दो प्रमुख बातों को ध्यान में रखना जरूरी है।
पहला, महंगाई स्पष्ट रूप से राज्य से जुड़ा हुआ मसला नहीं है। दूसरा, महंगाई ने पिछले कुछ महीनों से मतदाताओं को प्रभावित करना शुरू किया, जिसकी वजह कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी है।
इस पर भारत सरकार का कोई बहुत ज्यादा नियंत्रण नहीं होता। सामान्य रूप से, मतदाताओं ने देखा कि केंद्र की संप्रग सरकार इस मामले में हर संभव कोशिश कर रही है, जिससे घरेलू बाजार में कीमतें नियंत्रित रहें। इसलिए अगर इस मामले में कुछ हुआ तो यह कि लोगों ने केंद्र की भूमिका की सराहना की।
इसलिए कि केंद्र सरकार ने कच्चे तेल की कीमतों का प्रभाव कम करने के लिए हर संभव कोशिश की, जिससे कि आम लोगों पर इसका प्रभाव कम से कम पड़े।
एक आश्चर्यजनक पहलू यह भी है कि मतदाताओं ने महंगाई और आतंकवाद दोनो मसलों पर गौर किया, लेकिन पाया कि यह घरेलू कुप्रबंधन का परिणाम नहीं है।
इसके बजाय यह समस्या अंतरराष्ट्रीय बदलाव की वजह से आई। हां, यह सही है कि केंद्र सरकार को और ज्यादा सचेत रहना चाहिए था। ज्यादा प्रभावी कदम उठाने चाहिए थे, जिससे इसके बुरे प्रभावों से बचा जा सके। लेकिन यह तो पूरी तरह से स्पष्ट है कि राज्य सरकारों की किसी लापरवाही के चलते ऐसा नहीं हुआ था।
यही कारण है कि भाजपा द्वारा महंगाई और आतंकवाद को मुद्दा बनाए जाने का फैसला गलत साबित हुआ और मतदाताओं पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
लेकिन अगर संप्रग की बात करें तो अगर उसने महंगाई और आतंकवाद के मुद्दे की अवहेलना की तो यह आत्मघाती कदम होगा। आने वाले लोकसभा चुनावों को देखते हुए इसे पूरी तरह से ध्यान में रखना ही होगा।
निश्चित रूप से आगामी चुनाव में ये मुद्दे रंग दिखाने जा रहे हैं। इसमें याद रखने वाली महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि मतदाताओं ने यह स्वीकार किया कि महंगाई और आतंकवाद, दोनों ही मसले अंतरराष्ट्रीय कारकों से जुड़े हुए हैं।
लेकिन मतदाता यह भी जानते हैं कि केंद्र में सतर्क और सक्षम सरकार के होने से इनके प्रतिकूल असर को कम या खत्म किया जा सकता है।