सरकार और किसानों के बीच गतिरोध खत्म हो गया है। हालांकि, सभी 23 फसलों के लिए कानूनी रूप से गारंटी युक्त न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की मांग कायम है।
अनियमित मुक्त बाजार ऐसे नतीजों वाले हालात पैदा करता है जो किसानों और उपभोक्ता दोनों के लिए हानिकारक है। मौसम के हिसाब से कृषि उत्पादन होने से बड़ी तादाद में ऐसे किसान एक ही समय में बाजार में आते हैं जिनके पास फसलों को रखने के लिए संसाधनों की कमी है। जब बंपर फसल होती है तब कीमतें गिरती हैं और कम कीमतों की वजह से बढऩे वाली मांग भी किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए पर्याप्त नहीं है, विशेष रूप से जो खाद्य फसलों का उत्पादन कर रहे हैं। जीवन की बुनियादी आवश्यकताएं होने के बावजूद अगर इनकी कीमतें गिरती हैं तब भी उपभोक्ता खाद्य फसलों की बहुत अधिक मांग नहीं करता है।
वहीं दूसरी तरफ, औद्योगिक उत्पादक कीमतों में गिरावट के बावजूद फायदा कमा सकते हैं क्योंकि उनके पास इकाई लागत में कटौती करने का विकल्प होता है लेकिन कृषि क्षेत्र में मौसम, मिट्टी की उर्वरता और पानी की उपलब्धता की अनिश्चितता का मतलब यह है कि ज्यादातर किसानों के लिए बड़े पैमाने पर प्रतिफल मिलना बहुत मुश्किल है। इस प्रकार, बंपर फसल के चलते भारत के अधिकांश लघु और सीमांत किसानों की खेती से होने वाली कमाई में अनिवार्य रूप से कमी आती है। इन किसानों के लिए सबसे अच्छा समय भी सबसे बुरा है।
इसी तरह खाद्यान्न के अनियमित बाजारों का बोलबाला बढऩे से गरीब उपभोक्ता सूखा पडऩे के दौरान या तो भूखे रहते हैं या कंगाल हो जाते हैं और उन्हें बहुत महंगी वस्तुएं खरीदने के लिए मजबूर किया जा रहा है जिनकी जमाखोरी व्यापारी करते हैं। यही कारण है कि किसानों और उपभोक्ताओं दोनों की सुरक्षा के लिए राज्य ने कृषि मंडियों में कम से कम 50 वर्षों तक हस्तक्षेप किया है। भारतीय खाद्य निगम और कृषि मूल्य आयोग, दोनों की स्थापना 1965 में की गई थी।
विचार यह था कि कृषि उत्पादन, हरित क्रांति (जीआर) के साथ बढ़ता है और इसीलिए किसानों को आश्वासन दिया जाना चाहिए कि इस अतिरिक्त फसल को सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदेगी जो उनकी लागत को पूरा करने के बाद, उन्हें मार्जिन देने के लिए पर्याप्त होगा। इसके बाद खरीदी गई फसलों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के माध्यम से रियायती दरों पर उपभोक्ताओं को उपलब्ध कराया गया। इस प्रकार, सरकार के हस्तक्षेप से बंपर फसलों की पैदावार और बफर स्टॉक में कमी के वक्त यानी सूखे के दौरान उपभोक्ताओं की मदद की गई। इस तरह भारत को पिछले कई दशकों में खाद्य सुरक्षा मिली।
समस्या यह है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) केवल चावल और गेहूं तक ही सीमित रहा है और यह देश के केवल कुछ क्षेत्रों तक ही केंद्रित रहा है और इसके दायरे में किसानों का एक बहुत छोटा अनुपात ही शामिल होता है। कानूनी रूप से गारंटीशुदा एमएसपी की मांग के पीछे यही सोच है।
यह तर्क दिया जाता है कि एक कानूनी गारंटी से ही यह सुनिश्चित होगा कि सरकार, वास्तव में उन फसलों की खरीद निश्चित रूप से करेगी जिनके लिए वह एमएसपी की घोषणा करेगी। कानूनी गारंटी न होने की वजह से हर साल 23 फसलों के लिए एमएसपी की घोषणा की जाती है लेकिन यह महज एक सांकेतिक घोषणा भर बनकर रह जाती है और ज्यादातर किसानों को इसका कम ही लाभ मिलता है।
भारत के लगभग 90 प्रतिशत पानी की खपत कृषि क्षेत्र में होती है और इसमें से 80 प्रतिशत का उपयोग सिर्फ चावल, गेहूं और गन्ने की खेती के लिए किया जाता है। किसान ज्यादा पानी की जरूरत वाली फसलों को वैसे क्षेत्रों में भी उगाते हैं जहां पानी की कमी है क्योंकि सार्वजनिक खरीद के रूप में चावल और गेहूं का एक निश्चित बाजार है। इसकी वजह से ही जल संकट बढ़ जाता है।
हाल ही में इकॉनमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के एक शोध पत्र में हमने 11 प्रमुख राज्यों के लिए विस्तृत गणना की है, जो यह दर्शाती है कि फसल के पैटर्न में विविधता लाते हुए और विभिन्न प्रकार के मोटे अनाज (जिसे अब पौष्टिक अनाज कहा जाता है) दालें और तिलहन को शामिल कर पानी बचाया जा सकता है जो प्रत्येक क्षेत्र की कृषि पारिस्थितिकी के अनुकूल है। बदलाव लाने और किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए सरकारों को खरीद कार्यों में जुटना ही चाहिए। इसके बाद खरीदी गई फसलों को स्थानीय स्तर पर आंगनबाड़ी अनुपूरक पोषाहार और स्कूलों के मिड-डे मील कार्यक्रमों में शामिल किया जाना चाहिए।
इसका अर्थ यह होगा कि किसानों के लिए एक बड़ा और स्थिर बाजार तैयार होगा जिससे भारत अब कुपोषण और मधुमेह जैसी दो परेशानियों से आसानी से निपट सकता है क्योंकि इन फसलों में बहुत कम ग्लाइसेमिक इंडेक्स होता है और इसमें आहार के लिए जरूरी फाइबर, विटामिन, खनिज, प्रोटीन और ऐंटीऑक्सीडेंट की बड़ी मात्रा होती है।
इसलिए न्यूनतम समर्थन मूल्य आधारित सार्वजनिक खरीद का विस्तार करने और इसमें विविधता लाने की बात पूरी तरह से स्थापित हो चुकी है। सवाल सिर्फ इतना है कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सबसे अच्छा रास्ता क्या है? यह समझने की आवश्यकता है कि वास्तव में एमएसपी को कानूनी जामा पहनाने का क्या अर्थ है। जाहिर है कि अगर इसका अर्थ कृषि व्यापार का राष्ट्रीयकरण करना है जहां सरकार सभी कृषि फसलों को खरीदेगी तब यह पूरी तरह नाकामी में तब्दील होगा। साम्यवादी देशों ने भी इसका प्रयास नहीं किया है। इस तरह के दंडात्मक शासन को लागू करना बहुत मुश्किल होगा और आखिर में उल्टा यह नुकसानदायक होगा।
अगर हमें कानूनी न्यूनतम समर्थन मूल्य की बात करनी है तो इसके लिए महत्त्वपूर्ण यह है कि आवश्यक संसाधन (जैसे मनरेगा के तहत) के माध्यम से इस गारंटी का समर्थन किया जाए और यह एक समय-सीमा के भीतर केंद्र और राज्य सरकारें क्षेत्रीय कृषि पारिस्थितिकी के अनुरूप अपने खरीद पोर्टफोलियो का विस्तार करेंगी और उसमें विविधता लाएंगी।
यह अच्छी बात है कि भारत सरकार ने अपनी 2018 पीएम-आशा योजना के माध्यम से पहले ही कुछ इसी तरह के प्रस्ताव दिए गए हैं जिसमें उस विशेष मौसम के लिए फसल के वास्तविक उत्पादन का 25 प्रतिशत सरकार द्वारा खरीदा जाएगा (अगर कोई जिंस सार्वजनिक वितरण प्रणाली का हिस्सा है तो उसका विस्तार 40 फीसदी तक किया जाएगा)। ओडिशा जैसे कुछ राज्य सरकारों ने भी कृषि माहौल के अनुरूप अधिक उपयुक्त फसलों की विकेंद्रीकृत खरीद शुरू की है।
‘घाटे वाला मूल्य भुगतान’ तंत्र भी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है जिसके तहत सरकार किसान को बाजार मूल्य और न्यूनतम समर्थन मूल्य के बीच के अंतर का भुगतान करती है। एक बार जब सरकार द्वारा खरीदा गया अनाज जरूरतमंद लोगों तक पहुंचेगा तब किसानों के पास वास्तव में खरीदार का एक विकल्प होगा और उनके लिए अपने फसल उत्पाद के लिए एक लाभकारी कीमत मिलने की संभावना होगी। लेकिन उसके लिए पीएम-आशा को गंभीरता से लागू करने की जरूरत है जो अब तक नहीं हो पाया है।
निस्संदेह, किसान और सरकार दोनों को यह स्वीकार करना होगा कि केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था में सुधार से कृषि संकट का समाधान नहीं होगा। जर्नल इकोलॉजी, इकनॉमी ऐंड सोसाइटी में प्रकाशित होने वाले आगामी शोध पत्र में मैंने भारत के नीतिगत ढांचे में 11 अंतर-संबंधित बाधाओं को रेखांकित किया है जिन्हें खत्म करने की जरूरत है और इसके बिना भारत के किसानों के लिए टिकाऊ संपन्नता दूर का एक सपना होगा।
इन सुधारों में निवेश के असमान क्षेत्रीय वितरण को दुरुस्त करना शामिल है जिसके कारण भारत की शुष्क भूमि की बड़े पैमाने पर उपेक्षा हुई है। कुछ फसलों पर ध्यान देते हुए जिंस आधारित अनुसंधान एवं विकास पर जोर देने के बजाय खेती की एक पूरी प्रणाली की समझ बनाने की ओर बढऩा, सब्सिडी के पैटर्न में फेरबदल करना जो रासायनिक इनपुट के पक्ष में है और इसके अलावा सीमित हरित क्रांति से इतर मृदा की समझ बढ़ाना, रासायनिक इनपुट को नियंत्रित करने वाले कानूनी और नियामकीय ढांचे को मजबूत करना, नए स्तर पर सार्वजनिक कृषि के विस्तार को बहाल करना, सुरक्षित और पौष्टिक भोजन के लिए फसल कटाई के बाद के लिए जरूरी बुनियादी ढांचे में बड़े पैमाने पर निवेश करना, 50 साल पुराने हरित क्रांति मानक से इतर कृषि शिक्षा में बदलाव और सुधार लाना अहम होगा।
