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रुपये के अंतरराष्ट्रीयकरण की भविष्य की दिशा

मुद्रा का मूल्य समय के साथ स्थिर होना चाहिए। एक मुद्रा को स्थिर तब माना जाता है जब कीमतों का सामान्य स्तर बहुत अधिक नहीं बदलता है।

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राजेश्वरी सेनगुप्ता   
Last Updated- October 31, 2025 | 9:22 PM IST

भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने अपनी पिछली नीतिगत बैठक में, सीमा-पार व्यापार में रुपये के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए कई उपायों की पेशकश की जो इसके धीरे-धीरे अंतरराष्ट्रीयकरण की दिशा में बढ़ाया गया एक कदम है। एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था की मुद्रा भी वैश्विक स्तर पर एक अहम दर्जा हासिल कर सकती है, यह धारणा उस वक्त जोर पकड़ने लगी जब अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने वर्ष 2016 में चीन के रेनमिनबी (आरएमबी) को अपने विशेष आहरण अधिकार वाली मुद्राओं के समूह में जोड़ा।

अमेरिका, रूस और चीन से जुड़े नए भू-राजनीतिक तनावों के बीच, यह सवाल फिर से उभरता है कि भारत आखिर रुपये के अंतरराष्ट्रीय दर्जे की ओर अपनी यात्रा को सार्थक रूप से कैसे आगे बढ़ा सकता है? रुपये के अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बनने के लिए, गैर निवासियों के बीच इसी मुद्रा में व्यापार और निवेश करने की चाहत और क्षमता दोनों होनी चाहिए। उदाहरण के तौर पर एक रूसी आयातक को दक्षिण अफ्रीका के सामान के लिए रुपयों में भुगतान करने में सक्षम होना चाहिए। इसी तरह, ब्रिटेन में एक निवेशक को रुपये वाले बॉन्ड या शेयरों को आसानी से खरीदने में सक्षम होना चाहिए। इन मामलों में, मुद्रा का जोखिम विदेशी उठाते हैं, न कि भारतीय । यह बदलाव ही वास्तव में मुद्रा शक्ति का सार है। यह वह ‘अतिशय विशेषाधिकार’ भी है जो अमेरिकी डॉलर को लंबे समय से हासिल है।

एक मुद्रा का वैश्विक स्तर पर उपयोग करने की इच्छा और क्षमता तीन प्रमुख शर्तों पर निर्भर करती है। सबसे पहले, मुद्रा जारी करने वाली अर्थव्यवस्था का दायरा बड़ा होना चाहिए जिसे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी), व्यापार और अंतरराष्ट्रीय लेन-देन की मात्रा से मापा जाता है। चीन, 18 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था के साथ, इस मानदंड को पूरा करता है, भारत, लगभग 4 लाख करोड़ डॉलर के स्तर पर है और यह अभी उस मानदंड पर खरा नहीं उतरता है। उस पैमाने पर आने के लिए, भारत को आने वाले वर्षों में 7-8 फीसदी की सालाना वृद्धि दर बनाए रखनी होगी जो रुपये की वैश्विक महत्त्वाकांक्षा के लिए एक मुश्किल लेकिन आवश्यक शर्त है।

दूसरी बात, मुद्रा का मूल्य समय के साथ स्थिर होना चाहिए। एक मुद्रा को स्थिर तब माना जाता है जब कीमतों का सामान्य स्तर बहुत अधिक नहीं बदलता है। स्थिरता के कई पहलू हैं जैसे कि समग्र अर्थव्यवस्था, वित्तीय और राजनीतिक। समग्र अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर, भारत ने अच्छा प्रदर्शन किया है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति कई वर्षों के निचले स्तर पर है और आरबीआई ने इसे 4 फीसदी के लक्ष्य के करीब रखने में अपनी विश्वसनीयता कायम की है। वित्तीय स्थिरता भी मजबूत हुई है, बैंकों में पूंजी का स्तर बेहतर है, बैलेंसशीट भी बेहतर है और व्यापक वित्तीय प्रणाली भी बेहतर प्रतीत होती है।
राजनीतिक स्थिरता, तीसरा स्तंभ है। भारत एक लोकतंत्र है और यह तथ्य इसके पक्ष में जाता है। लोकतंत्र,अपने संस्थागत संतुलन के साथ, विदेशी निवेशकों को नीति की विश्वसनीयता और निरंतरता के बारे में आश्वस्त करता है। यह आत्मविश्वास बदले में मुद्रा को दीर्घकालिक स्थिरता देता है।

मुद्रा स्थिरता को अक्सर उतार-चढ़ाव न होने के संदर्भ में देखा जाता है लेकिन दोनों एक ही नहीं हैं। एक स्थिर मुद्रा, सच्ची बाजार ताकतों को दर्शाती है न कि केंद्रीय बैंक के प्रबंधन को। इसका मूल्य, सीमा-पार पूंजी प्रवाह द्वारा तय होना चाहिए जैसे कि डॉलर-यूरो विनिमय दर जो वैश्विक वित्त में लगातार गतिविधि के बावजूद व्यापक रूप से स्थिर रहती है। इसे प्रशासित कीमतों की तरह सोचें, भारत ने एक बार स्टील और डीजल जैसे आवश्यक वस्तुओं की कीमतें नियंत्रित की थीं और उन्हें कृत्रिम तरीके से स्थिर रखा था। आज, इन कीमतों में आपूर्ति और मांग के आधार पर उतार-चढ़ाव होता है और यह एक स्वस्थ बाजार का संकेत है। मुद्रा बाजारों को उसी तरह काम करना चाहिए।

अंत में, एक मुद्रा को तरल होना चाहिए जिसका अर्थ यह है कि निवेशक कीमतों में बदलाव के बिना इसमें बड़ी मात्रा में परिसंपत्ति खरीद और बेच सकते हैं। तरलता, व्यापक वित्तीय बाजारों और एक खुले पूंजी खाते पर निर्भर करती है। भारत का शेयर बाजार जीवंत है लेकिन इसका ऋण बाजार उथला बना हुआ है। इतिहास से पता चलता है कि पूंजी नियंत्रण वाले देशों में बाजार में उथलापन होता है जबकि विदेशी निवेशकों के लिए खुलापन नकदी या तरलता को बढ़ाता है। फिर भी, उदारीकरण शुरू होने के तीन दशक से अधिक समय बाद भी,भारत अब भी व्यापक नियंत्रण बनाए हुए है खासतौर पर अपने ऋण और डेरिवेटिव्स बाजारों में जो रुपये की वैश्विक पहुंच को सीमित करता है।

यहीं पर भारत के दृष्टिकोण को चीन से अलग रखना चाहिए। चीन ने पूंजी नियंत्रण और सख्ती से प्रबंधित विनिमय दर को बरकरार रखते हुए आरएमबी का अंतरराष्ट्रीयकरण करने की कोशिश की है। यह वास्तव में एक ऐसा संयोजन है जिसमें किसी भी मुद्रा ने कभी सफलता नहीं पाई है। चीन का फायदा इसके व्यापक पैमाने में निहित है मसलन यह वैश्विक व्यापार के 12 फीसदी से अधिक को नियंत्रित करता है और कुछ उत्पादों में, दुनिया के निर्यात के आधे से अधिक हिस्से को। यह वर्चस्व सीमित परिवर्तनीयता की बाधाओं की आंशिक रूप से भरपाई कर सकता है। भारत, वैश्विक व्यापार के केवल 3 फीसदी हिस्से के साथ उस फायदे से वंचित है। यह अंतर डेटा में नजर आता है। वैश्विक विदेशी विनिमय कारोबार में आरएमबी का योगदान लगभग 9 फीसदी है जबकि रुपया 2 फीसदी से नीचे होने की वजह से पिछड़ रहा है।

भारत के लिए आगे बढ़ने की सबसे अच्छी राह यही है कि वह धीरे-धीरे अपने पूंजी नियंत्रणों को कम करे। आरबीआई और सरकार ने 2020 से सार्थक कदम उठाए हैं लेकिन और अधिक की आवश्यकता है। इसके साथ ही, भारत को बाजार सहभागियों के लिए पर्याप्त हेजिंग विकल्पों को सुनिश्चित करते हुए एक वास्तविक रूप से लचीली विनिमय दर अपनानी चाहिए। प्रोत्साहन की बात यह है कि प्रगति दिखाई दे रही है और वर्ष 2022-24 की लगभग निर्धारित विनिमय दर व्यवस्था से, जब रुपया-डॉलर अस्थिरता रिकॉर्ड निचले स्तर पर पहुंच गई थी, आरबीआई ने तब से मुद्रा को बाजार की ताकतों के साथ अधिक स्वतंत्रता से चलने की अनुमति दी है।

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निश्चित रूप से, भारत रातोंरात पूंजी खाते को उदार नहीं बना सकता या पूरी तरह से लचीली विनिमय दर को नहीं अपना सकता। एक आशाजनक दृष्टिकोण यह है कि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्र के रूप में गिफ्ट सिटी का उपयोग एक नियंत्रित प्रयोग के रूप में किया जाए। यह एक खुले पूंजी खाते, लचीली विनिमय दरों और मजबूत हेजिंग उपकरणों के साथ भारत का ‘हांगकांग’ बन सकता है। आरबीआई इस तरह की प्रणाली का प्रबंधन करने में मूल्यवान अनुभव हासिल कर सकता है और इसके आधार पर धीरे-धीरे रुपये के अंतरराष्ट्रीय दर्जे की ओर आगे बढ़ा सकता है।

रुपये को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बनाना वर्ष 2047 तक विकसित राष्ट्र बनने के भारत के नजरिये के साथ मेल खाता है। लेकिन अगले दो दशकों में इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए लगातार, सोच-समझ कर कार्रवाई करने की आवश्यकता होगी। मुद्रा अंतरराष्ट्रीयकरण, एक लंबी यात्रा है जिसके लिए कई निर्माण खंडों की आवश्यकता होती है। भारतीय नीति निर्माताओं को चीन से एक अलग रास्ता तैयार करना होगा, जो रुपये की वैश्विक भूमिका को सीमित करने वाली बाधाओं को धीरे-धीरे खत्म करे। सफलता वास्तव में आर्थिक सुधारों के प्रति दृढ़ प्रतिबद्धता पर निर्भर करेगी जो मुद्रा में अंतरराष्ट्रीय भरोसे को बढ़ाते हैं।

(लेखिका आईजीआईडीआर मुंबई में अर्थशास्त्र की एसोसिएट प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

First Published : October 31, 2025 | 9:17 PM IST