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  लेख  कब तक चलेगा ‘चलता है’ का रवैया?
लेख

कब तक चलेगा ‘चलता है’ का रवैया?

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —April 29, 2008 11:50 PM IST0
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पिछले दिनों मैं मुंबई के टैक्सी ड्राइवरों की बदतमीजी का गवाह बना। जिस टैक्सी में मैं बैठा हुआ था, उसका ड्राइवर काफी अटपटी ड्राइविंग कर रहा था।


एक घंटे से कम के सफर में उसने करीब 30-40 बार लोगों से तू-तू, मैं-मैं की। हद तो तब हो गई, जब ओवरटेक करते वक्त उसने अपना हाथ गाड़ी की खिड़की से बाहर निकालकर किसी महिला को छूने की कोशिश की। जब मैंने उसे सावधान करने की कोशिश की तो उसका जवाब था, ‘यह तो मुंबई है, यहां सब कुछ चलता है।’


बहरहाल, सवाल यह है कि करंसी डेरिवेटिव्स के कई मामलों में हुए बड़े नुकसान के लिए किस हद तक ‘चलता है’ वाला रवैया जिम्मेदार है? हालांकि अपने एक लेख में मैंने कॉरपोरेट रिस्क मैनेजमेंट संस्कृति की काफी आलोचना की थी, लेकिन ऐसा लगता है कि इसके अलावा बैंक इस बाबत रिजर्व बैंक के नियमों और दिशा-निर्देशों का पालन बिल्कुल नहीं करते हैं।


कई बैंकों को यह दलील देते हुए सुना जा सकता है कि ऐसा लंबे अर्से से चल रहा है और उस वक्त रिजर्व बैंक द्वारा बैंकों की निगरानी भी की जाती थी और इसके बावजूद केंद्रीय बैंक ने कभी कोई आपत्ति नहीं जताई। इसके मद्देनजर कहा जा सकता है कि बैंकों के सिर पर नियामक का हाथ था।


एक बड़े बैंक की शिकायत थी कि उनके नुमाइंदे डेरिवेटिव्स की मुश्किलों से जुड़े कुछ खास सवालों के साथ रिजर्व बैंक के पास गए थे, लेकिन साफ जवाब नहीं मिला। इसके अलावा कई बैंकों द्वारा दिशा-निर्देशों का पालन करने पर उन्हें भारी नुकसान झेलना पड़ा। इसके मद्देनजर जो बैंक इन दिशा-निर्देशों का पालन कर रहे थे, उन्होंने भी इससे मुंह मोड़ने का फैसला, ताकि ये प्रतिस्पर्धा में पीछे न छूट जाएं।


इन दलीलों में अगर थोड़ी सी सचाई है, तो इससे साफ है कि अगर ‘चलता है’ वाले रवैये से मुक्ति पानी है, तो हमें डेरिवेटिव्स मामले में सख्ती से दिशा-निदेर्शों का पालन सुनिश्चित करना पड़ेगा।विश्व बाजार में क्रेडिट डेरिवेटिव्स के मामले में हो रहे नुकसान के संदर्भ में मुझे एक काफी दिलचस्प रिपोर्ट देखने को मिली है। यूबीएस को इससे 40 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है और इसके मद्देनजर इस बैंक ने शेयर होल्डरों के लिए ‘कबूलनामा’ तैयार किया है।


ऐसा लगता है कि यूबीएस के टॉप मैनेजमेंट को बैंक के क्रेडिट डेरिवेटिव्स कारोबार में इस स्तर तक शामिल होने के बारे में काफी कम जानकारी थी। इसके अलावा आला अधिकारियों को जोखिम और रिस्क मैनेजमेंट सिस्टम की कमजोरियों के बारे में भी पर्याप्त जानकारी नहीं थी। दोनों मुद्दों पर भारत के बैंक के अधिकारियों और बोर्डों को विचार करने की जरूरत है।


यह बात निश्चित तौर पर कही जा सकती है कि भारतीय बैंकों द्वारा करंसी डेरिवेटिव्स के तहत हुआ नुकसान ग्लोबल बैंकों द्वारा इस बाबत हुई हानि के सामने कहीं भी नहीं टिकेगा। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि भारतीय बैंकों को सबक सीखने के लिए इस तरह के नुकसान का इंतजार करना चाहिए। दूसरी तरफ, इस बाबत हुए नुकसान के मद्देनजर इन बैंकों के ग्राहकों की कॉरपोरेट सेहत पर अभी इतना ही असर पड़ा है, जितना शायद बर्दाश्त किया जा सकता है।


करंसी डेरिवेटेव्सि का ग्लोबल अनुभव बताता है कि पोर्टफोलियो जोखिम के आकलन में जो सांख्यिकी मॉडल अपनाया जाता है, वह कमजोर है। इसमें दो समस्याएं प्रमुख रूप से सामने आ रही हैं। पहला यह कि ऐतिहासिक डेटा भविष्य के लिए गाइड का काम नहीं कर सकता। इसके अलावा पोर्टफोलियो जोखिम के आकलन का तरीका। इसके तहत इस जोखिम से संबंधित आंकड़े अचानक से तुरंत-तुरंत बदलते रहते हैं, खासकर जब बाजार में उतार-चढ़ाव का आलम हो।


संक्षेप में कहें तो गणितीय मॉडलों पर पूरी तरह निर्भर नहीं रहा जा सकता और इसके साथ कई और तरीकों को अपनाने की जरूरत है।जहां तक भारत में डेरिवेटिव्स सिस्टम की बात है, इसकी सबसे बड़ी कमजोरियों में से एक कमजोरी क्रेडिट डेरिवेटिव्स का कमजोर प्रबंधन है। कंपनी के लिए कीमतों का जोखिम बैंक के लिए क्रेडिट जोखिम बन जाता है।


प्रभावी निगरानी के लिए ऐसे प्रॉडक्ट का कारोबार कर रहे बैंकों को कीमतों का निर्धारण प्रॉडक्ट की कैटिगरी के आधार पर करना चाहिए। ऐसे प्रॉडक्ट का कारोबार करते वक्त किसी को यह पता नहीं होता कि इसके मूल्याकंन का तरीका कितना जोखिम भरा हो सकता है। यह न सिर्फ कॉरपोरेट ग्राहकों के लिए जोखिम भरा हो सकता है, बल्कि बैंकों के मामले में भी यही बात लागू होती है।


इसके अलावा डेरिवेटिव्स जोखिम पर काबू पाने का सबसे प्रभावकारी तरीका इक्विटी पर रिटर्न (आर्थिक पूंजी के मुकाबले) यानी किसी खास बिजनेस में कमाई पर लगातार निगरानी हो सकता है।


अगर यह बहुत ज्यादा है तो यह अक्सर खतरनाक संकेत का परिचायक हो सकता है और इसका मतलब यह निकाला जा सकता है कि इसमें जोखिम ज्यादा है और खतरे के आकलन और आर्थिक पूंजी के आवंटन के पहलू को ध्यान में नहीं रखा गया है। यह बात एएए श्रेणी के सीडीओ पर भी लागू होती है। बहरहाल मुद्दा यह है कि भारतीय बैंकों के लिए डेरिवेटिव्स के मद्देनजर ग्राहकों के खाते में क्या है?

whenever will go attitude of its ok?
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