देश के सार्वजनिक उपक्रमों यानी पीएसयू के साथ नरेंद्र मोदी सरकार के संबंध पिछले 10 साल में काफी बदल गए हैं। इसे लेकर कुछ स्पष्ट तो कुछ अस्पष्ट रुझान हैं। केंद्रीय पीएसयू में सरकारी हिस्सेदारी के विनिवेश से होने वाली प्राप्तियों में बढ़ोतरी और गिरावट ऐसा ही एक स्पष्ट रुझान है। यह वर्ष 2014-15 में जीडीपी के 0.2 फीसदी से बढ़कर 2017-18 में 0.6 फीसदी तक पहुंचा। परंतु अगले कुछ साल तक इसमें लगातार गिरावट आई और 2024-25 में यह 0.03 फीसदी रह गया। वर्ष 2017-18 के बाद से विनिवेश में गिरावट उससे पहले तीन वर्षों में हुए इजाफे की तुलना में तेज थी।
विनिवेश की नीति 1990 के दशक के आरंभ में शुरू की गई थी ताकि राजस्व बढ़ाया जा सके और पीएसयू में सरकारी की हिस्सेदारी कम करके उनमें स्वायत्तता बढ़ाई जाए। इसके पीछे मूल विचार यह था कि सरकार को कारोबार नहीं चलाने चाहिए। विनिवेश को सार्वजनिक कंपनियों के अंतत: निजीकरण करने की प्रक्रिया का अंग माना गया।
जाहिर है कि इसी वजह से विनिवेश राजनीतिक रूप से संवेदनशील विचार बन गया। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार के कुछ साल को छोड़ दिया जाए जब करीब दर्जन भर सरकारी उपक्रमों का निजीकरण किया गया था, तो उसके अलावा निजीकरण का विचार परवान न चढ़ सका। बीते तीन दशक में विनिवेश के मामले में भी धीमी प्रगति हुई है।
मई 2014 में मोदी सरकार के आने के बाद उम्मीद थी कि विनिवेश की योजना का तेजी से क्रियान्वयन होगा और अंतत: निजीकरण का भी। शुरुआत भी अच्छी हुई थी और मोदी के पहले कार्यकाल के शुरुआती वर्षों में विनिवेश भी अच्छा हुआ लेकिन यह बरकरार न रह सका।
बीते 10 साल में केवल तीन सरकारी उपक्रमों का निजीकरण किया जा सका- एयर इंडिया, नीलाचल इस्पात और फेरो स्क्रैप निगम। वर्ष 2021 में मोदी सरकार ने आधा दर्जन सरकारी उपक्रमों का निजीकरण करने का निश्चय किया लेकिन इस दिशा में शायद ही कोई कदम उठाया गया। इसके बजाय सरकार ने राष्ट्रीय इस्पात निगम जैसे उपक्रमों में नई पूंजी डालनी शुरू कर दी, जिसका कि पहले निजीकरण करने की बात की जा रही थी। सरकार ने यह कहते हुए बचाव किया कि वह मानती है कि पीएसयू मूल्य निर्माण करते हैं। परंतु आंकड़े कुछ और ही कहते हैं।
बीते 10 साल में सरकार की विनिवेश और लाभांश से होने वाली प्राप्तियां जीडीपी के 0.45 फीसदी से कम होकर 0.25 फीसदी रह गईं। यह मोदी सरकार के पीएसयू के साथ संबंधों का वह पहलू है जो स्पष्ट नहीं है। इसके विपरीत सरकार ने पीएसयू में इक्विटी और ऋण के जरिये पूंजी निवेश लगातार बढ़ाया है। बीते 10 साल की बात करें तो 2014-15 में जहां उनमें पूंजी निवेश जीडीपी का 0.54 फीसदी था वहीं 2024-25 में यह बढ़कर 1.66 फीसदी हो गया। इसके पहले मनमोहन सिंह के 10 साल के कार्यकाल की बात करें तो 2004-05 के जीडीपी के 0.53 फीसदी से बढ़कर 2013-14 तक यह 0.61 फीसदी हुआ था।
मोदी सरकार ने पीएसयू में जो पूंजी बढ़ाई है वह बीते 10 साल की पूंजीगत व्यय योजना से असंबद्ध नहीं है। वर्ष2014-15 के जीडीपी के 1.6 फीसदी से बढ़कर सरकार का पूंजीगत व्यय 2024-25 में 3.1 फीसदी हो गया।
तथ्य यह है कि सरकार की पूंजीगत व्यय योजना इसलिए इतनी महत्त्वाकांक्षी हो सकी क्योंकि यह सार्वजनिक क्षेत्र को लेकर संशोधित रणनीति पर आधारित थी। याद रहे कि सरकार ने पीएसयू में जो
इक्विटी पूंजी डाली और जो ऋण दिया वह भी कुल पूंजीगत व्यय योजना का हिस्सा था। वर्ष 2014-15 में पीएसयू में कुल इक्विटी पूंजी और ऋण करीब 67,512 करोड़ रुपये का था जो मोदी सरकार के 1.96 लाख करोड़ रुपये के कुल पूंजीगत व्यय का करीब 34 फीसदी था। वर्ष2024-25 के अंत तक यह हिस्सेदारी बढ़कर 54 फीसदी हो गई और कुल 10.2 लाख करोड़ रुपये के पूंजीगत व्यय में पीएसयू की इक्विटी पूंजी और ऋण के 5.48 लाख करोड़ रुपये रहने का अनुमान था।
कुल मिलाकर सरकार की घोषित नीति पीएसयू को मूल्य निर्माण का स्रोत बताने की है लेकिन इसके चलते बीते एक दशक में राजस्व में कोई खास वृद्धि नहीं हुई है। जीडीपी के प्रतिशत के रूप में पीएसयू के विनिवेश और लाभांश में कमी आई है। परंतु सरकार इनमें और अधिक संसाधन डाल रही है। इसकी वजह से पूंजीगत व्यय योजना में लगातार इजाफा हुआ है।
पलटकर देखें तो लगता है कि पीएसयू को पूंजी और ऋण के रूप में मदद जारी रखना वृद्धि पर बल देने के लिए पूंजीगत व्यय बढ़ाने की सरकार की समग्र योजना का हिस्सा रहा है। खासतौर पर कोविड महामारी के बाद। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में सरकारी हिस्सेदारी के विनिवेश से दूरी बनाना जितना अहम है उतनी ही महत्त्वपूर्ण यह नीति भी है कि उच्च पूंजीगत व्यय के माध्यम से अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र का उपयोग
किया जाए।
आगे भी सरकार की समग्र पूंजीगत व्यय योजना को बनाए रखना केंद्रीय पीएसयू के पूंजीगत आधार को मजबूत करने पर निर्भर बना रहेगा। इस राह पर चलने की अपनी सीमाएं हो सकती हैं जब तक कि सरकार अपनी पूंजीगत व्यय योजना को गति देने के लिए नए तरीके तलाशने की कोशिश नहीं करती।
स्पष्टीकरण: वर्ष 2024-25 के अनंतिम आंकड़ों के अनुसार व्यक्तिगत आय कर संग्रह संशोधित अनुमान में उल्लिखित संग्रह से 6 फीसदी नहीं बल्कि 1.7 फीसदी कम था।
इस स्तंभ के पिछले आलेख ‘राजस्व के अधिक अनुमान के खतरे’ में उसे 6 फीसदी कम बताया गया था। अनजाने में हुई इस त्रुटि के लिए खेद है। वित्त मंत्रालय का एक नोट यह भी बताता है कि शुद्ध कर राजस्व संग्रह में 2.3 फीसदी की गिरावट की एक प्रमुख वजह एकीकृत वस्तु एवं सेवा कर या आईजीएसटी से होने वाली प्राप्तियों का ‘ऋणात्मक’ रहना भी है। इनके 2024-25 के संशोधित अनुमानों में शून्य रहने का अनुमान था लेकिन वास्तविक संग्रह में ये 32,995.3 करोड़ रुपये ऋणात्मक रहीं। ऐसा मोटे तौर पर राज्यों के साथ अत्यधिक निपटान के कारण हुआ।
बहरहाल, केंद्र सरकार ने इस राशि को मार्च के बाद राज्यों के साथ समायोजित नहीं करने का निर्णय लिया ताकि इसे वृद्धि को गति देने वाली योजनाओं में निवेश किया जा सके। आईजीएसटी बकाया नहीं वसूल करने के उसके निर्णय ने राज्यों को ऐसे समय पर जरूरी गुंजाइश मुहैया कराई जब जोर इस बात पर था कि बिना केंद्र सरकार के राजकोषीय प्रदर्शन पर असर डाले वृद्धि पर बल दिया जाए। यहां तक कि केंद्र के पूंजीगत व्यय में इजाफे ने भी राज्यों की मदद की क्योंकि इजाफे का बड़ा हिस्सा उन्हें मिले शून्य ब्याज वाले ऋण की बदौलत था।
वित्त मंत्रालय के नोट्स इस बात की ओर भी संकेत करते हैं कि राजस्व व्यय में अंतिम समय में कोई कटौती नहीं की गई जो संशोधित अनुमान से कम था क्योंकि राज्यों को सशर्त वित्त आयोग अनुदान (जिन्होंने अपने दावे पेश नहीं किए या शर्तें पूरी करने में नाकाम रहे) के कारण 25,000 करोड़ रुपये की बचत हुई। ब्याज भुगतान की मांग में 20,000 करोड़ रुपये की बचत हुई।
केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित विभिन्न योजनाओं के कारण 18,000 करोड़ रुपये की बचत हुई क्योंकि इनके लिए राज्यों को अतिरिक्त संसाधनों की आवश्यकता नहीं थी। इसी तरह सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों के लिए तय फंड्स का उपयोग न करने के कारण 8,000 करोड़ रुपये की बचत हुई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कोविड के वर्षों के दौरान उन्हें दिए गए ऋण फंसे कर्ज में तब्दील नहीं हुए और इन फंड्स की आवश्यकता नहीं पड़ी।