कच्चे तेल की बढ़ती कीमतें, कमोडिटी की कीमतों में उछाल और वैश्विक खाद्य संकट को देखते हुए महंगाई दर में तेजी अचरज का विषय नहीं है।
हालांकि इसमें इस कदर उछाल होगा, इसकी उम्मीद नहीं थी। महीने भर के अंदर महंगाई दर 5 फीसदी से उछलकर 7 फीसदी तक पहुंच गई। इस उछाल ने सरकार, उपभोक्ताओं और अन्य क्षेत्रों को कमजोर स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया।
खाद्य तेलों, स्टील और लौह अयस्क की कीमतों में हुई बढ़ोतरी ने महंगाई की छलांग में अहम भूमिका निभाई है। दिलचस्प बात यह है कि अगर सरकार कच्चे तेल की कीमतों में हो रही बढ़ोतरी को पूरी तरह उपभोक्ताओं तक पहुंचा देती, तो शायद हमें महंगाई का और रौद्र रूप देखने को मजबूर होना पड़ सकता था। 22 मार्च को जारी महंगाई संबंधी आंकड़े में तेजी की वजह लौह अयस्क की कीमतों की देरी से हुई समीक्षा है।
जून 2004 में भी हमें कुछ ऐसी परिस्थिति का सामना करना पड़ा था, जब हफ्ते भर के अंदर लौह अयस्क की कीमतों में 100 फीसदी तक बदलाव करना पड़ा था। उस वक्त कीमतों की समीक्षा में देरी की वजह से महंगाई दर में हुई भयंकर तेजी ने सबको हैरान कर दिया था। इसी तरह हाल में महंगाई की दर में आई अचानक तेजी ने भय का माहौल बना दिया। सरकार ने इस दहशत के मद्देनजर महंगाई दर को काबू में करने के लिए आननफानन में कई उपायों का ऐलान कर डाला।
महंगाई की दर में ‘हैरान’ और ‘परेशान’ करने वाले दो पहलू और इसे रोकने के लिए उठाए गए कदम दो अहम सवाल उठाते हैं। पहला सवाल महंगाई दर पर काबिल निगरानी तंत्र के वजूद व दूसरा महंगाई को रोकने के लिए किए जा रहे उपायों की प्रभावोत्पादकता से जुड़ा है।
प्रभावी निगरानी तंत्र हो
खाद्य और कमोडिटी की कीमतों में आग लगने की वजह से पूरी दुनिया में महंगाई दर में तेजी का आलम है। विश्व बैंक समूह का अनुमान है कि खाद्य और ऊर्जा से जुड़ी चीजों की कीमतों में आई भयंकर तेजी की वजह से तकरीबन 33 देशों में सामाजिक उथलपुथल की आशंका पैदा हो गई है। कुछ देशों में पहले ही खाद्य संकट की वजह से झगड़े-फसाद होने की खबरें मिल रही हैं।
वैश्विक कीमतों में हो रही बढ़ोतरी से भारत अब तक अलग-थलग रहा है। इस साल जनवरी से मार्च के दौरान विश्व के बाजारों में गेहूं और चावल की कीमतों में जबर्दस्त उछाल देखने को मिला है। इसकी तुलना में इस दौरान भारत में गेहूं और चावल की महंगाई दर में सिर्फ 7 और 0.9 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है।
2003-04 और 2007-08 के बीच गेहूं के उत्पादन में सालाना महज 0.9 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई, जो आबादी की बढ़त दर के मुकाबले काफी कम है। इस वजह से गेहूं के घरेलू बफर स्टॉक में भारी कमी हो गई। नतीजतन, हम धीरे-धीरे आयात पर निर्भर होते जा रहे हैं।
अगर गेहूं का घरेलू उत्पादन घटता है, तो खर्चीला आयात घरेलू मुद्रास्फीति पर काफी दबाव बनाएगा। खाद्य तेल से जुड़ी हुई फसलों के साथ भी यही बात लागू होती है। हाल में ‘कॉल ऑप्शन’ के तहत गेहूं की खरीद संबंधी ऐलान में जो कीमतें तय की गई हैं, वह भारतीय किसानों को मिलने वाली राशि से बहुत ज्यादा है।
सिर्फ कमोडिटीज मसलन खाद्य तेलों के मामले में वैश्विक हलचलों का असर भारत में महंगाई की दर पर पड़ा है। इसकी वजह यह है कि इन चीजों के लिए हम काफी हद तक आयात पर निर्भर हैं। हालांकि इसमें सोयाबीन तेल अपवाद जान पड़ता है। इस तेल की अंतरराष्ट्रीय दर काफी तेज होने के बावजूद 22 मार्च को खत्म हफ्ते में इसमें सिर्फ (थोक मूल्य सूचकांक के मुताबिक) 5.6 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई।
हालांकि एनसीडीईएक्स के आंकड़ों के मुताबिक, इसी अवधि में सोयाबीन तेल की कीमतों में 42 फीसदी का उछाल देखेने को मिला। ऐसा लगता है कि थोक मूल्य सूचकांक में इसी अवधि की सोयाबीन तेल की कीमतों की अब तक समीक्षा नहीं की गई है। साफ है कि थोक मूल्य सूचकांक डेटा को सही वक्त पर अपेडट करने का मसला भी काफी महत्वपूर्ण है।
जब तक महंगाई की दर पर निगरानी के लिए ठोस उपाय की तैयारी नहीं होती, थोक मूल्य सूचकांक डेटा को अपडेट करने की पूरी कोशिश होनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है, तो मंहगाई की दर में अप्रत्याशित बढ़ोतरी हमें चौंकाती रहेगी।
उपाय कैसे होंगे कारगर?
कीमतों की आग को बुझाने के लिए सरकार ने राजकोषीय और व्यापार संबंधी उपायों का ऐलान किया है। इसके तहत खाद्य तेलों पर डयूटी में कटौती की गई है और निर्यात पर पाबंदी लगाई गई है। इसके अलावा स्टील कंपनियों को कीमतें कम करने के लिए राजी किया जा रहा है।
इन सारे उपायों का महंगाई की दर पर काफी सीमित असर होगा। हकीकत यह है कि जैसे ही भारत आयात के लिए कदम बढ़ाएगा, वैश्विक खाद्य पूर्ति के हालात को देखते हुए अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें भी तेज हो जाएंगी। इसके लिए हाल में कुछ देशों द्वारा निर्यात को नियंत्रित करने से वैश्विक खाद्य आपूर्ति प्रणाली की हालत और बदतर हो गई है।
ऐसी परिस्थिति में सरकार द्वारा कीमतों को काबू में रखने के लिए उठाए जाने वाले कदम नकारात्मक संकेत पेश कर सकते हैं। पिछले कुछ महीनों में चीन समेत कई देशों ने बिजली, खाद्य पदार्थों और उर्वरकों की कीमतों को नियंत्रित किया है। सवाल यह पैदा होता है कि कीमतों पर नियंत्रण महंगाई से लड़ने में मददगार है?
मेरी राय में ऐसा नहीं है। इसकी वजह से संसाधनों के आवंटन में गड्डमड्ड जैसी स्थिति के अलावा इसकी कमी भी हो जाती है, जो लंबे समय में कीमतों की स्थिरता को बुरी तरह से प्रभावित करता है। कीमतों में नियंत्रण जैसे उपाय को सिर्फ अकाल या ऐसी अन्य परिस्थिति में ही जायज ठहराया जा सकता है।
महंगाई की दर में हो रही बढ़ोतरी वैश्विक परिस्थितियों के अलावा लंबे समय तक कृषि की उपेक्षा का नतीजा है। खाद्यान्न की बढ़ती खपत को देखते हुए हमें कृषि क्षेत्र की उत्पादकता को ध्यान में रखकर नीतियां बनाने की जरूरत है, ताकि इस मामले में आत्मनिर्भरता हासिल की जा सके।
वैश्विक खाद्य संकट के फिलहाल बने रहने की आशंका है। जब तक खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता हासिल नहीं की जाती, तब तक कमजोर तबके के लोगों के लिए सब्सिडी और अनाज का वितरण जैसे कार्यक्रम को प्रभावकारी तरीके से चलाया जा सकता है। इस कार्यक्रम की अपनी सीमाओं के बावजूद यह कीमतों को नियंत्रित करने की कवायद से ज्यादा प्रभावकारी होगा।
(लेखक क्रिसिल के निदेशक और मुख्य अर्थशास्त्री हैं। लेख में प्रकाशित उनके विचार निजी हैं।)