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Editorial: भारत-अमेरिका समझौता जरूरी

भारतीय पक्ष अमेरिका के वार्ताकारों से लगातर संपर्क में है और दोनों देशों को सारे पुराने मसले फौरन सुलझाकर एक-दूसरे के लिए फायदेमंद व्यापारिक समझौता कर लेना चाहिए

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बीएस संपादकीय   
Last Updated- November 02, 2025 | 9:37 PM IST

अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग दो घंटे से भी कम समय तक चली अल्पकालिक बैठक के बाद दोनों देशों के बीच व्यापारिक तनाव से निपटने और शांति कायम करने पर सहमत हो गए। इसमें अमेरिका के लिए और खास तौर पर ट्रंप के लिए शायद ही फायदे की कोई बात थी। बल्कि इससे शी की वह बात सही साबित हो गई कि वह व्यापार के मामले में रत्ती भर समझौता नहीं करेंगे।

अपनी दुर्लभ धातुओं के निर्यात पर लगाए प्रतिबंध और लाइसेंसिंग की जरूरतें खत्म करने के बदले चीन भारी-भरकम शुल्क टालने में कामयाब रहा है। इस तरह सबंधों में कुछ नया नहीं हुआ है बल्कि ठहराव भर आया है। यह बराबरी का लेनदेन भी नहीं है क्योंकि निर्यात प्रतिबंध तो तब लगाए गए थे, जब अमेरिका ने शुल्क बढ़ाए थे।

चीन ने अमेरिकी किसानों से 2.5 करोड़ टन सोयाबीन खरीदने पर भी सहमति जताई। परंतु यह मात्रा पिछले साल यानी ट्रंप के राष्ट्रपति बनने और कारोबारी जंग छेड़ने के पहले की गई खरीद से कम है। चीन इसके बदले अमेरिका को किए जाने वाले निर्यात पर 100 फीसदी का दंडात्मक शुल्क नहीं देगा। नई शुल्क दर 47 फीसदी होगी जो अब भी बहुत अधिक है लेकिन भारत पर लगे शुल्क से कम है। दूसरे शब्दों में कहें तो चीन ने ट्रंप के हाथों कुछ गंवाए बगैर अपने ऊपर लगा शुल्क आधा करवा लिया।

दुर्लभ धातुओं और चुंबकीय तत्त्वों के निर्यात पर प्रतिबंधों को रोका जाना दुनिया के कई देशों के लिए राहत की बात है। इनमें यूरोपीय संघ और भारत भी शामिल हैं जो दोनों महाशक्तियों की लड़ाई में फंस गए हैं। शी चिनफिंग ने नपे-तुले तरीके से जता दिया कि इन धातुओं के बगैर उच्च तकनीक पर आधारित कोई भी निर्माण नहीं हो सकता और दुनिया को अगर इनकी जरूरत है तो देशों के पास चीन के अलावा कोई और विकल्प नहीं है।

इसके लिए जल्द ही अतिरिक्त स्रोत विकसित करने होंगे लेकिन तथ्य यह है कि इस आपूर्ति श्रृंखला में चीन के दबदबे को 2010 से ही महसूस किया जा रहा है, जब इसने जापान के विरुद्ध ऐसे ही प्रतिबंधों का इस्तेमाल​ किया था। इसे हल करने के लिए राष्ट्रीय या बहुराष्ट्रीय स्तर पर कोई कदम नहीं उठाए गए।

शी ने अपना तुरुप का पत्ता दिखा दिया है और अब उसकी टक्कर तैयार करने का वक्त आ गया है। दोनों देशों के बीच शांति का मतलब भारत के लिए यह होगा कि उसके निर्यातकों पर अमेरिका का ऊंचा यानी 50 फीसदी का शुल्क झेलना होगा। भारत के मुकाबले चीन के साथ समझौता करने की बेताबी अमेरिका में ज्यादा दिखी लेकिन अगर शर्तें अधिक आकर्षक बनाई गईं तो हालात बदल सकते हैं।

अगर प्रधानमंत्री अपनी व्यक्तिगत कूटनीति का प्रयोग करें तो ऐसा हो सकता है। निश्चित तौर पर एक या दो ऐसे संकेतक हैं जो बताते हैं कि द्विपक्षीय रिश्ते इतने नहीं बिगड़े हैं कि सुधर न सकें। उदाहरण के लिए अमेरिका ने ईरान के रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण चाबहार बंदरगाह पर लगे प्रतिबंधों से भारत को दी गई छूट पहले रोक दी थी मगर अब पता चला है कि उस छूट को छह महीने के लिए और बढ़ा दिया गया है। इसके अलावा पिछले सप्ताह भारत और अमेरिका ने रक्षा सहयोग पर एक दशक लंबा समझौता भी किया।

इससे साफ है कि दोनों देशों की साझेदारी में भरोसा रखने वाले लोग अब भी मिलकर काम कर सकते हैं। यही जज्बा अब व्यापार में भी लाना पड़ेगा। भारत पर ऐसे शुल्क लगने की कोई वजह ही नहीं है। बताया जा रहा है कि भारतीय पक्ष अमेरिका के वार्ताकारों से लगातर संपर्क में है और दोनों देशों को सारे पुराने मसले फौरन सुलझाकर एक-दूसरे के लिए फायदेमंद व्यापारिक समझौता कर लेना चाहिए।

First Published : November 2, 2025 | 9:37 PM IST