facebookmetapixel
48,000 करोड़ का राजस्व घाटा संभव, लेकिन उपभोग और GDP को मिल सकती है रफ्तारहाइब्रिड निवेश में Edelweiss की एंट्री, लॉन्च होगा पहला SIFएफपीआई ने किया आईटी और वित्त सेक्टर से पलायन, ऑटो सेक्टर में बढ़ी रौनकजिम में वर्कआउट के दौरान चोट, जानें हेल्थ पॉलिसी क्या कवर करती है और क्या नहींGST कटौती, दमदार GDP ग्रोथ के बावजूद क्यों नहीं दौड़ रहा बाजार? हाई वैल्यूएशन या कोई और है टेंशनउच्च विनिर्माण लागत सुधारों और व्यापार समझौतों से भारत के लाभ को कम कर सकती हैEditorial: बारिश से संकट — शहरों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के लिए तत्काल योजनाओं की आवश्यकताGST 2.0 उपभोग को बढ़ावा दे सकता है, लेकिन गहरी कमजोरियों को दूर करने में कोई मदद नहीं करेगागुरु बढ़े, शिष्य घटे: शिक्षा व्यवस्था में बदला परिदृश्य, शिक्षक 1 करोड़ पार, मगर छात्रों की संख्या 2 करोड़ घटीचीन से सीमा विवाद देश की सबसे बड़ी चुनौती, पाकिस्तान का छद्म युद्ध दूसरा खतरा: CDS अनिल चौहान

Editorial: अपने हितों को ध्यान में रखते हुए भारत को बातचीत जारी रखनी चाहिए

भारत सबसे अधिक शुल्क लगाने वाले और गैर शुल्क अड़चनों वाले देशों में से एक है। इसका परिणााम अमेरिका के लिए बड़े व्यापार घाटे के रूप में सामने आता है।

Last Updated- August 19, 2025 | 10:10 PM IST
India US Trade Deal

व्हाइट हाउस के व्यापार और विनिर्माण सलाहकार पीटर नवारो ने सोमवार को फाइनैंशियल टाइम्स में भारत को लेकर एक तीखा लेख लिखा। यह आलेख बताता है कि अमेरिका भारत को लेकर क्या सोच रखता है और भारतीय पक्ष को अनुकूल व्यापार समझौते के लिए बातचीत करते हुए किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन के रुख के साथ बुनियादी समस्या यह है वे तर्क, निष्पक्षता, दीर्घकालिक दृष्टिकोण और आर्थिक आधारों से एकदम दूर हैं।

नवारो ने मुख्य रूप से भारत द्वारा रूसी तेल खरीदने के कारण अमेरिका को होने वाले भारतीय निर्यात पर 25 फीसदी के अतिरिक्त शुल्क को जायज ठहराया। उन्होंने कहा, ‘यह दोहरी नीति भारत को उस जगह असल चोट पहुंचाएगी जहां उसे सबसे अधिक कष्ट होगा यानी अमेरिकी बाजारों तक पहुंच। भले ही वह रूस के जंगी प्रयासों को दी जा रही वित्तीय मदद में कटौती चाहता हो।’

यह कहा गया कि अमेरिकी उपभोक्ता भारतीय वस्तुएं खरीदते हैं जबकि भारत इससे हासिल डॉलर का इस्तेमाल किफायती दरों पर रूसी कच्चा तेल खरीदने के लिए करता है और उसे परिशोधित करके पूरी दुनिया में बेचता है। ऐसी धारणा तैयार की गई कि भारत की वित्तीय सहायता के जरिये रूस यूक्रेन में जंग जारी रखे हुए है जबकि अमेरिका और यूरोपीय करदाताओं को यूक्रेन के बचाव के लिए अरबों डॉलर की राशि खर्च करनी पड़ रही है। अगर यही बात है और अमेरिका का इरादा रूस को वित्तीय मदद पहुंचने से रोकना था तो वह रूसी तेल खरीदने वाले सभी देशों पर जुर्माना लगा सकता था। इन देशों में चीन भी शामिल था जो भारत की तुलना में रूस से बहुत अधिक तेल खरीद रहा है।

बहरहाल, ट्रंप प्रशासन ने इस तथ्य की पूरी तरह अनदेखी कर दी। ऐसा शायद इसलिए क्योंकि चीन की ओर से प्रतिरोध की आशंका है। इतना ही नहीं, रूसी तेल के सबसे बड़े खरीदारों में एक तुर्किये तो उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) का सदस्य भी है। जैसा कि इस समाचार पत्र ने भी प्रकाशित किया था, भारतीय कंपनियों ने रूसी तेल खरीदना कम कर दिया है। तार्किक ढंग से देखें तो भारतीय कंपनियों द्वारा रूसी तेल खरीद में भारी कमी के बाद अतिरिक्त शुल्क स्वत: समाप्त हो जाने चाहिए थे।

लेकिन यह कहना कठिन है कि ऐसा ही होगा। दिलचस्प बात है कि ऐसी भी रिपोर्ट आई है कि चीन और तुर्किये रूसी तेल की खरीद बढ़ा रहे हैं। इसलिए, यह मुद्दा केवल तेल खरीदने या रूस का समर्थन करने का नहीं है। यह कदम अमेरिकी प्रशासन द्वारा सहयोगी और मित्र देशों में अस्थिरता पैदा करने का एक और उदाहरण भर है।

एक अन्य तर्क है कि भारत सबसे अधिक शुल्क लगाने वाले और गैर शुल्क अड़चनों वाले देशों में से एक है। इसका परिणााम अमेरिका के लिए बड़े व्यापार घाटे के रूप में सामने आता है। भारत का औसत शुल्क ऊंचा है लेकिन जैसा कि विशेषज्ञों ने कहा है और भारतीय वार्ताकारों ने भी रेखांकित किया है, करीब 75 फीसदी अमेरिकी आयात पर 5 फीसदी से भी कम शुल्क लगता है। इतना ही नहीं अमेरिका की तरह भारत भी चालू खाते के घाटे से जूझ रहा है। यानी वह दुनिया से खरीदता अधिक है और बेचता कम है। बात यह है कि भारतीय आयातक अमेरिका की तुलना में अन्य देशों से खरीद करना अधिक पसंद करते हैं। कुछ देशों के साथ भारत का व्यापार अधिशेष है जबकि अन्य के साथ घाटा। व्यापार ऐसे ही काम करता है।

परंतु अमेरिकी प्रशासन व्यक्तिगत स्तर पर देशों के साथ व्यापार घाटे को समाप्त करना चाहता है। नवारो पहले ही रक्षा सौदों में भारत की तकनीक स्थानांतरण की मांग पर आपत्ति जता चुके हैं। यह भी अस्वाभाविक नहीं है। बीते दशकों में रिश्तों में निरंतर सुधार के बाद भारत-अमेरिका के रिश्ते एक बार फिर मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं। इसके परिणाम व्यापार से कहीं परे भी होंगे। हालांकि इसमें किसी तरह भारत की गलती नहीं है, फिर भी उसे अमेरिका के साथ संवाद जारी रखना चाहिए। व्यापार के मोर्चे पर भारत को अपने हितों को ध्यान में रखते हुए औसत शुल्क दर कम करने की आवश्यकता है। शायद यह खुलापन लाने के लिए माकूल वक्त है।

First Published - August 19, 2025 | 9:54 PM IST

संबंधित पोस्ट