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निवेश में कमी और कारोबारी उत्साह

Last Updated- December 15, 2022 | 1:23 AM IST

भारतीय अर्थव्यवस्था में गिरावट का सिलसिला नया नहीं है और यह पिछले कई वर्षों से चला आ रहा है। कोविड-19 महामारी तो केवल पहले से चली आ रही समस्या को और अधिक गंभीर बना रही है। इसकी एक बड़ी वजह है निवेश में कमी। इस संदर्भ में बार-बार कारोबारी उत्साह की भावना में नई जान फूंकने की बात आती है। कहा जाता है कि इससे निवेश को गति मिल सकती है। क्या यह रुख सही है?
वास्तविक निवेश और वित्तीय निवेश के बीच अंतर करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। वित्तीय निवेश के मामले में कारोबारी भावना उत्साह की भावना की भूमिका मायने रखती है। परंतु अगर हम वास्तविक निवेश की बात करें तो यह सही है कि अक्सर सर्वेक्षणों में कारोबारियों में उत्साह, आत्मविश्वास और वास्तविक निवेश के बीच सह संबंध दर्शाया जाता है। परंतु उनका आपसी संबंध उसी कार्य-कारण सिद्धांत पर आधारित नहीं है।
मान लेते हैं कि सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की वृद्धि दर में गिरावट, मुनाफा और ऋण क्षमता के कारण वास्तविक निवेश में गिरावट आती है। इसके अतिरिक्त यह भी मान लेते हैं कि ऐसे कारक उन कंपनियों के प्रबंधन की तथाकथित कारोबारी उत्साह की भावना में भी कमी लाते हैं जिससे शायद वास्तविक निवेश हो सकता था। ऐसे में कारोबारी उत्साह और वास्तविक निवेश के बीच सह संबंध है लेकिन उनमें एक दूसरे को लेकर कोई कार्य-कारण सिद्धांत काम नहीं करता। तथ्य तो यह है कि कमजोर कारोबारी उत्साह और कम वास्तविक निवेश दर दोनों के पीछे एक समान आर्थिक कारक हैं। बल्कि हमारे देश में यह स्थिति पिछले काफी समय से बनी हुई है।
यह सही है कि कमजोर कारोबारी भावना और कम वास्तविक निवेश दर के पीछे एक समान वजह हो सकती हैं जबकि कमजोर कारोबारी भावना वास्तविक निवेश को अलग से भी प्रभावित करती है। यहां कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि कारोबारी भावना की वास्तविक निवेश दर को कम करने में किसी न किसी तरह की भूमिका होती है। हालांकि आमतौर पर यह प्रभाव दूसरी श्रेणी का होता है। यही सारी वजह हैं जिनके चलते वास्तविक निवेश के निर्धारण में कारोबारी उत्साह की भावना को बहुत बढ़ाचढ़ा कर पेश किया जाता है।
वित्तीय निवेश और वास्तविक निवेश के मामलों में कारोबारी उत्साह की भूमिका में अंतर क्यों है? सामान्य परिवार, जो निवेश की जटिलताओं से परिचित नहीं होते वे वित्तीय बाजारों में निवेश करते हैं। ये परिवार गलतियां कर सकते हैं। वे किसी न किसी तरह पेशेवर फंड प्रबंधकों के हाथों भी बंधे होते हैं जिन पर कम बेचने और अधिक खरीदारी करने का दबाव डाला जा सकता है। यह बात वास्तविक निवेश पर लागू नहीं होती। कम से कम बड़ी कंपनियों में तो बिल्कुल नहीं। ऐसा क्यों? पहला, शेयरों के बदले में भुगतान नहीं लिया जा सकता है और दूसरा, अंशधारकों को कोई खास कारोबारी लोकतांत्रिक अधिकार हासिल नहीं होते।
कारोबारी उत्साह शब्द सन 1930 के दशक की महामंदी के दौरान लोकप्रिय हुआ। उसके बाद शेयर बाजारों में भारी गिरावट आई, कमजोर कारोबारी भावना ने भी बाजार में अपनी भूमिका निभाई। बहरहाल प्रमुख मुद्दा जो इस संदर्भ में अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कींस को परेशान कर रहा था वह अलग था। उन्होंने देखा कि विभिन्न फर्म वास्तव में अपने स्तर पर काफी तार्किक ढंग से सीमित पूंजी निर्माण पर काम कर रही थीं। क्योंकि बाजार में मौजूदा परिसंपत्ति काफी कम दाम पर उपलब्ध थी। कींस का प्रमुख मुद्दा यह नहीं प्रतीत होता था कि प्रबंधन में कमजोर कारोबारी भावना, वास्तविक निवेश दर में कमी की प्रमुख वजह है।
यह सही है कि कींस ने वास्तविक निवेश के निर्धारण से जुड़ी कठिनाइयों को लेकर मुखर ढंग से विचार-विमर्श किया। परंतु फ्रैंक नाइट सन 1921 में ही अपनी पुस्तक रिस्क, अनसर्टेनिटी ऐंड प्रॉफिट नामक पुस्तक में यह बता चुके थे कि इन कठिनाइयों से किस प्रकार निपटा जाए। उनका मुख्य निष्कर्ष यह था कि चूंकि दीर्घकालिक वास्तविक निवेश कठिन हैं इसलिए मुनाफे को एक पुरस्कार मानना महत्त्वपूर्ण तर्क है। परंतु ऐसा आवश्यक नहीं है कि कारोबारी उत्साह की भावना वास्तविक निवेश का महत्त्वपूर्ण निर्धारक हो ही।
यह जगह आधुनिक सैद्धांतिक अर्थशास्त्र में कारोबारी उत्साह की भावना के बारे में गहराई से पड़ताल करने की नहीं है। सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि विचारों को आजमाने का काम वित्तीय बाजारों, मुद्रा बाजारों और बैंकिंग की दुनिया में अधिक होता है, बजाय कि वास्तविक निवेश की दुनिया में।
हालांकि कमजोर कारोबारी भावना बरकरार रह सकती है और वित्तीय बाजारों में यह पहले भी प्रभावी रही है लेकिन यह बात दिलचस्प है कि बीते कुछ वर्षों में चंद छोटी अवधि को छोड़कर भारतीय शेयर बाजार में कारोबारी भावना कमजोर नहीं रही है। इसके साथ ही हालांकि बैंक ऋण फिलहाल कमजोर है लेकिन यह प्राथमिक तौर पर परिसंपत्ति गुणवत्ता समीक्षा, पूंजी की कमी और कानूनी, नियामकीय तथा उस संस्थागत माहौल का परिणाम है जिसमें सरकारी बैंक परिचालित होते हैं।
ऐसे में फिलहाल तो भारत में वित्तीय क्षेत्र में भी कमजोर कारोबारी उत्साह की कमी की स्थिति बनना कठिन है। जब वास्तविक निवेश कम हो तो सरकार अक्सर कर रियायत तथा अन्य रियायत देने की प्रवृत्ति रखती है। कारोबारी उत्साह की भावना जागृत करने वाली बातें भी की जाती हैं। मोटे तौर पर देखें तो इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। जरूरत केवल एक ऐसी नीति की है जो बुनियादी दिक्कतों को दूर करने का काम करे।
(लेखक भारतीय सांख्यिकीय संस्थान, दिल्ली केंद्र के अतिथि प्राध्यापक हैं)

First Published - September 24, 2020 | 1:03 AM IST

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