संपादकीय

भारत-पाकिस्तान रिश्तों में नई शुरुआत की संभावना

यह भारत द्वारा एशिया और हिंद-प्रशांत क्षेत्रों में किए जा रहे प्रयासों से अलग है जिनमें क्वाड भी शामिल है।

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बीएस संपादकीय   
Last Updated- October 18, 2024 | 10:57 PM IST

भारत की विदेश नीति का यह पहलू पर्यवेक्षकों को चकित कर सकता है कि वह लगभग हर बहुपक्षीय समूह में शामिल होने के लिए कैसे तैयार रहता है। शांघाई सहयोग संगठन (एससीओ) को ही लेते हैं। इसमें चीन और पाकिस्तान दोनों शामिल हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह भारत द्वारा एशिया और हिंद-प्रशांत क्षेत्रों में किए जा रहे प्रयासों से अलग है जिनमें क्वाड भी शामिल है। परंतु गत सप्ताह ऐसे समूहों का महत्त्व सामने आया।

पाकिस्तान के साथ द्विपक्षीय बैठक पिछले कुछ समय में संभव नहीं हो पा रही थी लेकिन एससीओ शिखर बैठक के इस्लामाबाद में आयोजित होने के कारण विदेश मंत्री एस जयशंकर को यह अवसर मिला कि वह सीमा पार जाएं और दोनों पड़ोसी देशों के रिश्तों में नई जान फूंकें।

यह आठ वर्षों में किसी भारतीय विदेश मंत्री की पहली पाकिस्तान यात्रा थी। इससे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की पोती के निकाह के अवसर पर अचानक पाकिस्तान पहुंचे थे। जानकारी के मुताबिक जयशंकर ने पाकिस्तान के विदेश मंत्री मोहम्मद इशाक डार से दो बार बात की। वह सीमा पार गतिविधियों के बारे में कड़ा संदेश देने में कामयाब रहे और इस विषय पर भारत की लंबे समय से चली आ रही चिंता से अवगत कराया।

उन्होंने दक्षिण एशियाई देशों के आपसी रिश्तों को सामान्य बनाने की दिशा में रास्ते तलाश करने की दिशा में भी प्रयास किया। दोनों पक्षों की इस बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने भड़काऊ बयान देकर सुर्खियां बटोरने का प्रयास नहीं किया। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले महीनों में एक परिपक्व रास्ता तलाश किया जा सकेगा।

हाल के वर्षों में पाकिस्तान को लेकर भारत का रुख यह रहा है कि वह उसे यथासंभव अलग-थलग कर दे। पाकिस्तान की आंतरिक उथल-पुथल ने भी इसमें योगदान किया है और इस तथ्य ने भी कि उसकी अर्थव्यवस्था की हालत बहुत खराब है। पहले तर्क दिए जाते थे कि सीमा पार व्यापार दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं को एकजुट करता है और उनके रिश्तों में स्थिरता लाता है। अब भारत में इस तर्क पर बहुत अधिक यकीन नहीं किया जा सकता है।

इस लिहाज से अब यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि दक्षिण एशिया में शांति की स्थापना की गुंजाइश है और ऐसा किया जाना चाहिए। शरीफ के पास अभी भी पाकिस्तान में काफी राजनीतिक शक्ति है क्योंकि पाकिस्तान के मौजूदा प्रधानमंत्री उनके भाई हैं। पद पर रहते हुए शरीफ ने कई बार इस संभावना के बारे में बात की। भारत की बात करें तो उसने 2019 में कश्मीर का दर्जा बदलने के बारे में पाकिस्तान की प्रतिक्रिया पर ध्यान दिया होगा जो कूटनीतिक दायरे में ही रही थी।

इससे दो संभावित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं: पहला, पाकिस्तान में अब यह क्षमता नहीं है कि वह भारत के काम को बाधित कर सके, चाहे वह कश्मीर से जुड़ा मुद्दा ही क्यों नहीं हो। दूसरा यह कि यह इस बात का संकेत है कि वहां का प्रतिष्ठान रिश्तों को सामान्य बनाने के नाम पर ऐसे कदमों की अनदेखी करने का इच्छुक है। चाहे जो भी हो सामान्यीकरण का ऐसा सवाल है जिसे अब खंगालने की जरूरत है। ऐसा भारत की चिंताओं की कीमत पर नहीं होना चाहिए और पाकिस्तान को भी उन्हें दूर करना चाहिए।

इससे होने वाले लाभ शायद उतने व्यापक नहीं हों जितना कि उन्हें दो दशक पहले माना जाता था जब शरीफ और अटल बिहारी वाजपेयी ने लाहौर घोषणापत्र के जरिये रिश्तों को नए सिरे से सुधारने की कोशिश की थी। परंतु इस बीच दोनों देशों के बीच तुलनात्मक असंतुलन भी बढ़ा है। दक्षिण एशिया में स्थिरता की एक नई राह नजर आ रही है।

First Published : October 18, 2024 | 10:57 PM IST