कई इतिहासकारों ने आज की दुनिया और 1930 के दशक के बीच समानताएं बताई हैं। समानताएं तो हैं मगर कुछ बड़े अंतर भी हैं। 1930 के दशक में औपनिवेशिक साम्राज्य तो थे ही, जर्मनी, सोवियत संघ, इटली, हंगरी और जापान समेत कई देशों में तानाशाही भी चल रही थी।
दुनिया बड़ी महामारी स्पैनिश फ्लू से उबरी थी मगर 1929 में शुरू हुई महामंदी से जूझ रही थी। यही महामंदी व्यापार युद्धों का कारण बनी। हर देश ने आयात पर शुल्क और कर लगाकर देसी घरेलू उद्योग को सुरक्षित रखने की कोशिश की। दुनिया भर में इसका नतीजा ‘खुद भी कंगाल पड़ोसी भी कंगाल’ की शक्ल में सामने आया। बेरोजगारी आसमान छू रही थी। जर्मनी और ऑस्ट्रिया में जबरदस्त महंगाई हो गई थी मगर अमेरिका में अपस्फीति आ गई थी यानी मांग कम और आपूर्ति ज्यादा थी। तानाशाही या अधिनायकवादी शासन फैलने से हर तरह की आफत आईं। उनमें से एक सत्ता ने सोवियत संघ में जानबूझकर अकाल ला दिया और बड़े पैमाने पर निर्वासन किया। दूसरे सत्तावादी शासन ने नाजियों के कब्जे वाले इलाकों में नरसंहार के अड्डे बना डाले। तीसरे देश ने चीन में नागरिकों को बड़े पैमाने पर मौत के घाट उतारा और बलात्कार होने दिए।
2025 की तरह ही 1930 के दशक में भी कई बड़े स्थानीय संघर्ष हुए जैसे स्पेन में गृह युद्ध और चीन-जापान युद्ध। ये क्षेत्रीय युद्ध आखिर में वैश्विक संघर्ष में तब्दील हो गए। जर्मनी ने ऑस्ट्रिया और चेकोस्लोवाकिया पर कब्जा कर लिया तथा पोलैंड पर हमला कर पूरे यूरोप में युद्ध शुरू करा दिया। सोवियत संघ ने तीन बाल्टिक देशों (एस्तोनिया, लातविया और लिथुआनिया ) और करीब आधे पोलैंड पर कब्जा कर लिया तथा फिनलैंड को भी हड़पने की कोशिश की। चीन का बड़ा हिस्सा लेने के बाद जापान ने पर्ल हार्बर पर हमला किया और फिलिपींस, इंडोनेशिया, बर्मा, इंडो-चीन तथा प्रशांत महासागर के कई द्वीपों पर कब्जा जमा लिया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 10 करोड़ से 12.5 करोड़ लोगों की जान जाने का अनुमान है। उस युद्ध में परमाणु हथियार इस्तेमाल हुए और दुनिया के नक्शे दोबारा बनाने पड़े। आज की ही तरह 1930 के दशक में भी व्यापार युद्ध हो रहे थे।
व्यापार और टैरिफ की जंग इसलिए अजीब हैं क्योंकि ये तब भी छिड़ जाती हैं, जब हर कोई जानता है कि ये नुकसानदेह हैं। मान लीजिए उत्तर कोरिया जैसा कोई देश अगर वस्तुओं और सेवाओं के लिए अपनी सीमाएं बंद करने का फैसला करता है तब सबसे ज्यादा नुकसान तो उसी को होगा। अगर कई राष्ट्र एक-दूसरे के लिए अपनी सीमाएं बंद कर देते हैं तो नुकसान पूरी दुनिया का होगा। 1930 के दशक में ऐसा ही हुआ था और एक बार फिर होता दिख रहा है। 1930 के दशक में वैश्विक व्यापार युद्धों का सिलसिला दूसरे विश्व युद्ध में ही रुक पाया था। टैरिफ और जवाबी टैरिफ के सिलसिले को रोकने के लिए इस बार क्या करना होगा?
दो या तीन नई बातें भी 2025 में चिंता बढ़ा सकती हैं। एक है परमाणु हथियारों का प्रसार। इस समय आठ देशों के पास घोषित तौर पर परमाणु हथियार हैं और कम से कम दो ऐसे देश हो सकते हैं, जिन्होंने अपने परमाणु हथियार गुप्त रखे हैं। इनमें से कई देशों में तानाशाही चल रही है या तानाशाही की मंशा दिख रही है। कम से कम पांच जमीन के विवाद में फंसे हुए हैं, जिनके कारण कई बार सशस्त्र संघर्ष हो चुके हैं। परमाणु संघर्ष का खतरा हकीकत बन गया है।
दूसरी बात जलवायु परिवर्तन का मंडराता खतरा है, जो परमाणु प्रसार से भी ज्यादा खतरनाक तथा अस्तित्व के लिए संकट है। 1930 के दशक में ऐसा कोई खतरा नहीं था। अब यह खतरा साफ दिख रहा है क्योंकि हर साल रिकॉर्डतोड़ गर्मी पड़ती जा रही है और आर्कटिक में वर्फ लगातार पिघलता जा रहा है।
बीमा उद्योग खास तौर पर प्राकृतिक आपदा और पुनर्बीमा में काम करने वाले किसी भी व्यक्ति से बात कीजिए तो आप जानेंगे कि मौसम के अतिरेक के कारण दुनिया भर में बीमा कंपनियों को इतना भुगतान करना पड़ रहा है कि पुनर्बीमा कंपनियां दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गईं। मौसम की चाल बदलने और बर्फ पिघलने से बड़े पैमाने पर जीवन विलुप्त होने का ही खतरा नहीं है बल्कि इससे खाद्य सुरक्षा पर भी प्रश्न चिह्न खड़ा हो सकता है।
अमेरिकी खगोलशास्त्री नील डीग्रास टायसन का अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन, इसके कारणों और प्रभावों पर वैज्ञानिक समुदाय में करीब 97 प्रतिशत सहमति है। दुर्भाग्य से बाकी 3 प्रतिशत का ही हवाला वे सरकारें देती हैं, जो फौरी फायदे के लिए जलवायु परिवर्तन से आंख मूंदने पर आमादा हैं। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए दुनिया के पास बहुत कम समय बचा है। शायद पहले ही बहुत देर हो चुकी है।
तीसरी नई बात है आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई)। यह कहना मुश्किल है कि एआई कहां जाएगा। यह अस्तित्व के लिए खतरा भी हो सकता है। जरा सोचिए कि परमाणु हथियारों की डोरी एआई के हाथ में आ जाए तो? एआई पहले से ही आर्थिक व्यवस्था बिगाड़ रही है। मगर इसने फ्यूजन पावर में सफलता पा ली, बदलती जलवायु के अनुरूप नई फसलें तैयार कर लीं और प्रजातियों का लोप कम किया तो यह संकटमोचक भी बन सकती है।