केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण महज कुछ सप्ताह में अपना लगातार चौथा बजट पेश करेंगी। स्वतंत्र भारत में अब तक 23 वित्त मंत्री (तीन प्रधानमंत्रियों को छोड़कर) हुए हैं जिन्होंने अपने कार्यकाल में कम से कम एक बजट पेश किया है। परंतु इनमें से केवल आठ को लगातार चार बजट पेश करने का गौरव प्राप्त है। जब सीतारमण 1 फरवरी को चौथा बजट पेश करेंगी तो वह ऐसा करने वाली नौवीं वित्त मंत्री बन जाएंगी।
क्या किसी वित्त मंत्री द्वारा लगातार चार बजट पेश करना अहम संकेतक है? इसे लेकर साफ तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन यह भी सच है कि वित्त मंत्रियों को अपने काम में पारंगत होने में समय लगता है। चौथा बजट पेश करने तक वे आर्थिक नीति की चुनौतियों से निपटने के मामले में अधिक पारंगत हो जाते हैं। यही वजह है कि चौथे बजट में जो विचार वे पेश करते हैं उनसे बतौर वित्त मंत्री उनके कार्यकाल को परिभाषित किया जा सकता है। निश्चित तौर पर इसके अपवाद भी हैं लेकिन व्यापक रुझान ऐसा ही है।
सुधार के बाद के बजटों पर नजर डालिए। अरुण जेटली ने 2017 में अपना चौथा बजट चार सप्ताह पहले पेश किया और यह सिलसिला अब भी जारी है। उन्होंने 50 करोड़ रुपये तक के सालाना कारोबार वाली सभी कंपनियों के लिए कॉर्पोरेशन कर दर घटाकर 25 फीसदी कर दी। देश में 96 फीसदी कंपनियां ऐसी ही थीं। उन्होंने विवादास्पद निर्वाचन बॉन्ड योजना तथा बाद में वस्तु एवं सेवा कर को लागू करने की घोषणा भी की। प्रणव मुखर्जी ने 2012 के बजट में विवादित रेट्रोस्पेक्टिव (पुरानी तिथि से लागू) कर पेश किया जिसके बाद सरकार पर कर आतंक फैलाने का आरोप लगा और नौ वर्ष बाद उसे वापस लेना पड़ा।
सन 2007 में पी चिदंबरम ने तमाम वस्तुओं पर लगने वाले सीमा शुल्क में भारी कटौती की घोषणा की और कहा कि 2010 तक वस्तु एवं सेवा कर लागू कर दिया जाएगा। हालांकि वह यह वादा नहीं निभा सके। सन 2001 में यशवंत सिन्हा ने रुपये को आंशिक रूप से परिवर्तनीय बनाया और तेल उत्पादों की प्रशासित मूल्य प्रणाली को मार्च 2002 तक चरणबद्ध रूप से समाप्त किया। मनमोहन सिंह का पहला बजट यकीनन महत्त्वाकांक्षी राजकोषीय सुदृढ़ीकरण तथा सुधार कार्यक्रम पर आधारित था लेकिन उन्होंने सन 1994 में अपने चौथे बजट में कई उत्पादों पर लगने वाले सीमा शुल्क में कटौती की घोषणा की तथा सरकार की ऋण जरूरतों को पूरा करने के लिए तदर्थ ट्रेजरी बिलों के इस्तेमाल को चरणबद्ध रूप से समाप्त करने की योजना का उल्लेख किया।
निर्मला सीतारमण अपने चौथे बजट में क्या करेंगी? वह कौन सी बड़ी पहल कर सकती हैं इस बारे में कोई संकेत नहीं है। लेकिन यह अवश्य स्पष्ट है कि वह राजकोषीय सुदृढ़ीकरण की योजना को लेकर जो कुछ करेंगी उस पर करीबी नजर रहेगी क्योंकि फिलहाल अर्थव्यवस्था कोविड-19 के विपरीत प्रभाव से निपट रही है।
राजस्व और व्यय के मौजूदा रुझान बताते हैं कि सीतारमण सरकार के राजकोषीय घाटे में एक वर्ष में सर्वाधिक कमी का रिकॉर्ड बना सकती हैं। 2021-22 का कर राजस्व अब तक अच्छा है और कोविड संबंधी राहत उपायों के तमाम दबावों के बावजूद कुल प्राप्तियों की बदौलत लक्ष्य से फिसलन को थामा जा सकता है। संभव है कि वह घाटे को 2020-21 के 9.5 फीसदी से कम करे 2021-22 में 6.8 फीसदी कर लें यानी 2.7 फीसदी की कमी।
अतीत में केवल दो वर्षों में राजकोषीय घाटे में दो फीसदी अंक की भारी कमी आई है। सन 1991 में मनमोहन सिंह घाटे में 2.22 फीसदी अंक कमी करने में कामयाब रहे थे और 2010-11 में प्रणव मुखर्जी ने 1.66 फीसदी अंक की कमी करने में कामयाबी पाई थी। उन दोनों मामलों में ठीक पिछले वर्ष घाटा काफी अधिक रहा था। ऐसा क्रमश: सन 1990 के भारत के आर्थिक संकट और 2008-09 के वैश्विक वित्तीय संकट के प्रभाव के कारण हुआ था। सीतारमण को सरकारी वित्त पर कोविड के असर का भी ध्यान रखना होगा। हालांकि ऐसा लगता है कि राजकोषीय सुदृढ़ीकरण के मोर्चे पर उन्होंने पिछले दो उदाहरणों की तुलना में अच्छी प्रगति की है।
यकीनन 2021-22 में राजकोषीय सुदृढ़ीकरण पर उनका प्रदर्शन ही यह तय करेगा कि अगले कुछ वर्षों में उनके समक्ष क्या काम होगा। वह पहले ही कह चुके हैं कि 2025-26 तक सरकार का राजकोषीय घाटे का स्तर जीडीपी के 4.5 फीसदी तक लाया जाएगा। चार वर्ष में 6.8 फीसदी से 4.5 फीसदी तक का सफर यकीनन गत एक वर्ष में हुई कमी की तुलना में कम मुश्किलों भरा होगा।
इससे उन्हें न केवल 2022-23 के बजट के प्रबंधन के लिए बल्कि आगे के कुछ वर्षों के लिए भी अच्छी खासी गुंजाइश मिलेगी। अब उनके पास यह सुविधा भी है कि वे अगले चार वर्षों के दौरान हर वर्ष 0.75 फीसदी अंक की कमी करें और 2025-26 में 4.5 फीसदी के लक्ष्य से आगे रहें। यदि वह 2025-26 के आसान लक्ष्य को देखते हुए आने वाले वर्षों में सुदृढ़ीकरण की प्रक्रिया को धीमा करती हैं तो यह बेहतर नहीं कहा जाएगा।
ऐसा इसलिए कि राज्यों की वित्तीय स्थिति बहुत अच्छी नहीं नजर आ रही है। राज्यों के संयुक्त राजकोषीय घाटे का स्तर 2021-22 में जीडीपी के 4 फीसदी के बराबर तय किया गया था लेकिन लगता नहीं है कि राज्य इस लक्ष्य को हासिल कर सकेंगे। राज्यों को राजकोषीय सुदृढ़ीकरण का कठिन लक्ष्य दिया गया है। उन्हें 2023-24 तक घाटे को 3 फीसदी करना है जबकि केंद्र इसके दो वर्ष बाद 2025-26 में 4.5 फीसदी के स्तर पर पहुंचेगा। यह अनुचित प्रतीत होता है कि केंद्र को शिथिलता मिले जबकि राज्यों से ज्यादा जवाबदेही की आशा की जाए।
यहां समता का मसला भी है। महामारी के आगमन के पहले राज्यों का संयुक्त राजकोषीय घाटा 3 फीसदी के लक्ष्य से नीचे था। इससे केंद्र सरकार को कुछ गुंजाइश मिली। उदाहरण के लिए 2017-18 में राज्यों का घाटा 2.4 फीसदी था जबकि केंद्र का 3.5 फीसदी। सन 2018-19 और 2019-20 में भी राज्यों का राजकोषीय घाटा 3 फीसदी से कम था और इससे सरकार के कुल घाटे पर लगाम लगाने में मदद मिली क्योंकि इस अवधि में केंद्र 3 फीसदी से ऊंचे स्तर पर था।
अब वक्त आ गया है कि केंद्र सरकार तेज गति से राजकोषीय सुदृढ़ीकरण हासिल करके अपना फर्ज निभाए और राज्यों को महज दो वर्ष में घाटे को 3 फीसदी करने के दबाव से कुछ राहत दे।
