संपादकीय

बैंकिंग क्षेत्र में अधिक प्रतिस्पर्द्धा की दरकार

SFB श्रेणी मूल रूप से सभी तक वित्तीय सेवाओं का दायरा बढ़ाने के मकसद से तैयार की गई थी। निश्चित रूप से यह शोध का विषय है कि उन्होंने उस उद्देश्य की पूर्ति की है या नहीं।

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बीएस संपादकीय   
Last Updated- April 28, 2024 | 10:55 PM IST

भारतीय रिजर्व बैंक ने पिछले सप्ताह उन मौजूदा ‘लघु वित्त बैंक’ या एसएफबी के लिए नए नियम जारी किए जो खुद को नियमित यानी ‘यूनिवर्सल’ बैंक में बदलने की इच्छा रखते हैं। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं हैं कि क्या कोई मौजूदा एसएफबी तुरंत इस प्रक्रिया का लाभ उठा पाएगा या नहीं लेकिन यह स्वागत योग्य कदम है क्योंकि इसके माध्यम से स्पष्ट नीतियां पेश की गई हैं जिसका लक्ष्य काफी लंबे समय से तय है।

इस बदलाव से गुजरने पर एसएफबी को निश्चित रूप से कुछ लाभ मिलेगा। उदाहरण के तौर पर वे प्राथमिकता वाले क्षेत्र को ऋण देने के अपने स्तर को कम कर सकते हैं। इससे उनकी पूंजी की आवश्यकता कम होगी और ज्यादा मुनाफा बनाने का मौका मिलेगा।

हालांकि इसके लिए आरबीआई के पात्रता नियम अपेक्षाकृत ज्यादा सख्त हैं और कई एसएफबी इसके पात्र नहीं हो पाएंगे। इसके लिए जरूरी है कि लघु वित्त बैंक सूचीबद्ध हों और वे पांच वर्षों से संचालित हो रहे हों। इसके साथ ही उन्हें नियामक की नियमित जांच प्रक्रिया में भी सफल होना होगा।

इसके अलावा इन एसएफबी को पिछले दो वर्षों में शुद्ध लाभ दर्ज करना चाहिए और इनकी हैसियत कम से कम 1,000 करोड़ रुपये तक होनी चाहिए। एयू एसएफबी को छोड़कर बाकी सभी मौजूदा एसएफबी की हैसियत अभी 1,000 करोड़ रुपये से कम है। एयू एसएफबी के फिनकेयर एसएफबी के साथ विलय किए जाने की घोषणा अक्टूबर 2023 में की गई थी और इससे दक्षिण भारत में इसके लिए नए क्षेत्र खुल जाएंगे।

हालांकि व्यापक प्रक्रिया एक अच्छी खबर के संकेत दे रही है। इस पूरी कवायद का अंतिम लक्ष्य, स्पष्ट नियामक लक्ष्यों के साथ बैंकिंग क्षेत्र में अधिक प्रतिस्पर्धा बनाने से जुड़ा होना चाहिए। एसएफबी श्रेणी की घोषणा 2014 में की गई थी और ज्यादातर एसएफबी गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनएफबीसी) से ही तैयार किए गए थे। अब उनके पास यूनिवर्सल बैंकिंग के लिए एक रास्ता बनता दिख रहा है।

निश्चित तौर पर उनके पास सुरक्षा, विश्वसनीयता और नियामकीय निरीक्षण की एक स्पष्ट सीढ़ी है जिसका पालन करके वित्तीय योजनाओं से जुड़ा क्षेत्र एक नियमित बैंक बन सकता है। बैंकिंग नियामक के लिए वास्तव में बैंकिंग क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा बढ़ाना ही प्राथमिकता होनी चाहिए।

शोध से पता चला है कि भारत में 1998 से शुरू हुए बैंक सुदृढ़ीकरण के दौर में मौद्रिक नीति की प्रसार क्षमता में अच्छी-खासी गिरावट आई है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि बाजार की बड़ी ताकत से किसी बैंक के वैकल्पिक वित्तीय फंडिंग के स्रोत बढ़ जाते हैं। एसएफबी श्रेणी मूल रूप से सभी तक वित्तीय सेवाओं का दायरा बढ़ाने के मकसद से तैयार की गई थी। निश्चित रूप से यह शोध का विषय है कि उन्होंने उस उद्देश्य की पूर्ति की है या नहीं।

हालांकि सैद्धांतिक रूप से यह स्पष्ट तौर पर प्रतीत होता है कि एसएफबी को परिभाषित करने वाले नियामकीय वातावरण से उभरे बैंक, यूनिवर्सल बैंकिंग के दायरे का विस्तार करने में भी मदद करेंगे, खासतौर पर यह देखते हुए कि उन्हें उन लोगों से बैंकों की जमाएं बढ़ाने के बारे में विशिष्ट जानकारी है जो बैंकिंग सेवाएं से वंचित रहे हैं।

बैंकिंग क्षेत्र में जमा वृद्धि को भविष्य में प्राथमिकता दिए जाने की संभावना है। स्टैंडर्ड ऐंड पूअर के हालिया शोध से पता चला है कि बैंकों में ऋण वृद्धि, जमा वृद्धि के मुकाबले 2-3 फीसदी अंक अधिक है। बैंकिंग क्षेत्र के कुछ लोगों का तर्क है कि यह अन्य रुझानों का एक स्वाभाविक परिणाम है।

उदाहरण के तौर पर घरेलू वित्तीय बचत पर दबाव है और म्युचुअल फंड जैसे वैकल्पिक निवेश स्रोतों का प्रदर्शन आकर्षक रहा है। इसी बीच, हाल के दिनों में बैंकों में जमा पर रिटर्न वास्तविक रूप में बहुत कम रहा है। हालांकि, ऋण की मांग लगातार बनी हुई है। कुल मिलाकर, एसऐंडपी के अनुसार, बाजार मूल्य पर सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि से ऋण वृद्धि 1.5 गुना अधिक है, जबकि जमा वृद्धि बाजार मूल्य पर जीडीपी के अनुरूप है।

ऐसे में जब तक जमा वृद्धि में तेजी नहीं लाई जाती है, तब तक ऋण वृद्धि में गिरावट आ सकती है। इसका व्यापक अर्थव्यवस्था, समग्र निवेश और वृद्धि पर अप्रत्याशित प्रभाव पड़ सकता है। बैंकिंग आधार के विस्तार पर ध्यान देने के साथ अधिक से अधिक बैंकों में प्रतिस्पर्धा भी इस लक्ष्य को हासिल करने का एक तरीका है।

First Published : April 28, 2024 | 10:55 PM IST