भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने आर्थिक परिस्थितियों का जो आकलन किया है वह सरकार की तुलना में हकीकत के अधिक करीब है। सरकार का कहना है कि कोविड-19 के कारण अर्थव्यवस्था में आई गिरावट से होने वाला सुधार अंग्रेजी के ‘वी’ अक्षर के आकार का होगा, यानी तेज गिरावट के बाद उसी क्रम में तेज सुधार देखने को मिलेगा। परंतु आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास ने बुधवार को कहा कि सुधार की प्रक्रिया पूरी तरह आवेशित नहीं है और हाल के महीनों में कुछ क्षेत्रों के प्रदर्शन में हुआ सुधार गिरावट की भरपाई है। उनके मुताबिक सुधार धीमा रह सकता है और बढ़ते संक्रमण के कारण आर्थिक गतिविधियां प्रभावित होंगी। उच्च तीव्रता वाले संकेतकों के अलावा इस सप्ताह जारी मासिक कारोबारी आंकड़े भी यही सुझाते हैं कि आर्थिक सुधार में समय लगेगा। तीन महीनों के सुधार के बाद अगस्त में निर्यात में गिरावट आई। इस बीच आयात में संकुचन की दर कम हुई और जुलाई के 28.4 प्रतिशत से घटकर अगस्त में 26.04 प्रतिशत रह गई। इसका नतीजा व्यापार घाटे में इजाफे के रूप में सामने आया। आयात में कमी बताती है कि मांग कमजोर है और व्यापार घाटे में इजाफा प्राय: सोने का आयात बढऩे से हुआ है।
व्यापार घाटे में इजाफा शायद निकट भविष्य में वृहद आर्थिक प्रबंधन में मदद करे क्योंकि इससे भुगतान संतुलन अधिशेष कम होगा और आरबीआई को मुद्रा बाजार में कम हस्तक्षेप करना होगा। इससे केंद्रीय बैंक के पास बॉन्ड बाजार में हस्तक्षेप की गुंजाइश बनेगी। बहरहाल, मध्यम अवधि में भारत को सतत वृद्धि के लिए निर्यात पर ध्यान केंद्रित करना होगा। सन 2020 की दूसरी तिमाही में वैश्विक वस्तु व्यापार में 18 फीसदी गिरावट आने का अनुमान है। परंतु वैश्विक अर्थव्यवस्था में स्थिरता आने पर और व्यापारिक परिदृश्य में सुधार होने पर भारत को वृद्धि को गति देने के लिए निर्यात बढ़ाने पर जोर देना होगा। आने वाले वर्षों में घरेलू मांग कमजोर बनी रह सकती है क्योंकि घाटे में विस्तार और चालू वित्त वर्ष में सरकारी कर्ज बढऩे के कारण सरकारी व्यय सीमित रहेगा। यकीनन निर्यात को बढ़ावा देने के लिए सरकार और आरबीआई दोनों को नीतिगत हस्तक्षेप करना होगा। दास ने अपने संबोधन में सही कहा कि वैश्विक मूल्य शृंखला में भारत की भागीदारी बढ़ाने की आवश्यकता है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार का बड़ा हिस्सा अब इसी के माध्यम से होता है। बहरहाल, इसमें भारत की भागीदारी कम है और अनुमानों के अनुसार हाल के वर्षों में इसमें कमी भी आई है। इसमें चकित होने वाली बात नहीं है क्योंकि देश की व्यापार नीति का झुकाव संरक्षणवाद की ओर हुआ है। वैश्विक मूल्य शृंखला में उच्च भागीदारी के लिए वस्तुओं का सीमा पार अबाध प्रसार आवश्यक है। उच्च टैरिफ और नीतिगत अनिश्चितता भारत को इसका अनिवार्य अंग नहीं बनने देगी।
ऐसे में यह अहम है कि सरकार व्यापार नीति की समीक्षा करे और वैश्विक मूल्य शृंखला में देश की भागीदारी के लिए जरूरी बदलाव लाए। इस संदर्भ में भारत यदि क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी में शामिल होने को लेकर अपने रुख की समीक्षा करे तो अच्छा होगा। इसके अलावा हाल में लगे प्याज निर्यात पर प्रतिबंध जैसे यदाकदा उठाए जाने वाले नीतिगत कदम भी भारत की विश्वसनीय आपूर्तिकर्ता की छवि पर असर डालते हैं। इस बीच आरबीआई को यह सुनिश्चित करना होगा कि रुपये का मूल्य उचित हो। अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व का ताजा अनुमान सुझाता है कि नीतिगत दर 2023 तक शून्य के करीब रहेगी। इसका असर भारत जैसे देशों में विदेशी फंड की आवक पर पड़ेगा। आरबीआई को नजर रखनी चाहिए और मुद्रा के अनावश्यक अधिमूल्यन से बचना चाहिए। ज्यादा अधिमूल्यन न केवल निर्यात को प्रभावित करेगा बल्कि वह वृहद आर्थिक असंतुलन कायम कर वित्तीय स्थिरता को जोखिम भी बढ़ाएगा।