वित्तीय बाजारों में घोटाले, भ्रामक बिक्री और अवैध गतिविधियां आम हैं। इनसे खुदरा निवेशक सबसे अधिक प्रभावित होते हैं, जो अपनी गाढ़ी कमाई का एक बड़ा हिस्सा गंवा देते हैं। इस तरह की हर घटना के बाद नियामक नियम कड़े करते हैं, लेकिन अपराधों की तादाद नहीं घटा पाते हैं। दरअसल, हाल में बड़ी तादाद में ब्रोकरों के डिफॉल्ट करने या म्युचुअल फंडों के धोखाधड़ी करने की घटनाएं 1990 के दशक की याद दिलाती हैं और इन्होंने बाजार में बड़ी मुश्किल से लाए गए सुधारों की हवा निकाल दी है। एक नजरिया इसे अपरिहार्य तथ्य के रूप में स्वीकार करना और यह कहना है, ‘नियामक हर मामले से सबक लेने और बचने के रास्तों को बंद करने के अलावा और क्या कर सकते हैं?’ या यह कहना कि ‘हर जगह धोखेबाज होंगे, आप उन्हें रोक नहीं सकते। ऐसा दुनिया भर में होता है।’ दूसरा नजरिया निवेशकों को लालची और भोले-भाले बताकर उनकी आलोचना करना है। कदाचार के मामलों में बड़ी कमी लाने के लिए एक आसान समाधान है, जो 3,750 वर्ष पहले के विचार से लिया गया है। लेकिन मैं इसे लेकर चर्चा करूं, उससे पहले हम अपने मौजूदा नियामकीय नजरिये की पड़ताल करते हैं।
एटी1 बॉन्ड : इस साल मार्च में जब येस बैंक दिवालिया हो गया तो भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने बैंक को एटी1 बॉन्डों की पूरी कीमत (8,415 करोड़ रुपये) बट्टे खाते में डालने की मंजूरी दे दी। इसमें पैसा गंवाने वाले ऐसे जमाकर्ता भी थे, जिन्होंने येस बैंक के रिलेशनशिप मैनेजरों (आरएम) के झांसे में आकर अपनी जीवनभर की बचत का एक बड़ा हिस्सा इन बॉन्डों में लगाया था। इन आरएम ने पांच साल की अवधि और 9.5 फीसदी सालाना ब्याज वाले इन बॉन्डों की भ्रामक बिक्री की। इन आरएम ने दावा किया था कि ये बॉन्ड बैंक सावधि जमा (एफडी) जितने सुरक्षित हैं और इनका जोखिम वाले शेयर बाजार से कोई लेनादेना नहीं है। आरएम ने खुदरा निवेशकों को द्वितीयक बाजार से बॉन्ड खरीदने के लिए प्रोत्साहित किया। ये बॉन्ड खुदरा निवेशकों के लिए नहीं हैं, इसलिए उनके लिए प्राथमिक निर्गम उपलब्ध नहीं था। जब निवेशकों ने पूरा पैसा गंवा दिया और हर्जाने की मांग करते हुए बैंक को अदालत में घसीटा तो आरबीआई ने कहा कि इन बॉन्डों में जोखिम जग जाहिर था।
लेकिन फिर भी एटी1 बॉन्डों की सुरक्षित एफडी के रूप में बिक्री जारी रही, जिसका हमने 1 अक्टूबर को मनीलाइफ में खुलासा भी किया था। इसके बाद 5 अक्टूबर को भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने यह सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाया कि खुदरा निवेेशकों के लिए एटी1 बॉन्डों की उपलब्धता कम हो। बैंक बॉन्ड केवल एक इलेक्ट्रॉनिक प्लेटफॉर्म पर और केवल संस्थागत निवेशकों को ही जारी कर सकते हैं, जिनका न्यूनतम आवंटन आकार और कारोबारी लॉट आकार एक करोड़ रुपये तय किया गया। इससे सेबी ने यह स्वीकार किया कि येस बैंक के एटी1 बॉन्डों की भ्रामक बिक्री हुई है, लेकिन भ्रामक बिक्री घोटाले के गुनहगार बचकर निकल गए।
एनएसई : सेबी ने आखिरकार 1 अक्टूबर को उसकी मंजूरी के बिना असंबद्ध कारोबारों में हिस्सेदारी खरीदने के लिए नैशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) के खिलाफ कार्रवाई की। एनएसई ने उन छह कंपनियों में निवेश किया था, जो स्टॉक एक्सचेंज के कारोबार के मुनासिब नहीं हैं। सेबी के आदेश में कहा गया, ‘एनएसई को अग्रणी स्टॉक एक्सचेंज होने के नाते अनुपालना के उच्च मानक स्थापित करने चाहिए थे…यह उल्लंघन बार-बार हो रहा है और लंबे समय से जारी है।’ हम उन छह उल्लंघनों में से एक पर नजर डालते हैं, जो हाल में सार्वजनिक कंपनी बनने वाली कंपनी कंप्यूटर एज मैनेजमेंट सिस्टम्स (कैम्स) से संबंधित है।
बीएसई वर्ष 2010 में कैम्स में 51 फीसदी हिस्सेदारी खरीदना चाहता था। सेबी ने यह कहते हुए बीएसई को ऐसा करने से रोक दिया कि यह हितों का टकराव माना जाएगा। लेकिन उसने दिसंबर 2013 में एनएसई को कैम्स के दो शेयरधारकों के साथ 187.86 करोड़ रुपये में 45 फीसदी हिस्सेदारी खरीदने के सौदे को मंजूरी दे दी। एनएसई के पिछले प्रबंधन ने सेबी से मंजूरी लेने या उसे सूचित करने तक की जहमत नहीं उठाई। सेबी ने इस मामले की 2017 के प्रारंभ में जांच शुरू की। एनएसई ने 7.5 फीसदी हिस्सेदारी वारबर्ग पिनकस फंड को बेचने के बाद 37.5 फीसदी हिस्सेदारी अपने पास बनाए रखी। कैम्स का शेयर शुक्रवार को 1,137 रुपये पर था। एनएसई के पास करीब 1.82 करोड़ शेयर हैं, जो उसने नियामक की मौन स्वीकृति से खरीदे हैं। इन शेयरों की कीमत 2,444 करोड़ रुपये थी, जिससे एनएसई 2,102 करोड़ रुपये के मुनाफे में है। यह उस 125 करोड़ रुपये के मुनाफे से अलग है, जो वह पहले ही कमा चुका है। इस बात को याद करें कि सेबी के 1 अक्टूबर के आदेश में कहा गया है कि पहली बात तो यह हिस्सेदारी खरीदना ही अवैध था। अब सेबी के आदेश में उल्लिखित छह उल्लंघनों के लिए एनएसई पर लगाए गए जुर्माने का अनुमान लगाएं। छह करोड़ यानी बिना स्वीकृति के कैम्स में हिस्सेदारी खरीदने के लिए करीब एक करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया गया, जबकि एनएसई करीब 2,300 करोड़ रुपये के मुनाफे में है। कौन कहता है कि उल्लंघनों का फायदा नहीं मिलता है?
क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां (सीआरए) : एक बड़े समूह इन्फ्रास्ट्रक्चर लीजिंग ऐंड फाइनैंशियल सर्विसेज ग्रुप ने 91,000 करोड़ रुपये की उधारी ली हुई थी। समूह ने गैर-परिवर्तनीय डिबेंचर जारी किए थे। क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने इन्हें सबसे ऊंची रेटिंग दी थी। मगर सितंबर 2018 में महज 25 से 40 दिनों के भीतर ही इनकी रेटिंग घटाकर डिफॉल्ट ग्रेड कर दी गई। जब सेबी ने आखिरकार इन रेटिंग एजेंसियों के खिलाफ कार्रवाई की तो उसने कहा, ‘क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों की भूमिका वित्तीय ‘द्वारपाल’ की है और उनके रेटिंग प्रक्रियाओं में कोई गलती करने का प्रतिभूति बाजार पर बड़ा नकारात्मक असर पड़ता है।’ इतनी बड़ी लापरवाही के लिए प्रत्येक रेटिंग एजेंसी (इक्रा, केयर और इंडिया रेटिंग्स) पर 25 लाख रुपये का मामूली जुर्माना लगाया गया, जिसे बाद में बढ़ाकर एक करोड़ रुपये किया गया। लेकिन इससे निवेशकों को भारी वित्तीय घाटा हुआ है। वर्ष 2019 में केयर का मुनाफा 2,000 करोड़ रुपये और इक्रा का 150 करोड़ रुपये। यह बात याद रखें कि इतना मोटा मुनाफा केवल इसलिए संभव हो पाया है क्योंकि सेबी ने रेटिंग अनिवार्य बना दी है।
आप यह पैटर्न देख सकते हैं। घोटाले, कदाचार और अवैध कार्य लगातार केवल इसलिए नहीं होते रहते हैं क्योंकि इन्हें रोकना मुश्किल है बल्कि इसकी वजह यह है कि पकड़े जाने की मामूली कीमत चुकानी पड़ती है। इन सब के बीच नियामकों से निराश पीडि़त निवेशक उन मुद्दों के समाधान के लिए पुलिस से लेकर अदालतों तक के चक्कर लगाते हैं, जिनके लिए विशेष वित्तीय नियामक बनाए गए हैं।
दुखद बात यह है कि हमें 3,750 वर्षों से अधिक पहले से पता है कि क्या करना चाहिए, मगर हम वह नहीं करते हैं। प्रारंभिक में से एक और सबसे ज्यादा संपूर्ण विधि संहिता बेबीलोनियाई राजा हम्मूराबी (1792 से 1750 ई. पूर्व) ने बनाई थी। हम्मूराबी की संहिता ने वाणिज्यिक लेनदेन के मानदंड स्थापित किए थे और उल्लंघनों के लिए जुर्माने तथा दंड तय किए थे। हम्मूराबी ने यह बात समझी थी कि आदेश और नियम लोगों को जवाबदेह नहीं बनाएंगे, हमें उल्लंघन के लिए उनसे कीमत वसूलनी होगी और इसमें उनकी चमड़ी दांव पर लगी होगी। उन्होंने घोषणा की थी कि चमड़ी शाब्दिक होनी चाहिए। अगर हमें हम्मूराबी संहिता को उपर्युक्त तीन मामलों में हल्के भी लागू करते तो येस बैंक के रिलेशनशिप मैनेजरों पर व्यक्तिगत जुर्माने लगने चाहिए थे। क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों पर एक साल के लाभ का जुर्माना लगाया जाना चाहिए था और कैम्स सौदे में एनएसई के पूरे लाभ को वापस लिया जाना चाहिए था। इसके अलावा क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों और एनएसई के वरिष्ठ अधिकारियों पर व्यक्तिगत जुर्माने लगाए जाने चाहिए थे। ये असाधारण लगते हैं, लेकिन उल्लंघन भी इतने ही असाधारण हैं। जब तक हम ऐसे कृत्यों के लिए मिसाल बनने लायक व्यक्तिगत और संस्थागत जुर्माना नहीं लगाएंगे, तब तक हम यही संकेत दे रहे हैं कि वित्तीय अपराध करने का लाभ मिलता है, इसलिए वे उन्हें बार-बार दोहराते रहेंगे।