बीते एक दशक में जब-जब नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों का जिक्र आया है तो ‘ताकतवर’ शब्द बार-बार देखने को मिला है। प्रश्न यह है कि वर्तमान सरकार वाकई में ताकतवर है या कमजोर? मणिपुर इसकी शुरुआत करने के लिए एक बढ़िया जगह है। अगर आप मोदी और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के समर्थक हैं तो आप कहेंगे मणिपुर प्रकरण से इस तरह निपटना मजबूती का काम है। आलोचकों के लिए यह सबसे बड़ी नाकामी होगा। अगर हम कहें कि दोनों ही जवाब गलत हैं तो? और हां, मैं यह बिल्कुल नहीं कह रहा कि दोनों थोड़े-थोड़े सही हैं।
जवाब यह है कि मणिपुर पूर्वोत्तर पर शासन करने का भाजपा का अनोखा वैचारिक तरीका दिख रहा है, जहां वह पहचान की राजनीति के जिउ जित्सु (जापानी मार्शल आर्ट) जरिये शासन करना चाहती है। अगर पूर्वोत्तर के राज्यों में शासन के लिए छोटी पहचान की राजनीति चुनौती बन रही है तो भाजपा उसका मुकाबला बड़ी पहचान के माध्यम से करना चाहती है। यही वजह है कि हमने जिउ जित्सु का इस्तेमाल किया क्योंकि उस मार्शल आर्ट में आप प्रतिद्वंद्वी की ताकत और वजन का ही इस्तेमाल कर उसे हराते हैं। भाजपा के लिए यह प्रयोग या प्रक्रिया चल रही है। हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं लेकिन पार्टी इस प्रक्रिया को जारी रखना चाहती है।
उनकी नजर में कांग्रेस ने बीते तमाम दशकों के दौरान पूर्वोत्तर में और खासकर जनजातीय राज्यों में पहचान की राजनीति में भयंकर भूल की है। मैं पूर्वोत्तर में काम कर चुके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कई नेताओं से यह बात सुन चुका हूं। भाजपा के कुछ लोग भी इनमें शामिल हैं और उनमें से कुछ दूर से ही सही लेकिन इससे अब भी जुड़ना चाहते हैं।
संक्षेप में उनके कहने का अर्थ है कि कांग्रेस कभी वहां की समस्या से दो-दो हाथ नहीं किए। उसने जनजातीय समूहों और ईसाई प्रभाव को पकड़ बनाने दी। उसने उग्रवाद को शांत करने के लिए केंद्र की ताकत का इस्तेमाल किया लेकिन राजनीतिक रूप से स्थानीय तत्वों के साथ नरमी बरतती रही। ऐसा भारतीय राष्ट्रवाद के बारे में कांग्रेस की कमजोर समझ के कारण हुआ। वह हिंदुस्तान और व्यापक हिंदू बहुमत को राष्ट्रीय इच्छा की अभिव्यक्ति से बाहर रखने पर इस कदर आमादा थी कि उसने कई घावों को बढ़ने दिया। इस प्रकार उसने पूर्वोत्तर के मोर्चे को मुश्किल बनने दिया।
हम बात को और सरल शब्दों में कह सकते हैं कि कांग्रेस ने अपने फायदे के लिए छोटी स्थानीय पहचान की राजनीति का इस्तेमाल तो किया लेकिन केवल वोट बैंक के रूप में। इससे वहां की समस्याएं जस की तस बनी रहीं। संवेदनशील सीमावर्ती क्षेत्र में विविधता बहुत खूबसूरत बात है लेकिन हिंदू हृदय प्रदेश के नजरिये से देखें तो यह राष्ट्रीय हित को प्रभावित करती है। ऐसी जटिल समस्या को हल करने में समय लगेगा और इस दौरान कुछ झटकों के लिए तैयार रहना होगा।
मणिपुर को वैसा ही झटका मानें, लेकिन यह भी देखें कि ‘हम वहां क्या कर रहे हैं- छोटी पहचान (कुकी-ईसाई-म्यांमारवासी) से लड़ने के लिए बड़ी पहचान (मेइती-हिंदू-भारतीय) का सहारा ले रहे हैं।’ हर व्यक्ति जानता है कि हम यानी केंद्र किस ओर है। आप पहचान की राजनीति करना चाहते थे? शौक से कीजिए। मगर जाहिर तौर पर इसके बाद हम छोटी जटिलताओं के शिकार हो जाते हैं।
सबसे नई समस्या वहां के भाजपाई मुख्यमंत्री हैं जो खुद हिंदू हैं और जिनके बारे में पार्टी में कहा जाता है कि मेइती लोगों के तो वह भगवान हैं, उन्होंने राज्यपाल को एक ज्ञापन सौंपा और केंद्रीय बलों पर नियंत्रण की मांग की।
ठीक पहले उनके दामाद ने इन बलों को हटाने की मांग की थी। मुझे ऐसा दूसरा उदाहरण नहीं नजर आता जहां केंद्र पर शासन कर रहे दल का मुख्यमंत्री, केंद्र द्वारा पदस्थ राज्यपाल के पास जाए और केंद्रीय बलों पर नियंत्रण की मांग करे यानी परोक्ष रूप से उन्हें हटाए जाने की। मानो वह कह रहे हों- अगर आप चाहते हैं कि हम मेइती हिंदू बनाम कुकी की लड़ाई लड़ें तो इसे हम पर छोड़ दीजिए। हमारे पास हथियार हैं, संख्या बल है और ताकत है बशर्ते कि आपके केंद्रीय बल रास्ते में न आएं। हम पुराने सवाल पर लौटते हैं: यह मजबूत सरकार है या कमजोर?
पार्टी तब जरूर खुद को मजबूत महसूस करती होगी जब उसके भीतर यह मांग उठती है कि मौजूदा विरोध प्रदर्शनों को देखते हुए संविधान के अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल करके पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार को बर्खास्त कर दिया जाए। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल कैमरे पर टेलीप्रॉम्पटर पढ़ते हुए धमकी दे रहे हैं कि वह संविधान का इकबाल बरकरार रखने के लिए शासन की बागडोर अपने हाथ में लेने के लिए तैयार हैं। तब पार्टी अपने ही मुख्यमंत्री का क्या करेगी, जिसके राज्य की आबादी पश्चिम बंगाल की आबादी के बमुश्किल पांच फीसदी है और जो मांग कर रहा है कि केंद्रीय बलों का नियंत्रण उसे सौंपा जाए या उन्हें वापस बुलाया जाए?
मणिपुर में भाजपा का नजरिया है कि राज्य में विदेशी घुसपैठिये और सशस्त्र ईसाई कुकी आदिवासी हमला कर रहे हैं और सरकार बहुत शानदार काम करते हुए हिंदू मेइती समुदाय का बचाव कर रही है। भले ही उनकी आबादी कुकी की तुलना में तीन गुना हो। आप इस मजबूत लड़ाई को रोकने के लिए अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल नहीं करते। अगर आप आलोचक हैं तो आप इसे विशुद्ध नाकामी मानेंगे। राज्य सशस्त्र अराजकता का शिकार हो चुका है। ठीक है तकनीकी लिहाज से वह अलग दौर था मगर कश्मीर, पंजाब या नागालैंड और मिजोरम में चरम उग्रवाद के दौर में या पूर्वी-मध्य भारत के माओवादी इलाकों में कभी 10 किलोमीटर तक मार करने वाले रॉकेट और ड्रोन के जरिये बम नहीं दागे गए।
यह पूछने पर आपको जवाब मिलेगा: सीमापार देखिए। खतरा वहां से आ रहा है। देखिए म्यांमार की हालत क्या है। परंतु म्यांमार की स्थिति तो हमेशा ऐसी ही खस्ता थी और भारत की सीमा से लगे उसके उत्तरी इलाके में तो खास तौर पर हमेशा बिखराव रहा। आज म्यांमार की सेना नाटकीय गति से नियंत्रण खो रही है। इसका यह मतलब तो नहीं कि भारत अपनी सेना भेजकर वहां व्यवस्था बनवाए। भारत का काम अपने यहां की व्यवस्था बनाना है।
चूंकि पूर्वोत्तर पर भाजपा का रुख हिंदू पहचान और उसके वैचारिक राष्ट्रवाद से चल रहा है तो पार्टी यह नहीं कह सकती है यह कारगर नहीं है। मगर इस रुख ने मणिपुर में कुछ पुराने जख्म कुरेद दिए हैं और दूसरे घाव भी सामने आ गए हैं। मोदी सरकार ने पहले कार्यकाल में नागा विद्रोहियों (एनएससीएन) के साथ अंतिम फ्रेमवर्क समझौता करके पूर्वोत्तर में एक शानदार शुरुआत की थी।
मोदी ने अपने आवास पर एक टेलीविजन कार्यक्रम में इसे ऐतिहासिक माना था और वहां नगा नेता भी मौजूद थे। उसके 10वें साल में कोई हलचल नहीं है। केंद्र के पहले वार्ताकार खुफिया ब्यूरो के पूर्व विशेष निदेशक आर.एन. रवि इस समय तमिलनाडु के राज्यपाल हैं जबकि एनएससीएन ने 2020 में ही उन पर फ्रेमवर्क समझौते के साथ छेड़खानी का इल्जाम लगाया था।
उनके उत्तराधिकारी एके मिश्रा (वह भी खुफिया ब्यूरो के विशेष निदेशक रह चुके हैं) सक्रिय नहीं हैं और गुरुवार को नागालैंड सरकार द्वारा बुलाई गई एक बड़ी बैठक जिसमें नागरिक समाज, जनजातीय और चर्च के नेता शामिल थे, में यह मांग रखी गई कि संवाद को मंत्री स्तर या राजनैतिक स्तर तक बढ़ाया जाए। एनएससीएन ने यह भी कहा कि देर करने से नुकसान बढ़ेगा।
अगर नौ साल में नगालैंड में कोई प्रगति नहीं हुई और वह कुछ हद तक पीछे ही चला गया तो इस बीच नई अप्रत्याशित जगहों से चिंगारियां निकल रही हैं, खास तौर पर एनआरसी/सीएए की प्रतिक्रिया में। खासी छात्र संगठन ने बाहरी लोगों के विरुद्ध अपना आंदोलन तेज कर दिया है। गत माह मेघालय विधानसभा ने मेघालय आइडेंटिफिकेशन, रजिस्ट्रेशन (सेफ्टी ऐंड सिक्योरिटी) ऑफ माइग्रेंट वर्कर्स अमेंडमेंट बिल, 2024 पारित कर दिया। अब निरीक्षकों के पास ‘बाहरी’ कर्मचारियों की पहचान, पंजीयन और उन्हें चिह्नित करने के अधिक अधिकार होंगे।
मिजोरम में भी 1986 के शांति समझौते के बाद से शांति थी और वह भारत के सबसे शांत तथा कानून सम्मत क्षेत्रों में था। अब वहां भी पहचान का मुद्दा फिर से उठ रहा है और यह सीमापार तक फैल रही समस्या है। मुख्यमंत्री लाल्डुहोमा भी सबसे बड़ी मिजो जनजाति के पक्ष में आवाज उठाकर ग्रेटर मिजोरम की मांग नए सिरे से उठा रहे हैं। असम में हाल ही में खूनी संघर्ष हुए हैं जहां भाजपा एक पहचान (बंगाली मुसलमान) को दूसरी पहचान (हिंदू) से भिड़ाने में जुटी है।
2014 से ही भाजपा ने इस क्षेत्र पर केंद्र के रुख में वैचारिक और दार्शनिक किस्म का बदलाव किया है। परंतु पूर्वोत्तर के राज्यों के लिए इसके परिणाम अब तक बुरे ही साबित हुए हैं। मणिपुर इसका ज्वलंत उदाहरण है। लेकिन भाजपा के लिए काम अभी चल रहा है। उसके लिए यह वैचारिक, दार्शनिक और बिना शक राजनीतिक काम है।