कॉरपोरेट कार्य मंत्रालय ने 50 अतिरिक्त राष्ट्रीय कंपनी विधि पंचाट (एनसीएलटी) तथा दो और राष्ट्रीय कंपनी विधि अपील पंचाट (एनसीएलएटी) पीठों के लिए मंत्रिमंडल की मंजूरी लेने की पहल की है। यह बात एक बार फिर उस संरचनात्मक कमजोरी की ओर ध्यान आकर्षित करती है, जिसने लंबे समय से ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) के प्रभावी क्रियान्वयन को बाधित किया है। यह समस्या नई नहीं है।
मूल रूप से एनसीएलटी का गठन कंपनी कानून से जुड़े मामलों के लिए किया गया था लेकिन बाद में उसे आईबीसी के तहत आने वाले ऋणशोधन और दिवालिया मामलों की जिम्मेदारी दे दी गई। परंतु इस काम के लिए जरूरी क्षमता विस्तार, अधोसरंचना या कर्मचारियों की संख्या में आवश्यक इजाफा नहीं किया गया।
दिए गए कामों और क्षमता में इस अंतर को देखते हुए ऋणशोधन मामलों के निस्तारण में इतनी देरी से किसी को चकित नहीं होना चाहिए। क्षमता संबंधी इन बाधाओं का संहिता के अधीन हासिल परिणामों पर सीधा असर हुआ है। भारतीय ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवालिया बोर्ड यानी आईबीबीआई के आंकड़े दिखाते हैं कि सितंबर 2025 तक 8,659 कॉरपोरेट ऋणशोधन निस्तारण प्रक्रिया (सीआईआरपी) स्वीकार की गईं जिनमें से 1,898 मामले चल रहे हैं।
महत्त्वपूर्ण यह है कि लगभग 1,300 सीआईआरपी, जिनका परिणाम समाधान योजनाओं में हुआ, उन्हें औसतन 603 दिन लगे, जबकि 2,896 मामले जो परिसमापन में समाप्त हुए, उन्हें 518 दिन लगे। यह संहिता के अंतर्गत निर्धारित 330 दिनों की वैधानिक सीमा से कहीं अधिक है। ऐसी देरी परिसंपत्ति के मूल्य को कम करती है और उस ढांचे की विश्वसनीयता को कमजोर करती है जिसे कंपनियों के लिए त्वरित और पुर्वानुमान योग्य निकासी प्रदान करने के लिए बनाया गया था।
इस संदर्भ में, आईबीसी संशोधन विधेयक, 2025 पर चयन समिति द्वारा उठाई गई चिंताएं भी ध्यान देने लायक हैं। समिति ने प्रस्तावित संशोधनों में एनसीएलएटी के लिए वैधानिक समय सीमा की अनुपस्थिति को रेखांकित किया है और अपीलों का निपटान तीन महीने के भीतर अनिवार्य करने की सिफारिश की है। जैसा कि समिति ने सही देखा है, आईबीसी की प्रभावशीलता एक सख्त समयबद्ध ढांचे पर निर्भर करती है, और अनुचित अपीलीय देरी दिवाला प्रक्रिया में दक्षता और निश्चितता दोनों को कमजोर करने का जोखिम पैदा करती है। प्रक्रियागत देरी के बावजूद, संहिता का भारत की बैंकिंग प्रणाली और ऋण संस्कृति पर सार्थक प्रभाव पड़ा है।
निपटाए गए मामलों ने स्वीकृत दावों के 32.44 फीसदी तक वसूली प्रदान की है, जो परिसमापन मूल्य के 170 फीसदी से अधिक है, और इसने लगभग 1,300 कंपनियों को बचाने में मदद की है। अहम बात यह भी है कि नियंत्रण खोने के खतरे ने उधारकर्ताओं के व्यवहार को बदल दिया है, जिससे भुगतान अनुशासन में सुधार हुआ है और प्रारंभिक निपटान को प्रोत्साहन मिला है। ये परिणाम इस बात को रेखांकित करते हैं कि समस्या संहिता की संरचना में नहीं, बल्कि उसके संस्थागत क्रियान्वयन में है।
सरकार कारोबारी सुगमता में सुधार के लिए कई प्रयास कर रही है। उसे यह समझना चाहिए कि सहज और अनुमान योग्य निर्गम यानी बाहर निकलने की प्रणाली भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि प्रवेश को सुगम बनाना। इसके लिए क्षमता में इजाफा करना आवश्यक है। केवल अतिरिक्त पीठ जोड़ना पर्याप्त नहीं होगा। प्रभावी न्याय निर्णय के लिए पर्याप्त न्यायालय कक्ष, प्रशिक्षित सदस्य, सहायक कर्मचारी और प्रशासनिक बुनियादी ढांचे की जरूरत होती है।
इसके साथ ही प्रौद्योगिकी सक्षम केस प्रबंधन भी आवश्यक है। इसके बिना अतिरिक्त पीठ केवल लंबित मामलों को सीमित रूप से ही कम कर सकेंगी। उतना ही महत्त्वपूर्ण है प्रक्रियागत निश्चितता, विशेषकर समाधान योजनाओं की अंतिम स्थिति के संबंध में।
यदि ऋणदाताओं की समिति द्वारा अनुमोदित और न्याय निर्णायक प्राधिकरणों द्वारा समर्थित योजनाएं वर्षों बाद पलट दी जाती हैं, तो यह ऋण शोधन प्रक्रिया में विश्वास को कमजोर करता है और स्वयं संहिता की नींव को हिला देता है। जब तक संस्थागत खामियों को विधायी परिवर्तनों के साथ-साथ दूर नहीं किया जाता, आईबीसी एक त्वरित और विश्वसनीय कॉरपोरेट ऋणशोधन समाधान तंत्र के रूप में अपनी विश्वसनीयता खोने का जोखिम उठाता है।