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राज्यों की वित्तीय अनुशासन पर चुनावी मुफ्त योजनाओं का बढ़ता असर

भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के नीचे उप-राष्ट्रीय यानी राज्यों में राजकोषीय विचलन की गहराती दरार की अब अनदेखी नहीं की जा सकती है। बता रहे हैं अमरेंदु नंदी

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अमरेंदु नंदी   
Last Updated- November 10, 2025 | 9:31 PM IST

बिहार के साथ ही चुनावों का एक अहम चक्र शुरू हो रहा है जो अगले दो साल तक चलेगा। इस दौरान 11 अन्य राज्यों में भी चुनाव होंगे। हमेशा की तरह चुनाव के पहले बंटने वाली ‘रेवड़ी’ और लोकलुभावन वादे इस दौरान सुर्खियों में रहेंगे। इससे भी ज्यादा अहम एक बात है जिस पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है और वह है राज्यों के वित्तीय अनुशासन का क्षरण।

देश की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के तहत उप राष्ट्रीय राजकोषीय विचलन अब अनदेखी करने लायक नहीं रह गया है। प्रतिस्पर्धी लोकलुभावनवाद के प्रमाण लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार बीते दो साल में आठ राज्यों के विधान सभा चुनावों से पहले 67,928 करोड़ रुपये की राशि व्यय की गई। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि महिलाओं पर केंद्रित योजनाएं अब सामान्य हो चली हैं और इनकी मदद से अक्सर सत्ताधारी दल असंतोष से पार पाकर दोबारा चुनाव जीत जाते हैं।

मध्य प्रदेश में लाड़ली बहना योजना ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को चार कार्यकालों की सत्ता विरोधी लहर से निपटने में मदद की और उसके मत प्रतिशत में 7.53 फीसदी का इजाफा हुआ। झारखंड में मैया सम्मान योजना भी झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के लिए उतनी ही कामयाब साबित हुई। पीआरएस की एक रिपोर्ट में अनुमान जताया गया है कि वर्ष 2024-25 में नौ राज्यों ने करीब एक लाख करोड़ रुपये की राशि महिलाओं को बिना शर्त नकदी हस्तांतरण के लिए आवंटित की। यह चुनावों से जुड़ा असाधारण राजकोषीय आवंटन था।

यह दलील दी जा सकती है कि इन वादों ने कल्याण और राजनीतिक संरक्षण के बीच की रेखा को धुंधला कर दिया है। इससे राज्यों की वित्तीय व्यवस्था में लोकलुभावनवाद गहराई से शामिल हो गया। विकास अर्थशास्त्र भी बेहतर डिजाइन वाले सशर्त हस्तांतरणों का समर्थन करता है खासतौर पर महिलाओं के लिए।

मुद्दा नकद हस्तांतरण नहीं बल्कि उनकी वर्तमान संरचना है जो अधिकतर बिना शर्त, सार्वभौमिक और लगभग स्थायी हो गई है। यह राजकोषीय दावों को स्थायी बनाती है और राज्यों के व्यय को उत्पादक निवेश से हटाकर बारंबार दी जाने वाली रियायतों की तरफ मोड़ देती है। सत्ता पक्ष और विपक्ष तथा राज्यों के बीच लोकलुभावनवाद की होड़ का यह चक्र राजकोषीय अपव्यय का आधार बढ़ाता रहता है।

नीति आयोग के राजस्व सेहत सूचकांक (एफएचआई) 2025 जिसने 18 बड़े राज्यों का राजकोषीय मानकों पर आकलन किया, वह इस मामले में एक अच्छी अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। संयुक्त ऋण-जीएसडीपी (राज्य का सकल घरेलू उत्पाद) अनुपात एक दशक पहले के 22 फीसदी से बढ़कर करीब 30 फीसदी हो गया है। ब्याज भुगतान का बोझ बढ़कर राजस्व प्राप्तियों के 21 फीसदी तक हो चुका है। पंजाब, पश्चिम बंगाल, केरल और राजस्थान में ऋण अनुपात बढ़कर 38 से 46 फीसदी तक जा पहुंचा है। कई राज्यों में राजस्व प्रा​प्ति का आधा से ज्यादा हिस्सा तो ब्याज भुगतान में चला जाता है जिसकी वजह से निवेश के लिए गुंजाइश कम रह जाती है।

फिर भी ये सुर्खियां पूरी कहानी नहीं बतातीं। बजट के बाहर की उधारी और गारंटी चुपचाप बढ़ती जा रही हैं। महाराष्ट्र की बजट से इतर गारंटियां ही लगभग 1.44 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच चुकी हैं। तमिलनाडु, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और केरल जैसे कई राज्य बिजली कंपनियों, सिंचाई निगमों, और परिवहन एजेंसियों के माध्यम से नियमित रूप से उधारी लेते हैं, जिससे ये दायित्व बहीखाते से बाहर रहते हैं।

भारतीय रिजर्व बैंक ने इन तरह के दस्तूर को लेकर बार-बार चेतावनी दी है, और अनुमान लगाया है कि ऐसा छिपा हुआ कर्ज राज्यों के वास्तविक राजकोषीय घाटे में 0.5 से 1 फीसदी अंक तक की बढ़ोतरी कर सकता है। यह मौन संचय, जो अक्सर चुनावी लोकलुभावनवाद से प्रेरित होता है, राज्यों की राजकोषीय विश्वसनीयता को कमजोर करता है और स्थायी, पीढ़ी-दर-पीढ़ी विकास की नींव को कमजोर करता है।

वित्तीय बाजार भी दबाव महसूस करने लगे हैं। बैंक राज्यों के बॉन्ड में मुख्य निवेशक हैं, लेकिन उन्होंने सीमित मांग दिखाई है और कई ऑक्शन में कम सब्सक्रिप्शन देखने को मिला। बैंक अक्टूबर-दिसंबर तिमाही में 2.82 लाख करोड़ रुपये की उधार लेने की योजना बना रहे हैं। वहीं आपूर्ति पाइपलाइन भारी बनी हुई है जबकि मांग कम है और रुझानों में सतर्कता है।

सितंबर के आरंभ में, 10-वर्षीय राज्य विकास ऋण (एसडीएल) और केंद्र सरकार की प्रतिभूतियों के बीच का अंतर बढ़कर 80–100 आधार अंक तक पहुंच गया जो पिछले पांच वर्षों में सबसे अधिक था। हालांकि कुल यील्ड बढ़ी है, लेकिन बाजार अब भी अच्छे और कमजोर उधारकर्ताओं में फर्क करने में जूझ रहा है। पंजाब और पश्चिम बंगाल, जिनका कर्ज क्रमशः जीएसडीपी के 47 फीसदी और 39 फीसदी से अधिक है, अब भी गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राजकोषीय रूप से मजबूत राज्यों (जहां यह अनुपात लगभग 19 फीसदी है) की तुलना में थोड़े ही अधिक दरों पर धन जुटा रहे हैं।

समान नीलामी प्रारूप और रिजर्व बैंक की हस्तक्षेप नीति ने इस अंतर को कृत्रिम रूप से कम कर दिया है, जबकि बैंकों की निवेश सीमा ने वास्तविक मूल्य निर्धारण की गुंजाइश को सीमित कर दिया है। ऐसे माहौल में, राजकोषीय अनुशासन को कोई इनाम नहीं मिलता, और अव्यवस्था को कोई सजा नहीं, जिससे राज्यों के लिए सही रास्ते पर चलने की प्रेरणा कमजोर पड़ जाती है।

राज्यों की राजकोषीय विश्वसनीयता बहाल करना केवल वित्तीय संयम से संभव नहीं होगा। इसके लिए ऐसी संस्थाओं और तंत्रों की आवश्यकता होगी, जो आसान वादों की राजनीति का प्रतिरोध कर सकें। केंद्र सरकार को ‘नो बेलआउट’ संबंधी नियम के प्रति विश्वसनीय प्रतिबद्धता दिखानी होगी।

जो राज्य संशोधित ऋण सीमा का उल्लंघन करें, उनके विवेकाधीन अनुदानों में स्वतः कटौती होना चाहिए। राज्य स्तर पर राजकोषीय उत्तरदायित्व कानून को नए सिरे से डिजाइन करना होगा। ऐसे ढांचे के आधार पर जो ऋण स्थायित्व विश्लेषण पर केंद्रित हो, और जिसमें सभी संभावित दायित्वों, विकास अनुमानों, और ब्याज की प्रवृत्तियों को शामिल किया जाए न कि य​ह केवल सरल घाटा सीमाओं पर आधारित हो, जो अक्सर रचनात्मक लेखांकन को बढ़ावा देते हैं।

बाजारों को भी अनुशासनकारी भूमिका निभानी होगी। राज्य विकास ऋण की नीलामी में पारदर्शी जानकारी और वास्तविक मूल्य निर्धारण तंत्र होना चाहिए, ताकि निवेशक जोखिम की पहचान कर सकें न कि उसे सब्सिडी देने वाला बनाएं। पंद्रहवें वित्त आयोग के शर्त आधारित उधारी ढांचे को और मजबूत किया जाना चाहिए, और उन राज्यों के लिए स्पष्ट दंड निर्धारित किए जाने चाहिए जो लगातार राजस्व घाटा बनाए रखते हुए बिना शर्त हस्तांतरण योजनाओं का विस्तार करते हैं।

बहरहाल, अगर राजनीतिक प्रोत्साहनों की मूल संरचना जस की तस बनी रहती तो केवल संस्थागत सुधार पर्याप्त नहीं होंगे। सच तो यह है कि प्रतिस्पर्धात्मक लोकलुभावनवाद तब तक बना रहेगा, जब तक मतदाता लगातार हो रहे राजकोषीय अपव्यय की लागत को अंदरूनी रूप से नहीं समझते। जब चुनावी लोकलुभावनवाद के साथ राजकोषीय पारदर्शिता और मतदाता की विवेकशीलता जुड़ेगी, तभी भारत के राज्य रियायतों की बजाय सुशासन के आधार पर प्रतिस्पर्धा करेंगे।


(लेखक भारतीय प्रबंध संस्थान रांची में अर्थशास्त्र और लोकनीति विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

First Published : November 10, 2025 | 9:25 PM IST