भारत की आबादी अभी भी बहुत युवा है और करीब 55 प्रतिशत लोग 30 वर्ष से कम आयु के जबकि 25 फीसदी आबादी 15 वर्ष से कम उम्र की है। देश की एक अरब से अधिक की श्रम योग्य आयु की आबादी के पास रोजगार और आर्थिक वृद्धि को लेकर जबरदस्त क्षमता और संभावना है। मैंने19 वर्ष पहले आगाह किया था कि यह जनांकीय लाभ सही नीतियों के अभाव में विफल हो सकता है। तब से अब तक तमाम सरकारों की नीतियां और क्रियान्वयन के तरीके गलत या कमजोर रहे। इनमें एक कमजोर सार्वजनिक शिक्षा और कौशल व्यवस्था शामिल है। श्रम कानून जटिल हैं और रोजगार निर्माण के लिए मददगार नहीं हैं, विदेशी व्यापार और विनिमय दर नीतियां श्रम आधारित निर्यात और आयात प्रतिस्पर्धी घरेलू उत्पादन को हतोत्साहित करती हैं। बुनियादी ढांचा भी कमजोर है और वह उत्पादकता तथा संचार और नोटबंदी जैसे टाले जा सकने वाले नीतिगत झटकों को प्रभावित करता है। इस बात के प्रमाण बहुत बढ़ रहे हैं कि लाभांश का क्षय हो रहा है और यह युवा भारत के लिए खराब परिणाम ला सकता है।
इसी समाचार पत्र में प्रकाशित एक आलेख में सेंटर फॉर मॉनिटरिंग द इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) के प्रमुख महेश व्यास ने कहा था कि विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक 15 से 24 आयु वर्ग के युवाओं के लिए रोजगार दर 2020 में 23.2 फीसदी थी जबकि उत्तरी अमेरिका में यह 50.6 फीसदी, ओईसीडी देशों में 42 फीसदी, पाकिस्तान में 38.9 फीसदी और बांग्लादेश में 35.3 फीसदी थी। इन्हीं आंकड़ों से पता चला कि 15 से 24 की आयु के युवाओं की रोजगार दर भी 1994 के 43.4 प्रतिशत से कम होकर 2005 में 40.5 प्रतिशत और 2020 में 23.2 प्रतिशत हो गई।
व्यास के मुताबिक विश्व बैंक राष्ट्रीय, आधिकारिक आंकड़ों पर भरोसा करता है और इन आंकड़ों में रोजगार की परिभाषा भी काफी शिथिल होती है। सीएमआईई के अपने आंकड़े कहीं अधिक सख्त परिभाषा पर यकीन करते हैं जो बताते हैं कि सभी आयु वर्ग के लिए रोजगार दर तेजी से गिरी और वह 2016-17 के 20.9 फीसदी से घटकर 2021-22 में 10.4 फीसदी रह गई।
आइए अब बात करते हैं आधिकारिक आंकड़ों की जो राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय से लिए गए हैं। इस कार्यालय की स्थापना 2019 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय तथा केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय के विलय से की गई थी। 2017-18 तक ये सर्वे हर पांच-सात वर्ष पर किए जाते थे। तब से इन्हें सालाना कर दिया गया। इस स्रोत से जारी ताजा आंकड़े 2020-21 के हैं तथा वे 15-29 वर्ष के लोगों का जिक्र करते हैं जो वास्तव में युवाओं की कहीं अधिक व्यापक परिभाषा है।
इन आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार युवाओं में रोजगार की दर ने समय के साथ ऐसा ही रुझान दर्शाया है। यह 2004-05 के 53.3 फीसदी से गिरकर 2017-18 में और उसके बाद 30 फीसदी या उससे भी कम हो गई। कोविड से प्रभावित वर्ष 2020-21 में अवश्य इसमें थोड़ा सुधार नजर आया। इन्हीं आंकड़ों में खुली बेरोजगारी के आंकड़ों में परेशान करने वाली तेजी भी नजर आई और यह 2004-05 के पांच-छह प्रतिशत से बढ़कर 2017-18 और 2018-19 में 17-18 फीसदी हो गई। हालांकि 2019-20 और 2020-21 में इसमें कुछ कमी आई जिसकी वजह स्वरोजगार और कभी कभार श्रम करने वालों की तादाद में इजाफा मानी जा सकती है। यह बात शहरों की खुली बेरोजगारी से ग्रामीण इलाकों की छिपी बेरोजगारी को भी दर्शाती है क्योंकि कोविड के कारण लगे लॉकडाउन के बाद लाखों लोग अपने घरों को लौटे। इस जानकारी का श्रेय मेरी सहयोगी राधिका कपूर को है।
इस बात पर जोर देना आवश्यक है कि युवाओं के लिए तेजी से बिगड़ते रोजगार संकेतकों में महिला श्रमिकों की स्थिति और भी खराब है। उदाहरण के लिए महिला श्रमिकों की रोजगार दर 2004-05 के 34.9 फीसदी से बिगड़कर 2017-18 में 13.5 फीसदी रह गई। शहरी महिला युवाओं में खुली बेरोजगार भी 2004-05 के 14.9 फीसदी से बढ़कर 2017-18 में 27.2 फीसदी हो गई।
अगर आज के युवाओं के सामने रोजगार के अवसर नहीं हैं तो क्या भविष्य में बेहतर शिक्षा, कौशल और प्रशिक्षण के साथ रोजगार बाजार में आने वाले बच्चे-बच्चियों के लिए रोजगार के बेहतर अवसर हैं? आशा करना तो हमेशा बेहतर होता है लेकिन हमें एक नजर अपने सरकारी स्कूलों में शिक्षा की स्थिति पर भी डालनी होगी। प्रथम शिक्षा फाउंडेशन द्वारा जारी की जाने वाली सालाना शिक्षा रिपोर्ट सर्वे (असर) में भी यह जानकारी सामने आती है। हर वर्ष जारी की जाने वाली यह 500 से अधिक जिलों के 15,000 से ज्यादा गांवों के पांच लाख से अधिक बच्चों पर आधारित होती है। ऐसी पहली रिपोर्ट 2005 में जारी की गई थी और नवीनतम सर्वे कोविड के कारण स्कूल बंद होने के पहले यानी 2018 में की गई थी। 2019 में यह रिपोर्ट केवल युवा बच्चों की शिक्षा पर केंद्रित थी।
साक्षरता को मापने के लिए असर ने एक सामान्य परीक्षा यह तय की थी कि कक्षा पांच के कितने बच्चे कक्षा दो की किताब पढ़ सकते हैं। 2008 में सरकारी स्कूलों में यह आंकड़ा 53.1 फीसदी था लेकिन 2018 में यह स्तर और अधिक गिरकर 44.2 फीसदी हो गया। यानी आधे से अधिक बच्चे इसमें नाकाम रहे। यह विडंबना ही है कि शिक्षा का अधिकार कानून के लागू होने के बाद इसमें और गिरावट आई। हालांकि बाद में कुछ स्थानों पर सुधार भी हुआ जिसमें हिमाचल प्रदेश, केरल, पंजाब और महाराष्ट्र आदि का प्रदर्शन बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश से बेहतर है।
इसी प्रकार बुनियादी गणित की परीक्षा में पांचवीं के बच्चों से सामान्य भाग करने को कहा गया। यहां भी सफल होने वालों का अनुपात 2008 के 34.4 फीसदी से घटकर 2018 में 22.7 फीसदी हो गया। इसका मतलब यह हुआ कि 2018 में सरकारी स्कूलों में कक्षा पांच के तीन चौथाई से अधिक बच्चे सही ढंग से सामान्य विभाजन को अंजाम नहीं दे पा रहे थे। यहां तक कि कक्षा सात के बच्चों में भी सफलता का प्रतिशत केवल 40 फीसदी था जबकि 2008 में यह 65 प्रतिशत था।
तेजी से डिजिटलीकृत होते अलगोरिद्म, रोबोटिक्स, थ्रीडी प्रिंटिंग और कृत्रिम मेधा के इस दौर में भारत के युवाओं के सामने क्या संभावनाएं हैं? संक्षेप में कहा जाए तो हालात मुश्किल हैं।
(लेखक इक्रियर के मानद प्राध्यापक और भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)