भारत अब भी विकासशील देश की पहचान से बाहर नहीं निकल पाया है। इसकी प्रति व्यक्ति आय 2,500 डॉलर है, जो आय एवं धन में व्यापक असमानता की तरफ इशारा करती है। मानव विकास सूचकांक में भारत इस समय 193 देशों में 134वें स्थान पर है। मानव विकास सूचकांक किसी देश की आबादी के सामाजिक एवं आर्थिक विकास के आकलन का अधिक उपयुक्त माध्यम है। विकसित भारत का स्वप्न साकार करने का मार्ग लंबा प्रतीत हो रहा है और लगभग निश्चित है कि 2047 में जब देश अपनी स्वतंत्रता की 100वीं वर्षगांठ मनाएगा तब तक यह लक्ष्य पूरा नहीं होने जा रहा है।
भारत को प्रति व्यक्ति आय के आधार पर बेशक निम्न से मध्यम आय वर्ग वाले देश की श्रेणी में रखा जा सकता है मगर यह उच्च सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वाले देशों में शुमार है। भारत की अर्थव्यवस्था का आकार इस समय 3.5 लाख करोड़ डॉलर है और इस लिहाज से यह दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था मानी जाती है। किंतु शेष बड़ी अर्थव्यवस्थाओं तथा इसके बीच अंतर काफी अधिक है।
वैश्विक जीडीपी में अमेरिका की हिस्सेदारी 26.3 प्रतिशत, यूरोपीय संघ की 17.3 प्रतिशत और चीन की 16.9 प्रतिशत है लेकिन भारत की हिस्सेदारी महज 3.6 प्रतिशत है। चूंकि अंतरराष्ट्रीय संबंधों में दूसरे की तुलना में आपका वजन काफी मायने रखता है, इसलिए वृहद-आर्थिक दृष्टि से दुनिया में भारत का रुतबा औसत स्तर का माना जा सकता है।
हालांकि कुछ ऐसे कारक भी हैं, जो भारत को वजनदार बना रहे हैं। भारत की आबादी दुनिया में अब सबसे अधिक हो गई है और इसमें युवाओं की संख्या अधिक है। भारत के लिए संभवतः यह बड़ी ताकत है क्योंकि चीन सहित दुनिया के अन्य देशों में आबादी तेजी से कम हो रही है और उसमें भी उम्रदराज लोगों की तादाद लगातार बढ़ रही है।
भारत दुनिया की दूसरी सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था है और इसका जीडीपी 6 से 6.5 प्रतिशत दर से बढ़ रहा है। अगर वृद्धि की यह दर बरकरार रही तो वैश्विक जीडीपी में ठहराव आने पर भारत आर्थिक एवं वाणिज्यिक संभावनाओं का बड़ा केंद्र बन जाएगा। भारत जलवायु परिवर्तन, जन स्वास्थ्य, खाद्य एवं ऊर्जा सुरक्षा तथा तकनीक में बदलाव जैसी चुनौतियों से निपटने में सकारात्मक भूमिका निभा रहा है।
अंतरराष्ट्रीय समस्याएं इतनी पेचीदा होती हैं कि दुनिया के सबसे शक्तिशाली देशों या औद्योगिक एवं विकासशील देशों के समूह जी-7 के लिए भी इनका व्यापक समाधान खोज पाना मुश्किल होता है। ऐसी चुनौतियों से निपटने के लिए शक्तिशाली देश बाकी दुनिया पर अब पहले की तरह वैश्विक नियम-कायदे नहीं लाद सकते।
तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थाएं किसी विशेष क्षेत्र में वैश्विक व्यवस्था का आकार निर्धारित करने में आगे नहीं आ पाती हैं मगर वे ऐसी व्यवस्था लागू होने से रोकने में जरूर अपनी ताकत का इस्तेमाल करती हैं। इससे यह संदेश जा सकता है कि तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थाएं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाले प्रयासों में बाधा डालती हैं। मगर इसके ठीक उलट वे पहले के मुकाबले अधिक कारगर तरीके से अपने हितों की रक्षा कर पा रही हैं। भारत अपने हितों की रक्षा के लिए ऐसे कदम उठा चुका है और वह आगे भी ऐसा करेगा। मगर इसे वैश्विक स्तर पर पेचीदा संवाद प्रक्रिया में अपनी बात कारगर तरीके से रखने के लिए अपनी क्षमता बढ़ानी होगी।
भारत के आर्थिक एवं सामाजिक विकास सूचकांकों में मेल नहीं दिखता है। सामाजिक विकास सूचकांकों में यह अब भी पीछे चल रहा है मगर इस बीच दुनिया में भारत की छवि में काफी सुधार हुआ है। भारत के विकास का यह ढांचा दुनिया की स्थापित अर्थव्यवस्थाओं में पाए जाने वाले तौर-तरीकों से काफी अलग है। वैश्विक पटल पर दूसरे देशों की अहमियत उनके लोगों एवं सामाजिक कल्याण में सतत सुधारों के साथ-साथ बढ़ती जाती है।
तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थाएं दुनिया में सक्रिय भूमिका निभाने में उलझन का सामना करती हैं। इन देशों से अपेक्षा की जाती है कि वे अधिक जिम्मेदारी उठाएं और साझा वैश्विक हितों में अधिक योगदान दें। मगर इन देशों को उन वैश्विक ढांचे की तलाश रहती है जो उन्हें घरेलू चुनौतियों से निपटने के लिए आवश्यक संसाधन और जरिये मुहैया कराएं। भारत जैसे देशों के लिए ऐसे ढांचे की तलाश जरूरी है क्योंकि वह विकासशील देश से बड़ी उभरती शक्ति बनने की तरफ कदम बढ़ा रहा है।
भारत जैसी तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए वैश्विक स्तर पर बड़ी भूमिका निभाना और देश के भीतर चुनौतियों से निपटने की अनिवार्यता के बीच संतुलन स्थापित करना आसान नहीं है मगर उसके लिए यह जरूरी है। विभिन्न देशों के साथ साझेदारी करने, छोटे स्तर के समझौतों, क्षेत्रीय एवं कार्यशील समूहों में सक्रिय भागीदारी निभाने में भारत की सक्रियता इसी ओर इशारा करती है। भारत उन विशेष उद्देश्यों के लिए तैयार गठबंधनों में हिस्सा ले रहा है और यह निर्णय उसके लिए लाभकारी भी रहा है।
भारत को ‘क्वाड’ (अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ) और ‘शांघाई सहयोग संगठन’ (जिसमें चीन, रूस, ईरान, पाकिस्तान और पश्चिम एशिया हैं) का हिस्सा होने में किसी तरह का विरोधाभास नहीं दिखता। न ही इसे ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) में चीन जैसे देशों के साथ सहयोग करने में कोई एतराज है। इसी तरह बिम्सटेक (जिसमें भारत, बांग्लादेश, भूटान और श्रीलंका तथा दक्षिण-पूर्व एशिया से थाईलैंड और म्यांमार शामिल हैं) का हिस्सा बनकर भी यह अन्य देशों के साथ सहयोग कर रहा है।
भारत ने जी-20 सम्मेलन का सफल आयोजन किया है। ये सभी प्रयास भारत को वैश्विक शक्ति बनाते हैं। देश के भीतर भारत की क्षमता और दुनिया में इसकी छवि के बीच तालमेल का अभाव इसकी विदेश नीति के लिए जटिल चुनौतियां खड़ी करता है। दुनिया में बढ़ता कद भारत के लिए संतुष्टि की बात है मगर आर्थिक, तकनीकी और सुरक्षा क्षमताओं के लिहाज से अधिक ताकतवर नहीं होने से वैश्विक समीकरण को नई दिशा देने में भारत की भूमिका सीमित रह जाती है।
हमारी मुख्य चिंता अपने नागरिकों के आर्थिक और सामाजिक विकास से जुड़ी है। इस लिहाज से वैश्विक ताने-बाने में भारत की स्थित सहज नहीं लगती है। व्यापार की बात हो या जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न चुनौतियां, भारत पूरी दुनिया को सार्वजनिक उपभोग का सामान देते हैं और दूसरे देशों से ऐसा सामान लेते भी हैं। जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने के अधिक सहज नियम-कायदों की हिमायत करने या अपने विकास की जरूरतों के लिए अंतरराष्ट्रीय वित्त एवं तकनीक हस्तांतरण की मांग करने में हमारी प्राथमिकता चीन सहित दूसरे देशों से अलग है।
प्रश्न यह है कि भारत को वैश्विक स्तर पर अग्रणी भूमिका निभाने वाले देश के रूप में उससे लगाई जा रही उम्मीदों को कब पूरा करना चाहिए और कब इनका विरोध करना चाहिए, जबकि ऐसा करना उसकी गरीब आबादी के लिए नुकसानदेह हो सकता है? क्या हमें दुनिया के निम्न आय वर्ग वाले विकासशील देश के रूप में अपनी पहचान को दुनिया में एक बड़ी ताकत बनने की ख्वाहिश की तुलना में अधिक तरजीह देनी चाहिए?
भारत के लिए यह पसोपेश वाली स्थिति है, जो अगले कई वर्षों तक बनी रहेगी। प्रत्येक स्थिति में हमें संतुलन साधना होगा ताकि वैश्विक स्तर पर बड़े देश की भूमिका निभाते समय हमारे करोड़ों नागरिकों के बुनियादी विकास पर कोई असर न पड़े। यह संतुलन भारत के नागरिकों के हितों के अनुरूप रहना चाहिए।
(लेखक विदेश सचिव रह चुके हैं)