संसद के मॉनसून अधिवेशन के पहले दिन जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संवाददाताओं से मुखातिब हो रहे थे तो संसदीय कार्य मंत्रालय संभाल रहे तीनों मंत्रियों- प्रह्लाद जोशी, अर्जुन राम मेघवाल और वी मुरलीधरन को उनके अगल-बगल मुस्तैद मुद्रा में दिखना काफी रोचक था। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की लोकसभा में मजबूत स्थिति और राज्यसभा में भी अच्छी हालत होने से संसदीय कार्य मंत्रियों को बहुत कम काम करने की ही जरूरत पड़ती है। अगर विपक्षी दल अध्यादेशों का मुखर विरोध करें तो भी वे बहुत आसानी से कानून बन जाते हैं। प्रश्न काल को किसी से चर्चा किए बगैर ही हटाया जा सकता है। हरेक मुद्दे को आवंटित किए जाने वाले समय का निर्धारण करने वाली कार्य मंत्रणा समिति को भी सरकार की इच्छा के हिसाब से झुकाया जा सकता है।
लेकिन हमेशा ऐसा ही नहीं रहता है। अपनी स्मृति को 30 दिसंबर, 2011 की सर्द शाम की तरफ ले चलते हैं जब लोकपाल विधेयक पर राज्यसभा में चर्चा चल रही थी। उसके एक दिन पहले ही लोकसभा ने इस विधेयक पर मुहर लगा दी थी। वह शीतकालीन सत्र का अंतिम दिन था और सबको मालूम था कि अगर उस दिन वह विधेयक पारित नहीं हुआ तो उसका सरकार पर न केवल राजनीतिक रूप से प्रतिकूल असर पड़ेगा बल्कि विधेयक लंबे समय के लिए लटक भी जाएगा। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) अपने आप में विरोधाभास से भरा गठजोड़ था। संसदीय कार्य मंत्री पवन बंसल ने खुलकर यह बात मानी थी कि गठबंधन के साझेदारों पर किसी भी तरह का कोई नियंत्रण नहीं था, खासकर जब उन्हें सरकार को ब्लैकमेल करने का मौका नजर आने लगे। आखिरी मिनट तक बंसल और उनके सहयोगियों ने सासंदों से निजी स्तर पर गुहार लगाई कि विधेयक पर चर्चा कर उसे पारित कर दिया जाए।
लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। सदन की कार्यवाही देर तक चलती रही और रात करीब 11 बजे राष्ट्रीय जनता दल के सासंद राजनीति प्रसाद ने आसन के समक्ष पहुंचकर विधेयक की प्रति को हवा में उछाल दिया और अपने साथी सदस्यों को नारेबाजी के लिए उकसाया। विपक्ष ने विधेयक में करीब 200 संशोधन रख दिए थे। भले ही संसदीय कार्य मंत्री आधी रात के पहले विधेयक पारित होने को लेकर आश्वस्त थे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बाद में जब मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने इस नाकामी के लिए सरकार से सवाल पूछा तो बंसल ने कहा कि इसकी जिम्मेदारी सदन के सभापति की न होकर सिर्फ और सिर्फ उनकी है। अगले साल बजट सत्र में इस विधेयक को पारित कर दिया गया लेकिन इस देरी की वजह से भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग को लेकर सरकार की प्रतिबद्धता पर सवाल जरूर खड़े किए गए। राज्य सभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने सर्द दिसंबर की आधी रात के उस पूरे वाकये को ‘फ्लीडम ऐट मिडनाइट’ (आधी रात की फरारी) करार दिया था।
मनमोहन सरकार के दोनों कार्यकाल में प्रणव मुखर्जी के रूप में एक सुपर व्हिप हुआ करते थे जो जिद पर अड़े गठबंधन सहयोगियों को रास्ते पर लाने के लिए अपने गुस्से एवं आकर्षण दोनों का इस्तेमाल कर सकते थे। इसका असली परीक्षण भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु सहयोग समझौते के समय हुआ था। सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे वामदलों ने समझौते से नाराज होकर समर्थन वापस ले लिया था जिसके बाद खाली हुई जगह की भरपाई समाजवादी पार्टी ने की और विधेयक को पारित कराने में सहयोग दिया। उस समर्थन के पीछे हुए लेनदेन की पूरी कहानी अब तक सामने नहीं आई है। लेकिन उस समय के संसदीय कार्य मंत्रियों की मेहनत को भी कम करके नहीं आंका जाना चाहिए।
भाजपा की पिछली सरकारों को भी इस तरह की स्थितियों का सामना करना पड़ता था। अटल बिहारी वाजपेयी की अल्पमत सरकार में करिश्माई संसदीय कार्य मंत्री प्रमोद महाजन को भी विधेयक पारित कराने के लिए विपक्ष का साथ लेने में अपनी पूरी क्षमता एवं आकर्षण का इस्तेमाल करना पड़ता था। जब सुषमा स्वराज के पास इस मंत्रालय का प्रभार आया तो उन्होंने पूरी क्षमता एवं संयम से इस काम को बखूबी अंजाम दिया और सियासी विरोधियों से भी प्रशंसा हासिल की। लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने अपनी पार्टी की झुंझलाहट को नजरअंदाज करते हुए कहा था कि सुषमा भारत की अब तक की सबसे अच्छी संसदीय कार्य मंत्री रही हैं।
सुषमा, बंसल और महाजन अपने काम को अंजाम देने के मामले में खरे उतरे क्योंकि हालात की मांग ही ऐसी थी। लेकिन इस समय क्या स्थिति है?
संसदीय कार्य मंत्रालय खुद को सरकार के एक छोटे लेकिन अहम मंत्रालय के रूप में पेश करता है। क्या वास्तव में ऐसा ही है?
अर्थव्यवस्था की हालत बिगडऩे और खर्च घटाने के लिए सरकार पर बने दबाव के बीच सरकार के कम-से-कम दो मंत्रालयों की समीक्षा और आखिर में उनका आकार घटाने की जरूरत है। इनमें से एक तो रक्षा मंत्रालय है। चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) पद के सृजन और नियंत्रण एवं संतुलन के तमाम कदम उठाए जाने के बाद भारत को एक विस्तृत रक्षा मंत्रालय और रक्षा सचिव की जरूरत ही क्यों है? (एक पूर्व रक्षा सचिव ने सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च द्वारा गत वर्ष आयोजित एक सम्मेलन में यही मुद्दा उठाया था।)
इसी तरह मोदी सरकार को संसद में जिस तरह का बहुमत हासिल है, उसमें क्या वाकई में हमें संसदीय कार्य मंत्रालय को मौजूदा स्वरूप में बनाए रखने की जरूरत है? सरकार ने कपड़ा मंत्रालय के तहत गठित हथकरघा एवं पावरलूम बोर्डों को खत्म कर दिया है। क्या उसे संसदीय कार्य मंत्रालय जैसे अवशेषी अंगों पर भी नए सिरे से गौर नहीं करना चाहिए?